Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia

आज के शुभ मुहूर्त

(द्वादशी तिथि)
  • तिथि- चैत्र शुक्ल द्वादशी
  • शुभ समय- 7:30 से 10:45, 12:20 से 2:00
  • व्रत/मुहूर्त-विष्णु द्वादशी, मदन द्वादशी
  • राहुकाल-प्रात: 10:30 से 12:00 बजे तक
webdunia
Advertiesment

जैन दर्शन में सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञता का स्वरूप

हमें फॉलो करें जैन दर्शन में सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञता का स्वरूप
-साध्वी सिद्धायिका
भारतीय वाङ्मय की कतिपय धाराएं सर्वज्ञ एवं सर्वज्ञता के धरातल पर अपना अस्तित्‍व बनाकर रखती हैं। सर्वज्ञ की अवस्‍था जीवात्‍मा की सर्वोत्‍कृष्‍ट अवस्‍था है। चरम एवं परम स्थिति है। सामान्‍य भाषा में चैतन्‍यता के प्रकर्षता को सर्वज्ञता कहा जाता है।
  
परिभाषा- जैन दर्शन में दर्शनकारों ने इसकी अनेक व्‍याख्‍याएं कही हैं। आचार्य पूज्‍यपाद कहते हैं- निरावरणज्ञाना: केवलिन:1 अर्थात आवरण रहित ज्ञान जिनका होता है वह केवली अर्थात सर्वज्ञ हैं। केवल शब्‍द का व्‍युत्‍पत्तिलभ्‍य अर्थ आचार्य पूज्‍यपाद इस तरह करते हैं- बाह्नेनाभ्‍यन्‍तरेण च तपसा यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्‍ते सेवन्‍ते तत्‍केवलम2 अर्थात बाह्य और आभ्‍यन्‍तर तप के द्वारा अर्थीजन मार्ग का केवन अर्थात सेवन करते हैं। उस सेवन से प्राप्‍त ज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ कहलाता है। तत्‍वार्थ राजवार्तिक में वर्णन आता है कि ज्ञानावरणादि घातीकर्मों का अत्‍यंत क्षय हो जाने पर सहजता से, स्‍वाभाविक ही अनन्‍तचतुष्‍टय का प्रस्‍फुटन होता है तथा इंद्रियों की आवश्‍यकता से परे ज्ञानोदय का प्रारंभ होता है अर्थात जिनका ज्ञान इंद्रिय कालक्रम और दूर देशादि के व्‍यवधान से परे है, परिपूर्ण है, वह सर्वज्ञ है।3 रत्‍नाकरावतारिका में वर्णन आता है कि-
सकलं तु सामग्री: समुद्भूतसमस्‍तावरणक्षयापेक्षं।
निखिल द्रव्‍य पर्याय- साक्षात्‍कारि स्‍वरूपं केवलज्ञानमिति।।4 
यहां सर्वज्ञ प्राप्ति के लिए दो सामग्रियों को आवश्‍यक बतलाया है। 1. आभ्‍यन्‍तर सामग्री एवं 2. बाह्य सामग्री। सर्वज्ञता की प्राप्ति में सम्‍यग्‍दर्शनादि अंतरंग सामग्री हैं तथा मनुष्‍य जन्‍मादि बहिरंग सामग्री हैं। इन दोनों सामग्रियों की उपलब्‍धता के साथ ही संपूर्ण घाती कर्मों का क्षय करने में प्रबल पुरुषार्थी होने से आचार्य हरिभद्रसूरि ने सर्वज्ञ को महामल्‍ल मोह का नाशक बतलाया है।5 वे कहते हैं कि सर्वज्ञ राग-द्वेष की आभ्‍यन्‍तर ग्रंथि से रहित, इन्‍द्रों द्वारा पूज्‍य, सभी प्रकार के कर्मों को क्षय करने वाला, परम पद की प्राप्ति करने वाला, वीतरागी, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, जिनेश्‍वर प्रभु सर्वज्ञ कहा गया है।
 
पर्यायवाची नाम : सर्वज्ञ को अनेक नाम से जाना जाता है। जैसे- वीतराग, ईश्‍वर, जिनेश्‍वर, केवल, अनंत, सकल, शुद्ध, असाधारण, हितोपदेशी, कारण परमात्‍मा, कार्य परमात्‍मा आदि अनेक नामों से सर्वज्ञ को जाना जाता है।

वीतराग पद को समझाते हुए जैनेन्‍द्र सिद्धांत कोष में कहा गया है कि- वीतो नष्‍टो रागो येषां ते वीतराग: अर्थात जिनका रोग, द्वेष नष्‍ट हो गया है वह वीतराग है। अभिप्राय है कि वीतराग मोहनीय कर्मोदय से भिन्‍नत्‍व की उत्‍कृष्‍ट भावना का चिंतन करके निर्विकार आत्‍मस्‍वरूप को विकसित करते हैं। अत: वे वीतराग कहलाते हैं।6

ईश्‍वर पद की अभिव्‍यक्ति करते हुए कहा है कि जो केवलज्ञान रूपी ऐश्‍वर्य से युक्‍त हैं, देवेंद्र भी जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वह 'ईश्‍वर' है।7 सर्वज्ञ को शुद्ध, सकल, अनंतादि पदों से अभिहित करते हुए कहा है कि-
केवलमेगं शुद्धं सगलमसाहारणं अणतं च।
पायं च णाणसद्दोमाणसद्दो नाणसमाणाहिमरणोऽयं।।8
यहां शुद्ध से अभिप्राय समस्‍त कर्म मलों की शुद्धि से है। कर्म मल का विलय होने से सर्वज्ञ को शुद्ध कहते हैं। ज्ञेय पदार्थों का ज्ञाता होने से सर्वज्ञ को सकल कहते हैं। जगत के संपूर्ण पदार्थों को युगपत् जानने की सामर्थता होने से सर्वज्ञ केवली कहलाते हैं। सर्वज्ञता की प्राप्ति जैसा अन्‍य कोई ज्ञान नहीं है, इसीलिए उन्‍हें असाधारण कहते हैं। सर्वज्ञ अनंत पर्यायों का ज्ञाता होने से उसे अनंत कहा जाता है। लोकालोक के समस्त पदार्थों का ज्ञायक होने से सर्वज्ञ को सकल की संज्ञा दी जाती है।

जिनेन्‍द्र वर्णी ने 'कार्य परमात्‍मा' और 'कारण परमात्‍मा' को स्‍पष्‍ट करते हुए कहा कि 'कार्य परमात्मा' वह है जो पहले संसारी था, लेकिन वर्तमान में कर्म नष्‍ट कर मुक्‍त हो चुका है। 'कारण परमात्‍मा' वह है जो देश कालावच्छिन्‍न शुद्ध चेतन सामान्‍य तत्‍व है। जो मुक्‍त और संसारी सभी में अन्वय रूप से पाया जाता है। 'कारण परमात्‍मा' का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि वह जन्‍म, जरा और मरणरहित होता है। परम शुद्ध, ज्ञानादि चतुष्‍टय से युक्‍त, अक्षय, अविनाशी और अच्‍छेद्य है वह 'कारण परमात्‍मा' है।9
सर्वज्ञ के प्रकार- 'कषाय पाहड' में सर्वज्ञ के दो प्रकार कहे गए हैं- 
1. तद्भवस्‍थ सर्वज्ञ- जिस पर्याय में केवलज्ञान प्राप्‍त हुआ उसी अवस्‍था में स्थित सर्वज्ञ को तद्भवस्‍थ-सर्वज्ञ कहते हैं।
2. सिद्ध सर्वज्ञ- जिस सर्वज्ञ ने अपना आयुष्‍य कर्म भोग लिया है, वह सिद्ध सर्वज्ञ कहलाते हैं। नंदीसूत्र में इसके पुन: दो भेद किए हैं-
1. सयोगी केवली- जो केवली मन, वचन, काया के योग सहित हैं वे सयोगी केवली कहलाते हैं।
2. अयोगी केवली- मन, वचन, काया के योग रहित होने से वे अयोगी केवली कहलाते हैं। अयोगी केवली की व्‍याख्‍या करते हुए गोम्‍मटसार जीवनकांड में वर्णन आता है कि-
सीलेसिं संपत्‍तो निरुद्धणिस्‍सेसआसओ जीवो।
कम्‍मरयविप्‍पमुक्‍को गयजोगो केवली होदी।।10
अर्थात जो अठारह हजार शीलांग रथ के स्‍वामी हैं, जिन्‍होंने आवागमन के सभी द्वारों को रोक लिया है। जो कर्मों का नूतन बंध नहीं करते, त्रियोग की सहायता से रहित अयोगी सर्वज्ञ कहलाते हैं। आचार्य कुन्‍दकुन्द ने सर्वज्ञ के दो प्रकार इस तरह किए हैं- 1. सकल प्रत्‍यक्ष, 2. विकल प्रत्‍यक्ष 11
1. सकल प्रत्‍यक्ष- जो धर्मास्तिकाय आदि छह द्रव्‍यों को जानता है, देखता है, वह सकल प्रत्‍यक्ष होता है।
2. विकल प्रत्‍यक्ष- जो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान, इन ज्ञानों का अधिकारी होता है व विकल प्रत्‍यक्ष कहलाता है।
स्‍वपर-प्रकाशमय ज्ञानालय- सर्वज्ञता प्राप्ति के पश्‍चात सर्वज्ञ स्‍व को भी जानता है और वह पर को भी जानता है। अत: सर्वज्ञ का ज्ञान स्‍व-पर प्रकाशक है। दोनों का भी ज्ञाता है। यद्पि सर्वज्ञ की सर्वज्ञता शब्‍दों में आंकना संभव नहीं है तथापि वह ज्ञान सामान्‍य लोगों को किंचित अवलोकन हो इस भावना से उसे शब्‍दों की श्रृंखला दे रही हूं-
1. निश्‍चय और व्‍यवहार से स्व पर का ज्ञाता-
कर्मक्षय के हेतु चिंतन करने पर ज्ञात होता है कि आभ्‍यंतर ज्ञानालोक का प्रकाशवलय दो तरह से होता है। प्रथम निश्‍चय दृष्टि से सर्वज्ञ स्‍वयं के ज्ञानमय स्‍वभाव में रहते हैं तथा व्‍यवहार दृष्टि से सर्वज्ञ प्रत्‍यक्ष होकर संपूर्ण लोकालोक का दर्शन करते हैं।12
2. स्‍व में निमग्‍न हैं किन्‍तु पर पदार्थों के ज्ञाता-
सर्वज्ञ परमात्‍मा संसार को ज्ञात करते हैं, किन्‍तु ज्ञेय स्‍वरूप में परिणमित नहीं होते। न ही उन पदार्थों को ग्रहण करते हैं। 13 जैसे खड़िया (सफेदी) दीवार पर लगाने से दीवार के साथ एक रूप नहीं होती। एक रूप न होने से वह दीवार के बाह्य भाग में ही रहती है। इस प्रकार सर्वज्ञ की आत्‍मा घटपटादि ज्ञेय पदार्थों का ज्ञायक होने पर भी उसमें तल्‍लीन नहीं होती। ज्ञायक ज्ञायकपणे में ही रहती है।
3. ज्ञेयाकार में निमग्‍न सर्वज्ञता-
सर्वज्ञ का ज्ञान पदार्थों में प्रवृत्‍त नहीं होता, फिर भी उनकी पदार्थों में प्रवृत्ति स्‍वीकार की जाती है। इस विषय में आचार्य कुन्‍दकुन्‍द कहते हैं कि नेत्रों द्वारा द्रव्‍यों को जाना जाता है फिर भी नेत्रों द्वारा द्रव्‍यों का स्‍पर्श नहीं होता। इसी तरह सर्वज्ञ भी ज्ञेयभूत संपूर्ण वस्‍तुओं को स्‍वप्रदेशों से स्‍पर्श नहीं करता है।14 अप्रविष्‍ट होकर ही स्‍पर्श करता है। प्रदीप की भांति सर्वज्ञ पर द्रव्‍यों की तो जानता ही है, साथ ही उसे स्‍व का भी ज्ञान हो जाता है।
4. ज्ञेयाकारों से प्रतिबिंबित 'स्‍व' आत्‍मज्ञाता-
धवला टीकाकार 15 कहते हैं कि सर्वज्ञ के द्वारा अशेष बाह्य पर्दार्थों का ज्ञान होता है। विश्‍व का संपूर्ण ज्ञान सर्वज्ञ के द्वारा जाना जाता है, समस्‍त द्रव्‍य और उसकी पर्यायों का ज्ञाता सर्वज्ञ होता है। ऐसा ज्ञान होने पर भी उन्‍हें 'स्‍व' का संवेदन रहता है। अत: वे त्रिकालगोचर अनंत पर्यायों से अपचित अवस्‍था में निमग्‍न रहते हैं।
5. सर्वज्ञ ज्ञेयाकार में ज्ञेय के ज्ञाता-
आत्‍मा स्‍वयं ज्ञेयरूप नहीं है, किन्‍तु वह ज्ञेय के आकार रूप में परिणमित हो जाती है। नियमसार में कहा गया है कि शुद्धात्‍मा रूप, रस, गंध, स्‍पर्श रहित और अनंत ज्ञान, दर्शन, सुख तथा वीर्य सहित है किन्‍तु पदार्थों के स्‍वरूप का ज्ञान करते समय वह ज्ञेय रूप हो जाती है।16

इस प्रकार सर्वज्ञ प्रभु लोकालोक के ज्ञाता त्रिलोचन होने पर भी 'स्‍व' में लीन सच्चिदानंद स्‍वरूप को देखते हैं। दीपक घर की दहलीज पर होने से घर के साथ आंगन को भी प्रकाशित करता है। वैसे ही ज्ञान स्‍व आत्‍मा को तो प्रकाशित करता ही है, किन्‍तु बाह्य जगत को भी प्रकाशित करता है। वास्‍तव में आत्‍मा ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्‍मा है। ज्ञानपिंड का दर्शन आत्‍मदर्शन है। निश्‍चय एवं व्‍यवहार के समन्‍वय द्वारा इसे जाना जा सकता है। अत: सर्वज्ञ प्रभु स्‍व पर प्रकाशक है।
 
संदर्भ-
1. आचार्य पूज्‍यपाद, सर्वार्थ सिद्धि 6/13 वृत्ति
2. ‍ आचार्य पूज्‍यपाद, सर्वार्थ सिद्धि 6/91
3. करण क्रमण्‍यवधानातिवर्तिज्ञार्नापेता: केवलिन:। तत्‍वार्थ राजवार्तिक, 6/13 वृत्ति
4. रत्‍नकरावतारिका, सूत्र 23
5. जिनेन्‍द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जित:। हतमोहमहात्‍त: केवलज्ञान दर्शन:।
सूरासुरेन्‍द्रसंपूज्‍य: संभ्‍दूतावर्थप्रकाशक:। कृत्‍सन्‍नकर्मापयंकृत्‍वा परमं पाम्।।
आचार्य हरिभद्रासूरि षड्दर्शन समुच्‍चय, गाथा-1
6. सकलमोहनीयविपाकविवेकभावना सौष्‍ठव स्‍फटोकृत निर्विकारात्‍म स्‍वरूप दि्वतराग: जिनेन्‍द्र वर्णी, जैनेन्‍द्र सिद्धांत कोश, पृ.सं. 583
7. केवलज्ञानादि गुणैश्‍वर्ययुक्‍तस्‍य संतो देवेन्‍द्रादयोऽपि तत्‍पदाभिलाषिण: सन्‍तो यस्‍याज्ञानां कुर्वन्ति स ईश्‍वराभिधानो भवति। जैनेन्‍द्र सिद्धांत कोश पृ.सं. 5838. विशेषावश्‍यक भाष्‍य, गाथा-84
9. निजकारणपरमात्‍माभावनोत्‍पन्‍न कार्य परमात्‍मा स एव भगवान् परमेश्वरा, जैनेन्‍द्र सिद्धांत कोश पृ.सं. 583
10. नेमीचंद सिद्धांत चक्रवर्ती, गोम्‍मटसार जीवकांड, गाथा 65
11. मुत्‍तममुत्‍तं दव्‍वं चेयणनियरं सगं च स्‍व्‍वं च।
पेच्‍छंतस्‍स दु णाणं पच्‍चक्‍खमणिंदियं होइ नियमसार, गाथा 167
12. ते पुणु वंद द सिद्ध- गण जे अप्‍पाणि बसंत।
लोयालोउ वि सयलु इहु अच्‍छहि विमलुणियंत।। योगीन्‍दु देव, परमात्‍म प्रकाश, गाथा 5
13. प्रवचनसार, गाथा 32
14. ण पविट्ठो भाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्‍खु।
जाणदि परसदि णियदं अवखातीतो जगमसेसं।। आचार्य कुन्‍दकुन्द प्रवचनसार गाथा 29
15. अशेषबाह्यार्थग्रहणे सत्‍यपि न केव‍लिन: सर्वज्ञाता, स्‍वरूपपरिचिन्‍त्‍य- भावादित्‍युक्‍ते, त्रिकाल
गोचरानन्‍तपर्यायोपचितमात्‍मानं च पश्‍यति आचार्य जयसिंग, धवला टीका, 13/5/5/84
16. रयणमिह इन्‍दनीलं दुध्‍द समियं जहा समासार:। अभिश्रूयतं पि दुध्‍द वट्ठदि तह गाणमत्‍थेसु।। आचार्य कुन्‍दकुन्‍द प्रवचनसार, गाथा 30

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

नदियों के तट पर बसे हिन्दुओं के प्रमुख तीर्थ, जरूर जाएं दर्शन करने