-मुनि जयंत कुमार
भारतवर्ष में जितने भी पर्व हैं, उनमें दीपावली सर्वाधिक लोकप्रिय और जन-जन के मन में हर्ष-उल्लास पैदा करने वाला पर्व है। वैदिक प्रार्थना है- 'तमसो मा ज्योतिर्गमय:' अर्थात अंधकार से प्रकाश में ले जाने वाला पर्व है- 'दीपावली'।
दीपावली के पूर्व लोग दुकानों व घरों की साफ-सफाई करते हैं, रंग-रोगन करते हैं। लोगों में यह भावना रहती है कि इस दिन श्री लक्ष्मीजी दुकान व घर में प्रवेश करती हैं। जीवन में धन का महत्व है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। धन से मानव अपना रोज का जीवन व्यवहार चलाता है। अपनी आशा-आकांक्षाओं को पूरा करने की कोशिश में लगा रहता है।
मनुष्य चाहता है कि उसे अच्छा भोजन मिले, रहने को सुन्दर-सा घर हो और कभी वह बीमार पड़ जाए तो उसे अच्छी-से-अच्छी चिकित्सा मिले। इन सबकी पूर्ति के लिए ही वह श्री लक्ष्मी देवी की पूजा-अर्चना करता है। कामना करता है कि श्री लक्ष्मी देवी उसके भंडार को धन-धान्य से परिपूर्ण कर दें। लेकिन धन में बड़ा प्रमाद होता है, मद होता है, विकार होता है।
प्राय: लोग दीपावली के मात्र बाह्य प्रसंगों का स्मरण कर पर्व मनाने की सफलता समझ लेते हैं। श्रीराम के अयोध्या प्रवेश को याद करते हैं, महर्षि दयानंद सरस्वती के स्वर्गवास की स्मृति कर लेते हैं, राष्ट्रसंत विनोबाजी के देहत्याग की गरिमा का गुणगान कर लेते हैं, किंतु प्रकाश पर्व के उन आंतरिक संदेशों को अनदेखा कर देते हैं, जो हमें अपनी आत्मा में निहित प्रकाश को उत्पन्न करने की प्रेरणा देते हैं।
जैन दृष्टि से दीपावली त्याग तथा संयम का पर्व है। सांसारिक पर्व के साथ-साथ यह आध्यात्मिक पर्व भी है। इस दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्या को 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर ने निर्वाण पद (मोक्ष, सिद्धावस्था) को प्राप्त किया था। जैन समाज भगवान की निर्वाण पद प्राप्ति की खुशी में बहुत प्राचीनकाल से ही दीपावली पर्व मनाता आ रहा है। निर्वाण पद की प्राप्ति आसक्ति से नहीं विरक्ति से, भोग से नहीं त्याग से, वासना से नहीं साधना से, बाहरी लिप्तता से नहीं अहिंसा, संयम व तप से होती है।
आज जैन समाज इस पर्व के आध्यात्मिक संदेश को भूलकर सांसारिक, शारीरिक वासनाओं की तृप्ति में लिप्त हो रहा है। यही तो विडंबना है। अच्छा खाना, अच्छा पहनना, आमोद-प्रमोद करना आदि तो दीपावली का बाहरी पक्ष है, जो सांसारिक दृष्टि से आकर्षक जरूर लगता है किंतु आत्मिक दृष्टि से कतई उचित नहीं है। अनेक धर्म वाले जीवन का अंतिम लक्ष्य निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति को ही मानते हैं।
आज हमारी नई पीढ़ी निर्वाण पक्ष को प्राय: भूलती जा रही है तथा इस दिन होटलों व पार्टियों में अभक्ष्य भक्षण करना, जुआ खेलना, घोर हिंसा करने वाले पटाखों को छोड़ना तथा अन्य अनेक दुष्प्रवृत्तियों में लिप्त होकर मानव जीवन को खाई में ढकेल रही है।
दीपावली के दिन जुआ खेलने की परंपरा बहुत पहले से चली आ रही है। अज्ञानी लोग मानते हैं कि इस दिन जुआ खेलने से लक्ष्मी आती है, यह उनका भ्रम है।
आतिशबाजी के कारण कितने ही छोटे-छोटे जीव मौत के मुंह में चले जाते हैं। यदि हम किसी को जीवन दे नहीं सकते, तो दूसरों के प्राण लेने का हमें क्या अधिकार? दूसरों के प्राणों की घात सबसे बड़ी हिंसा है, सबसे बड़ा पाप है। आतिशबाजी से कई जीवों की घात तो होती ही है किंतु कई लोग अपने प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं।
प्राय: हम सुनते हैं कि आतिशबाजी के कारण अमुक जगह आग लग गई, लाखों-करोड़ों का नुकसान हो गया तथा अनेक लोगों के नेत्र की ज्योति चली जाती है। कइयों के हाथ-पांव जल जाते हैं, महिलाओं व पुरुषों के कीमती वस्त्र जल जाते हैं, कई अधजले होकर रह जाते हैं। यह कैसी बर्बादी है? तन की भी और धन की भी।
आजकल दीपावली के दिन उद्योगपति, व्यापारी तथा अन्य लोग अपनी अनेक विवशताओं के कारण तत्संबंधी अधिकारियों के पास बड़े-बड़े कीमती उपहार भेजते हैं। ये उपहार आंतरिक खुशी से नहीं, बल्कि विभिन्न संकटों से अपनी 'सुरक्षा' करने के लिए रिश्वत के रूप में भेजे जाते हैं, यह वास्तव में भ्रष्टाचार का ही एक रूप है।
दीपावली के समस्त सांसारिक आयोजन हमारी अनीकिनी के अज्ञानरूपी अंधकार के ही शोधक एवं सूचक हैं। दीपकों का प्रकाश, मिष्ठान्न सेवन एवं वितरण, मकान-दुकान की स्वच्छता, लक्ष्मी उपासना, परिग्रह का असीमित प्रदर्शन, पांचों इन्द्रियों के भोगों का खुलकर सेवन करने की प्रवृत्ति, दुर्व्यसनों के प्रति आसक्ति अनादि जो भी आयोजन हम दीपावली के दिन करने के अभ्यस्त हो चुके हैं, वे सभी हमारे अज्ञानरूपी अंधकार के पोषक एवं सूचक ही हैं तथा उनसे कभी भी आत्मा का कल्याण संभव नहीं है। ये सभी दीपावली आयोजन 'तमसो मा ज्योतिर्गमय:' की भावना के पूर्णतया विपरीत हैं।
आज समाज आत्म-साधना और त्याग-वृत्ति के पथ पर चलने के बजाय भोग और परिग्रह वृत्ति के प्रति झुक गया है। निर्वाण मार्ग के अनुसरण के बजाए संसार यानी भव भ्रमण के मार्ग को अपनाने लगा है और वैराग्य के स्थान पर राग को अपनाने लगा है। त्याग के पर्व को हमने भोग का पर्व बना दिया है। लोगों की देखादेखी करते हुए दीपावली का पर्व विकृत हो गया है। जिस त्याग एवं साधना के बल पर महापुरुषों ने निर्वाण पद प्राप्त किया था, उस त्याग और साधना को भूलकर हम केवल बाहरी क्रिया-कलापों पर अटककर रह गए हैं। इसे हम अपनी बुद्धि का दीवाला ही तो कहेंगे।
सारे विश्व को प्रकाश प्रदान करने वाला भारत आज कितने अंधकार में जी रहा है? क्या कभी हम एक ही क्षण के लिए भी इसका चिंतन करते हैं? कौन पाल रहा है, भारत के अधिकार को? भारत पर अभी कोई विदेशी शासन नहीं है। भारतीय ही भारत पर शासन कर रहे हैं।
हम ही देश के नैतिक पतन के जिम्मेदार हैं। हम ही भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देते हैं, उसे पालते हैं। ईमानदारी और नैतिकता को हमने ही ध्वस्त कर दिया है। अपने स्वार्थ के पीछे हम अपनी अस्मिता तक से खिलवाड़ करने को तत्पर रहते हैं। राष्ट्रीयता का नारा हमारा वाणी विलास-मात्र ही रह गया है। हम राष्ट्र के स्तर पर स्वतंत्र होकर अंधकार के घने घेरे में कैसे चले गए हैं?
क्या यह अंधकार किसी दीपक से मिटाया जा सकता है? क्या सांसारिक रूप से दीपावली को धूमधाम से मनाकर हम अपने राष्ट्र की अंतरात्मा को प्रसन्न कर सकते हैं? तुच्छ स्वार्थों के पीछे अपनी चेतना (आत्मा) के समस्त प्रकाश को भुलाकर के घने अंधकार में भटकने वाले हम क्या कभी दीपावली का सच्चा अर्थ समझ सकेंगे? क्या हम कभी स्वयं से पूछते हैं कि हम कहां हैं? प्रकाश में या अंधकार में? यदि अंधकार में हैं तो क्यों? हमारी 'तमसो मा ज्योतिर्गमय:' की प्रार्थना असफल क्यों हो रही है? सबसे बड़ा कारण है- हम अपनी आत्मज्योति को बुझा करके जीते हैं। हम उसे प्रज्वलित करना ही भूल गए।
दीपावली हमें प्रेरणा दे रही है कि हम अपनी आत्मज्योति को प्रज्वलित करें। अपना दीपक स्वयं जलाएं। अपनी आत्मा को ही दीपक बनाकर उसे जगमगाएं। उसके लिए चाहिए- सिर्फ आत्मविश्वास।
हम इस विश्व गुरु भारत के नागरिक हैं किंतु संकीर्णता के गुलाम बनकर रह गए। हम अच्छे वक्ता अवश्य हैं, किंतु आचरण में बहुत पिछड़ गए हैं। दुर्व्यसनों के जंगल में भटक गए हैं। हम पश्चिम के लज्जाविहीन संस्कारों के अनुकरण में लग गए हैं। आज भारतीय जन-जीवन की अधिकांश ऊर्जा विकृतियों की गटर में बही जा रही है।
लोक-जीवन के इस पतन के हम ही उत्तरदायी हैं। हम कभी अपना दोष स्वीकार नहीं करते। हम कभी समाज को, तो कभी सरकार को उत्तरदायी बताने लगते हैं किंतु समाज और राष्ट्र का निर्माण तो स्वयं से है। हम कर्तव्यपरायण और नैतिक बनें, तभी तो स्वस्थ समाज या स्वच्छ सरकार का निर्माण होगा। सुधार तो स्वयं में लाना है।
दीपावली से प्रेरणा ग्रहण करने की आवश्यकता है। 'परंपरागत भोग की दीपावली मनाने के प्रति घृणा उत्पन्न करें और सावधान होकर आध्यात्मिक दीपावली मनाने के प्रति तैयार होएं।'
हम भोगों की आसक्ति को त्यागने तथा त्याग की ओर झुकने का प्रयास करें तथा राम, कृष्ण, बुद्ध, गांधी एवं महावीर द्वारा बताए गए अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के सिद्धांतों का परिपालन करने में अपने को तैयार रखें- यही अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का उपाय है। यह कार्य कठिन तो अवश्य है किंतु असंभव नहीं हैं। पुरुषार्थ करें, सफलता अवश्य मिलेगी।