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Bhagvan Parshwanath Jayanti : 9 जनवरी को भगवान पार्श्वनाथ की जयंती

हमें फॉलो करें Bhagvan Parshwanath Jayanti : 9 जनवरी को भगवान पार्श्वनाथ की जयंती
Lord Parshwanath
 

जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जयंती पर विशेष 
 
भगवान पार्श्वनाथ का अर्घ्य
 
जल आदि साजि सब द्रव्य लिया।
कन थार धार नुत नृत्य किया।
सुख दाय पाय यह सेवल हौं।
प्रभु पार्श्व सार्श्वगुणा बेवत 
 
जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी में हुआ था। पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने।
 
दिगंबर धर्म के मतावलंबियों के अनुसार पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, जबकि श्वेतांबर मतावलंबियों का एक धड़ा उनकी बात का समर्थन करता है, लेकिन दूसरा धड़ा उन्हें विवाहित मानता है। इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि, माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते हैं।
 
बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाट-बाट में व्यतीत हुआ। जब उनकी उम्र 16 वर्ष की हुई और वे एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले- 'ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।' उस तपस्वी का नाम महीपाल था। अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा- किसे मार रहा हूं मैं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं।
 
पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा- तू क्या त्रिकालदर्शी है लड़के.... और पुन: वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा।
 
तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्‍मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा।
 
पार्श्वनाथ को इस घटना से संसार के जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। कुछ वर्ष और बीत गए। जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके जन्मदिवस पर अनेक राजाओं ने उपहार भेजें। अयोध्या का दूत उपहार देने लगा तो पार्श्वनाथ ने उससे अयोध्या के वैभव के बारे में पूछा।
 
उसने कहा- 'जिस नगरी में ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे पांच तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो उसकी महिमा के क्या कहने। वहां तो पग-पग पर पुण्य बिखरा पड़ा है।
 
इतना सुनते ही भगवान पार्श्वनाथ को एकाएक अपने पूर्व नौ जन्मों का स्मरण हो आया और वे सोचने लगे, इतने जन्म उन्होंने यूं ही गंवा दिए। अब उन्हें आत्मकल्याण का उपाय करना चाहिए और उन्होंने उसी समय मुनि-दीक्षा ले ली और विभिन्न वनों में तप करने लगे। 
 
चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गए। वे सौ वर्ष तक जीवित रहे। तीर्थंकर बनने के बाद का उनका जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में गुजरा और फिर श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ।

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