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(शनि प्रदोष)
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आध्यात्मिक साधना के संत आचार्यश्री विद्यासागरजी...

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- डॉ. जैनेन्द्र जैन 


 
विक्रम संवत्‌ 2003 सन्‌ 1946 के दिन गुरुवार आश्विन शुक्ल पूर्णिमा की चांदनी रात में  कर्नाटक जिला बेलगाम के ग्राम सदलगा के निकट चिक्कोड़ी ग्राम में धन-धान्य से संपन्न  श्रावक श्रेष्ठी श्री मलप्पाजी अष्टगे (पिता) और धर्मनिष्ठ श्राविका श्रीमतीजी अष्टगे (माता) के घर एक बालक का जन्म हुआ। जिसका नाम विद्याधर रखा गया। 
 
वही विद्याधर आज संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के नाम से प्रख्यात है एवं  धर्म और अध्यात्म के प्रभावी प्रवक्ता और श्रमण-संस्कृति की उस परमोज्ज्वल धारा के अप्रतिम  प्रतीक हैं, जो सिन्धु घाटी की प्राचीनतम सभ्यता के रूप में आज भी अक्षुण्ण होकर समस्त  विश्व को अपनी गौरव गाथा सुना रहे हैं। 
 
आचार्यश्री कन्नड़ मातृभाषी हैं और कन्नड़ एवं मराठी भाषाओं में आपने हाईस्कूल तक शिक्षा  ग्रहण की, लेकिन आज आप बहुभाषाविद् हैं और कन्नड़ एवं मराठी के अलावा हिन्दी, अंग्रेजी,  संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और बंगला जैसी अनेक भाषाओं के भी ज्ञाता हैं। 
 
विद्याधर बाल्यकाल से ही साधना को साधने और मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण करने का  अभ्यास करते थे, लेकिन युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते ही उनके मन में वैराग्य का  बीज अंकुरित हो गया। 
 
मात्र 20 वर्ष की अल्पायु में गृह त्यागकर आप जयपुर (राजस्थान) पहुंच गए और वहां विराजित  आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर उन्हीं के संघ में रहते हुए धर्म,  स्वाध्याय और साधना करते रहे।

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