जम्मू। आप इस खबर को पढ़ कर चौंक सकते हैं कि आतंकवाद के 33 सालों के दौर में पहली बार कश्मीर में उन शिकारों की कमी हो गई है जिनमें बैठ लोग चांदनी रात को निहारने के साथ ही डल झील के पानी के साथ अठखेलियां करते रहे हैं।
यह अलग बात है कि कश्मीर की ओर मुढ़ते पर्यटकों के कदमों को अपनी ओर खिंचने की खातिर हिमाचल प्रदेश ने भी अब अपने यहां कई जलाशयों में कश्मीर की तर्ज पर शिकारे चलाने की योजनाओं को अमली जामा पहनाना आरंभ किया है। कश्मीर आने वाले पर्यटकों के लिए परेशानी यह है कि इन शिकारों में बैठ डल झील, नगीन झील, मानसबल और वुल्लर के पानी से अठखेलियां करने की खातिर अब घंटों इंतजार करना पड़ रहा है।
पर्यटकों की बढ़ती भीड़ और शिकारों में बैठने की होड़ ने शिकारे वालों के चेहरों पर ही नहीं बल्कि अब शिकारे बनाने वालों के लिए भी खुशी का मौका इसलिए प्रदान किया है क्योंकि उन्हें नए शिकारे बनाने के आर्डर कई सालों के बाद पहली बार मिले हैं।
यही कारण था कि डल झील के बाबा मुहल्ला का रहने वाला गुलाम नबी कहता था कि 35 सालों से वह इस बिजनेस में है और पहली बार है कि शिकारा बनाने की इतनी मांग है। उसकी तीन पीढ़ियां इसी काम में हैं और उसके बकौल, आतंकवाद के 33 सालों के अरसे में उन्हें प्रतिवर्ष 8 या 10 से अधिक शिकारे बनाने का आर्डर कभी नहीं मिला। और अबकी बार उसे 10 शिकारों के निर्माण का आर्डर सिर्फ 15 दिनों में मिला है।
गुलाम नबी कश्मीर का प्रसिद्ध शिकारा निर्माता कहा जाता है जिसके शिकारे जम्मू संभाग के तवी नदी, मानसर झील के साथ साथ हैदराबाद, राजस्थान, बंगाल के अतिरिक्त देश के कई हिस्सों में देखे जा सकते हैं। पर उसे अफसोस इसी बात का था कि सरकार ने कभी उनकी सुध नहीं ली।
दरअसल एक शिकारा बनाने में 15 से 20 दिनों का समय लगता है और देवदार की लकड़ी पर अढ़ाई से 3 लाख का खर्चा आता है। करीब 35 वर्ग फीट देवदार की लकड़ी उन्हें एक शिकारा बनाने की खातिर बाजार से खरीदनी पड़ती है पर उन्हें कभी इस पर कोई समर्थन मूल्य या छूट नहीं मिली। पर इतना जरूर था कि इसकी हमेशा किल्लत जरूर महसूस हुई है।