- ऋचा दीपक कर्पे
बचपन की यादें
जैसे जादू का पिटारा
सब कुछ जादुई अनोखा !!
पिटारे से निकलता एक कबूतर
कुछ रंगबिरंगे खुशबूदार फूल
एक लंबा-सा रूमाल..
उस रूमाल का
दूसरा सिरा ढूंढते हुए
मैं पहुंच जाती हूं
अपने गांव !
जहां आसमां की चांदनी
और आंगन की चांदनी
एक हो जाया करती है..!!
मेहंदी की बागड़
लीपा हुआ आंगन
मिट्टी की सोंधी खुशबू आती है !!
बदल जाती है
आंगन की खटिया
नानाजी के कथालोक में
कभी विक्रम बेताल
तो कभी सिंहासन बत्तीसी
की परियां सामने आ जाती हैं !!
जब नींद न आती और
मैं चांद की ओर देखती
टकटकी बांधे
एक तारा छन-से टूट जाता है
मुझे अचंभित देख
रात हौले से मुस्काती है !!
तपती धूप, सूरज की गर्मी
कहर बरसाती जब
मेरे पीछे दौड़ लगाती है
मैं छिप जाती हूं
नीम की घनी छांह में
वह मुझे छू भी न पाती है !!
उसी पेड़ के नीचे फिर
मेरी सहेलियां आ जाती हैं,
कंचे-पांचे-चींये-निंबौली
टुकड़े कांच की चुड़ियों के
बेमोल से अनमोल खिलौने
घड़ियां बीत जातीं हैं !!
एक टिन के डिब्बे में से
निकलती है मेरी सारी रसोई
छोटी-सी पतीली, कड़ाही
कुछ प्याले, डिब्बे, थाली
झूठ-मूठ का खाना खाकर भी
नानाजी का पेट भर जाता है !!
बरामदे में लगा झूला
मुझे ऊपर तक ले जाता है,
मैं आसमां छू लेती हूं
एक अरसा बीत जाता है
झूला चलता रहता है
और समय रुक जाता है !!
और फिर...
छा जाते हैं बादल
आसमान से मेह बरसता है
सात रंगों का इंद्रधनुष
मेरी यादों में बस जाता है
मैं लौट आती हूं
एक पोटली हंसी
और डिबिया में बंद
थोडी़ मुस्कुराहट लेकर,
और....
जादू का खेल खत्म हो जाता है.. !!