घर-घर बंदनवार सजे हैं,
दिखती छटा निराली।
जग-मग करते दीप कह रहे,
जग में आज दिवाली।
सजी रंग में इंद्र धनुष के,
दीवारों की काया।
दीप जले तो लगा, धरा पर,
स्वर्ग उतर कर आया।
फुलझड़ियों संग लगी नाचने,
दिवाली मतवाली।
हर्षित होकर दीप-दीप ने,
फैलाया उजियारा।
अंधकार की चली एक न,
सभी मोर्चे हारा।
लगी थिरकने घर-आंगन में,
खुश होकर खुशहाली।
दीपक सजा-सजा दिवाली,
हम हर साल मनाते।
लेकिन अपने मन के तम को,
हटा नहीं हम पाते।
क्या मन के भीतर ही तम ने,
पक्की जगह बना ली?
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