- ऋचा दीपक कर्पे
कक्षा सातवीं के
उस अपरिपक्व मन को
पढ़ाया गया आज इतिहास।
यह बताया गया...
भारत था 'सोने की चिड़िया'।
और कैसे बादशाहों के भेस में
लुटेरे आए
वह तैमूर, सिकंदर, लोधी
वह गौरी वह गजनी
बस उन्हीं की गाथाएं।
उन्होंने तोड़े हमारे मंदिर
शिवलिंग ध्वस्त कर दिए
बहा दी खून की होली
लूट लिया खजाना
और अपने मुल्क चल दिए।
मुझे सुना रहे थे वे
मुगलों, अफगानों के किस्से
उनकी फैलाई तबाही की कहानी
मैं सुन रही थी
वह मार-काट, वह विध्वंस
उन मासूमों की जबानी।
सुनती रही मैं ध्यान से
आखिर मैंने पूछ ही लिया
कि काशी विश्वनाथ से लेकर
ॐकारेश्वर, महेश्वर, सोमनाथ
वे भव्य सुंदर मंदिर
वे दूर तक फैले घाट...।
टूटा हुआ वह मंदिर
फिर बनाया किसने?
कौन थीं वह शिवभक्त,
वह निर्मात्री, वह साम्राज्ञी
क्या कभी पूछा तुमने?
जवाब, जैसा कि तय था,
वे नहीं जानते थे...
थोड़े हिचकिचाए
वास्तुकला के बेजोड़ नमूने
बनाने वाले
सातवीं कक्षा के इतिहास में
स्वयं के लिए एक स्थान न बना पाए।
क्या कभी बदलेगा पाठ्यपुस्तकों
का यह काला इतिहास?
क्या कभी हम
आने वाली पीढ़ियों को
देवी अहिल्या, दुर्गावती,
राणा सांगा, वीर शिवा का
गौरव सुना पाएंगे?
या फिर...
ये लूट-खसोट करने वाले
विदेशी अत्याचारी
इतिहास की किताबों में सजकर
हमेशा के लिए अमर हो जाएंगे?
और सृजनकर्ता, निर्माता
मां भारती के रक्षक
हमारे धर्म, हमारी संस्कृति के उपासक
देशभक्त, हमारे आदर्श
गुमनामी में ही कहीं खो जाएंगे?