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बालगीत : ई-मेल से धूप
हमें बताओ कैसे भागे,
आप रात की जेल से।
सूरज चाचा ये तो बोलो,
आए हो किस रेल से।
हमें पता है रात आपकी,
बीती आपाधापी में।
दबे पड़े थे कहीं बीच में,
अंधियारे की कॉपी में।
अश्व आपके कैसे छूटे?
तम की कसी नकेल से।
पूरब की खिड़की का पर्दा,
रोज खोलकर आ जाते।
किंतु शाम की रेल पकड़कर,
बिना टिकट वापस जाते।
लगता है थक जाते दिन की,
धमा-चौकड़ी खेल से।
रोज-रोज की भागादौड़ी,
तुम्हें ऊबा देती चाचा।
शायद इसी चिड़चिड़ेपन से,
गरमी में खोते आपा।
कड़क धूप हम तक भिजवाते,
गुस्से में ई-मेल से।
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