बहुत पुरानी बात है। गुप्त काल में मगध में जन्मे चाणक्य बड़े मातृभक्त और विद्यापरायण थे। एक दिन उनकी माता रो रही थी।
माता से कारण पूछा तो उन्होंने कहा, 'तेरे अगले दांत राजा होने के लक्षण हैं। तू बड़ा होने पर राजा बनेगा और मुझे भूल जाएगा।'
चाणक्य हंसते हुए बाहर गए और दोनों दांत तोड़कर ले आए और बोले, 'अब ये लक्षण मिट गए, अब मैं तेरी सेवा में ही रहूंगा। तू आज्ञा देगी तो आगे चलकर राष्ट्र देवता की साधना करूंगा।'
बड़े होने पर चाणक्य पैदल चलकर तक्षशिला गए और वहां चौबीस वर्ष पढ़े। अध्यापकों की सेवा करने में वे इतना रस लेते थे कि सब उनके प्राणप्रिय बन गए। सभी ने उन्हें मन से पढ़ाया और अनेक विषयों में पारंगत बना दिया।
लौटकर मगध आए तो उन्होंने एक पाठशाला चलाई और अनेक विद्यार्थी अपने सहयोगी बनाए। उन दिनों मगध का राजा नंद के अत्याचारों से बहुत परेशान था और यूनानी भी देश पर बार-बार आक्रमण करता था। इन हालात के चलते समाज में भय और आतंक का माहौल व्याप्त हो रहा था। जनता इस आतंक और अत्याचार से मुक्ति चाहती थी।
ऐसे में चाणक्य ने एक प्रतिभावान युवक चंद्रगुप्त को आगे किया और उनका साथ लेकर दक्षिण तथा पंजाब का दौरा किया। सहायता के लिए सेना इकट्ठी की और सभी आक्रमणकारियों को सदा के लिए विमुख कर दिया। लौटे तो नंद से भी गद्दी छीन ली।
चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चक्रवर्ती राजा की तरह अभिषेक किया और स्वयं धर्म प्रचार तथा विद्या विस्तार में लग गए। आजीवन वे अधर्म अनीति से मोर्चा लेते रहे। निस्संदेह उन्होंने यह कार्य अपनी महाबुद्धि के दम पर ही किया।