यह कथा हमने बचपन से सुनी है....आइए रस लेते हैं इस प्रेरक कथा का.... पहले एक पहेली है....जरा ध्यान दें .....
चेला भिक्षा लेके आना गुरु ने मंगाई,
पहली भिक्षा जल की लाना-- कुआँ बावड़ी छोड़ के लाना,
नदी नाले के पास न जाना-तुंबी भरके लाना।
दूजी भिक्षा अन्न की लाना- गाँव नगर के पास न जाना,
खेत खलिहान को छोड़के लाना, लाना तुंबी भरके,
तेरे गुरु ने मंगाई ।
तीजी भिक्षा लकड़ी लाना-- डांग-पहाड़ के पास न जाना,
गीली सूखी छोड़ के लाना-लाना गठरी बनाके।
तेरे गुरु ने मंगाई !
चौथी भिक्षा मांस की लाना-- जीव जंतु के पास न जाना,
जिंदा मुर्दा छोड़ के लाना--लाना हंडी भरके
तेरे गुरु ने मंगाई.....चेला तुंबी भरके लाना....
इन पंक्तियों में गुरु चेले की परीक्षा ले रहे हैं। चार चीजें मंगा रहे हैं: जल, अन्न,लकड़ी, मांस।
लेकिन शर्तें भी लगा दी हैं। अब देखना ये है कि चेला लेकर आता है या नहीं, इसी परीक्षा पर उसकी परख होनी है।
जल लाना है, लेकिन बारिश का भी न हो, कुएं बावड़ी तालाब का भी न हो। सीधा मतलब किसी स्त्रोत का जल न हो।
अन्न भी ऐसा ही लाना है किसी खेत खलिहान से न लाना, गाँव नगर आदि से भी भिक्षा नहीं मांगनी।
लकड़ी भी मंगा रहे हैं तो जंगल पहाड़ को छुड़वा रहे हैं, गीली भी न हो सूखी भी न हो, और बिखरी हुई भी न हो, यानी बन्धी बंधाई कसी कसाई हो!
मांस भी मंगा रहे हैं तो जीव जंतु से दूरी बनाने को कह रहे हैं और जिंदा मुर्दा का भी नहीं होना चाहिए।
इस अनोखी पहेली का जवाब है नारियल!
वास्तव में पहले बर्तन नहीं रखते थे सन्त सन्यासी, लौकी होती है एक गोल तरह की, तुम्बा कहते हैं उसको। वही पात्र रखते थे पहले तो उसको भरके लाने की कह रहे हैं।
अब नारियल को देखो, जल भी है इसमें और कुएं बावड़ी नदी झरने का भी नहीं है, अन्न भी है इसमें...जो खाया जाए वह अन्न है,लेकिन खेत खलिहान गाँव शहर का भी नहीं है, तीसरी चीज लकड़ी भी है ऊपर खोल पर, अंदर गीला भी है, बाहर सूखा भी है और एकदम बंधा हुआ भी है कसकर।
अंतिम में कहते हैं मांस भी लाना-यानी कोई गूदेदार फल।
इसका अर्थ है कुमारी यानी घृतकुमारी यानी ग्वारपाठा यानी एलोवेरा का पल्प... हर गूदेदार फल को मांस कहा गया है। गुरु भी यही मंगा रहे हैं कोई गूदेदार फल।
चेला नारियल लेकर आता है और गुरु का प्रसाद पाता है आशीर्वाद रूप में। तो देखा आपने कितना रहस्य छुपा हुआ है पुरानी कहावतों एवं लोकगीतों में।
आइए फिर से नजर डालते हैं....
चेला तुंबी भरके लाना!
चेला भिक्षा लेके आना गुरु ने मंगाई,
पहली भिक्षा जल की लाना-- कुआँ बावड़ी छोड़ के लाना,
नदी नाले के पास न जाना-तुंबी भरके लाना।
दूजी भिक्षा अन्न की लाना- गाँव नगर के पास न जाना,
खेत खलिहान को छोड़के लाना, लाना तुंबी भरके,
तेरे गुरु ने मंगाई ।
तीजी भिक्षा लकड़ी लाना-- डांग-पहाड़ के पास न जाना,
गीली सूखी छोड़ के लाना-लाना गठरी बनाके।
तेरे गुरु ने मंगाई !
चौथी भिक्षा मांस की लाना-- जीव जंतु के पास न जाना,
जिंदा मुर्दा छोड़ के लाना--लाना हंडी भरके
तेरे गुरु ने मंगाई.....चेला तुंबी भरके लाना....