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रोमांचक कहानी : मोबाइल से छुट्टी

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-  डॉ. सत्यनारायण 'सत्य'
 
मां, मां, जरा अपना मोबाइल तो देना मुझे, एक मिनट कोई गेम खेल लूं, फिर वापस देता हूं आपको। जैसे ही गौरव विद्यालय से घर लौटा, अपना बस्ता सोफे पर पटका और बिना हाथ-मुंह धोए वह अपनी मां का मोबाइल लेकर उसमें गेम खेलने बैठ गया।
 
गौरव आठवीं कक्षा का एक होशियार और होनहार विद्यार्थी था। अपने मां-पिता का इकलौता बालक, इसलिए घर में भी सभी का लाड़ला और चहेता। यूं तो वह पढ़ने में भी होशियार था इसलिए मां भी सोच रही थी कि चलो ठीक है, अभी-अभी थका-हारा विद्यालय से घर लौटा है इसलिए कुछ देर जी बहल जाएगा। वह मोबाइल देकर अपने रसोई के कामों में व्यस्त हो गई।
 
इधर गौरव मोबाइल पर गेम खेलते-खेलते इतना मगन हो गया कि कब शाम के 4 बज गए, कुछ पता ही नहीं चला। 6.30 बजे के आसपास जब पिताजी घर लौटे तो गौरव को विद्यालय की गणवेश में सोफे पर टांगे फैलाए मोबाइल गेम देखते हुए पाया तो वे आग-बबूला हो गए। यह क्या तमाशा बना रखा है? 4 बजे से आए हुए हैं साहब और अभी तक विद्यालय की गणवेश भी नहीं खोल पाए। चलो उठो, और बंद करो, यह मोबाइल देखना। जब पिताजी ने गौरव को डांट पिलाते हुए कहा तो मां भी रसोई से दौड़ी-दौड़ी आई और बोली, क्या करूं, एक मिनट के लिए मोबाइल मांगा और यह हालत है तुम्हारी।
 
तब गौरव माफी मांगते हुए झटपट हाथ-मुंह धोने निकल गया। रात के खाने में जब पिताजी, मां व गौरव साथ बैठे तो फिर मोबाइल का जिक्र चला। गौरव के पिताजी समझाने लगे, गौरव मोबाइल का शौक कम से कम रखा करो, अभी तुम छोटे हो और पढ़ने लिखने में ध्यान दिया करो।
 
जी पिताजी, कहकर गौरव ने पिताजी की बात की हां में हां मिला दी। अगले दिन से विद्यालय में वार्षिक परीक्षाएं शुरू हो रही थीं। गौरव और उसके सभी दोस्त परीक्षाओें की तैयारी में जुट गए। उन्हें पता था कि परीक्षाएं सही ढंग से संपन्न हो गईं और परीक्षा परिणाम अनुकूल हो गया तो सारी मेहनत रंग ले आएगी। फिर भी कभी-कभी उसका मोबाइल-प्रेम भी जाग जाता और पिताजी से आंख चुराकर वह मोबाइल पर गेम खेलने लग ही जाता।
 
विद्यालय का वार्षिकोत्सव आ रहा था। संस्था प्रधानजी ने सभी बच्चों के लिए अलग-अलग प्रतियोगिताएं और कार्यक्रम निर्धारित कर दिए थे। एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन भी रखने का निर्णय हुआ। जिसका विषय था- मोबाइल फोन और आज का बालक एक-दूजे के प्रेरक-पूरक।'
 
गौरव और उसके साथियों को यह थीम खूब पसंद आई। उसने मोबाइल फोन के उपयोग के बिना आज नई पीढ़ी को बिलकुल ही अनजान व अजनबी मान रखा था इसलिए उसने विद्यालय के वार्षिक उत्सव में इस प्रतियोगिता के पक्ष में बोलने का निर्णय किया। शाम के समय में एक बार अपने पिताजी से उसने विचार-विमर्श किया, पिताजी क्या आज के बालक या नई पीढ़ी की कल्पना बिना मोबाइल फोन के की जा सकती है, मेरे विचार से बिलकुल भी नहीं। आपका क्या विचार है?
 
बिलकुल बेटे, तुम भी मोबाइल फोन के खूब शौकीन हो इसलिए तुमको भी इसके बिना सब कुछ असंभव लग रहा होगा। पर बेटे, मेरे विचार से बालकों के लिए तो मोबाइल एकदम नाकारा, बेकार और अनुपयोगी उपकरण है, मेरे विचार तुम्हारे विचारों से एकदम उल्टे और अलग हैं।
 
हें, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। मुझे समझ नहीं आया, ऐसा आप कैसे कह सकते हैं। मुझे तो कोई गेम खेलना हो तो मोबाइल फोन, कोई जानकारी जुटानी हो तो फोन और कोई बाचतीत करनी हो तो यह मेरे खूब काम आ जाता है इसलिए मैं तो इसे नवीन पीढ़ी के सभी बाल गोपालों के लिए अनिवार्यता मानता हूं। गौरव ने जब अपनी बात रखी तो पिताजी को लगा कि इसके मन में बैठी हुई बातों को पुन: समझना ही पड़ेगा, सुधारना ही पड़ेगा।

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धीमे-धीमे वार्षिक उत्सव की दिनांक भी नजदीक आने लगी और गौरव अपने इस कार्यक्रम में बोलने के लिए सामग्री जुटाने लगा। पिताजी ने कहा- बेटे, गेम खेलने से शारीरिक और मानसिक विकास दोनों होते हैं। जब हम कबड्डी, खो-खो, वॉलीबॉल, फुटबॉल जैसे खेल खेलते हैं तो वहां भागदौड़, शरीर की मेहनत और बुद्धि कौशल सभी का विकास होता है। शरीर से पसीना बहता है, हाथ-पैर और मांसपेशियां मजबूत होती है और श्वसन, पाचन, परिसंचरण तंत्र सभी का समग्र विकास होता है। इसके बदले जब तुम मोबाइल लेकर उस पर गेम खेलने बैठते हो तो अकेले-अकेले आंखें गड़ाए स्क्रीन पर उलझे रहते हो, इससे शरीर के कौन से अंग का विकास होता है, उल्टा मैंने तो कई-कई बच्चों को भी देखा है, जो अधिक मोबाइल फोन चलाने से अपनी आंखें खराब कर चुके हैं और बचपन में ही अपनी आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ाए रहते हैं।
 
बात तो आप ठीक कह रहे हैं, पर पिताजी हमारे विज्ञान वाले आचार्यजी कहते हैं कि मोबाइल फोन से हम बहुत सारी जानकारीपरक बातें भी सीख लेते हैं। विज्ञान व कई-कई विषयों की जानकारी, यू- ट्यूब व गूगल गुरु के माध्यम से मोबाइल फोन द्वारा बड़ी आसानी से समझी जा सकती है, क्या यह ठीक नहीं है, गौरव ने अपनी शंका प्रकट करते हुए कहा।
 
बेटे, विकल्प कभी श्रेष्ठ नहीं हो सकता। पाठ्यपुस्तक या गुरु का विकल्प कोई भी, कभी भी नहीं हो सकता है। कठिन व जटिल समस्याएं भले ही हम मोबाइल फोन से त्वरित हल कर सकते हैं, पर विद्यालयों, गुरुओं और पाठ्यपुस्तकों का अपना अलग ही महत्व होता है। इसका कभी कोई विकल्प नहीं बन सकता है। कभी-कभी मुसीबत में या कोई जटिलता सुलझाने के लिए भले ही ऐसी तकनीकों का प्रयोग कर लिया जाए, पर संवेदनशीलता, तार्किकता, सामाजिकता और बहुमुखी गुणों का उपयोग या समझ मोबाइल, टीवी या कम्प्यूटर नहीं ला सकते हैं। डाटा या शाबासी गुरु व माता‍-पिता ही दे सकते हैं, मोबाइल फोन नहीं। इसलिए मेरे विचार से मोबाइल फोन का प्रयोग बालकों को पूर्णतया रोका जाना चाहिए या फिर सीमित उपयोग हो। अब तो बेटे, कई-कई ऑफिस में हम बड़े लोगों को भी मोबाइल फोन का प्रतिबंधित उपयोग करवाया जाता है।
 
उसको भी लग रहा था, सच में मोबाइल फोन के आते ही उसकी भी जिंदगी एकदम से बदलती गई। पहले गणित के बड़े-बड़े प्रश्नों को वह मौखिक ही मिनटों में हल दिया करता था, लेकिन जबसे उसने मोबाइल में केल्क्युलेटर चलाकर प्रश्न हल करने शुरू किए हैं, उसका समय तो बचता जा रहा था, पर गणितीय पकड़ कम होती जा रही थी। यही नहीं, पहले कैसे हम दोस्त, विद्यालय से आते ही गली के पास ही एक खाली बाड़े में खेलने चले जाते थे जिससे सब मिल-जुलकर आनंद करते। अब पागलों की तरह स्क्रीन पर आंखें फाड़े, नजरें गड़ाए गेम खेलते रहते हैं। सभी दोस्त अपने-अपने कमरों में दुबके हुए, न मिलना, ना ही एक-दूजे की कोई बात, सच में इस मोबाइल ने हमारी दोस्ती को ही अलग रूप में लाकर रख दिया है।
 
तभी वह बोल उठा, बस-बस पिताजी, बस। अब मेरी समझ में आ गया है कि मोबाइल को जितना उपयोगी हम समझ रहे हैं, सच में उतना वह है नहीं, हम दोस्तों का तो सारा मिलना-जुलना ही इस फोन के डिब्बे ने बिगाड़कर रख दिया है। जब मैं तो अपने वार्षिक उत्सव में 'मोबाइल फोन, बालकों के लिए पूरक' विषय पर विपक्ष में बोलता हुआ साबित कर दूंगा कि इसका अनुचित, अत्यधिक प्रयोग बौद्धिकता तो खत्म कर ही रहा है, इससे हमारी आंखें भी खराब हो रही है, खेलने की क्षमता खत्म होने से हम शारीरिक व मानसिक रूप से भी कमजोर हो रहे हैं। बस, आज से फोन पर अनावश्यक टाइम पास बंद और सच में पढ़ना-लिखना व खेलना-कूदना चालू।
 
शाबास बेटे, मुझे तुमसे यही उम्मीद थी। विज्ञान के आधुनिक युग के कारण मोबाइल फोन को बिलकुल ही नकारा नहीं जा सकता है। हो सकता है अभिभावकों, बड़ों व गुरुजनों के लिए यह उपयोगी व अनिवार्य हो, पर बच्चों को इस यंत्र से बचाने में ही सार है। पिताजी ने भी इनकी हां में हां मिलाई। वार्षिक उत्सव में उसके विचारों से सब खूब प्रभावित हुए, तालियां तो बजी ही, पुरस्कार भी खूब आए।
 
अब गौरव व उसके दोस्त गेम तो खूब खेलते थे, पर मोबाइल पर नहीं, खेल के मैदान पर। सभी इन बच्चों के बदले-बदले व्यवहार पर खुश थे।
 
साभार- देवपुत्र
 

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