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10 अक्टूबर : मा‍नसिक दिव्यांग दिवस

हमें फॉलो करें 10 अक्टूबर : मा‍नसिक दिव्यांग दिवस
, शनिवार, 8 अक्टूबर 2016 (16:43 IST)
- डॉ. सरोजिनी कुलश्रेष्ठ


 
कनिष्क मानसिक रूप से अविकसित था। छोटा भाई कुंदन सचमुच कुंदन था अर्थात शुद्ध सोना। दोनों भाई एक ही मां की कोख से पैदा हुए थे, पर दोनों दो तरह के थे। कनिष्क मोटा-ताजा था, कुंदन दुबला-पतला और छरहरे बदन का। कनिष्क सांवला था, कुंदन गोरा।

कनिष्क की आंखें छोटी थीं और कुंदन की बड़ी-बड़ी। कनिष्क के होंठों पर कभी हंसी नहीं आती थी, जबकि कुंदन के होंठों पर हमेशा हंसी खेलती रहती थी। वह खेलों में भी रुचि लेता था। कनिष्क तो खेल के मैदान में जाता तो धर-पटक करने लगता। उसको कभी-कभी ऐसा जुनून सवार होता कि किसी भी बच्चे पर पत्थर फेंक देता, चलते-चलते ठोकर लगा देता या उसे उठाकर जमीन पर पटक देता। आए दिन उसकी शिकायतें आती रहती थीं।
 
एक दिन कुंदन ट्रांजिस्टर बजा रहा था। उसकी मां ने थाली परोसकर रख दी थी तो वह गीत सुनते-सुनते खाना खा रहा था। तभी न जाने किधर से कनिष्क वहां आ गया। कुंदन उठकर ट्रांजिस्टर को हटाना चाहता था, परंतु एक ही पल में कनिष्क ने उसको कसकर पकड़ा, घुमाया और आंगन में जोर से फेंक दिया। ट्रांजिस्टर टूट गया। उसके पिताजी ने कनिष्क को दो थप्पड़ लगा दिए। तीसरा थप्पड़ मारने वाले थे, पर कुंदन ने हाथ पकड़ लिया- नहीं पिताजी, भाई साहब कुछ नहीं समझते, वे कर जाते हैं। इतनी समझ ही नहीं है। 
 
पिताजी का उठा हुआ हाथ रुक गया। कनिष्क के प्रति उनका गुस्सा तो कम नहीं हुआ, पर कुंदन पर उन्हें बहुत प्यार आया।
 
कनिष्क में एक और बुरी आदत थी। वह बहुत खाता था, हर समय खाता था। घर में कोई भी चीज रखी हुई देख नहीं सकता था। बिस्किट का पूरा पैकेट एक ही बार में खा जाता था। फ्रिज में से सेब, अमरूद, आम, पपीता सभी फल खाकर जब तक खत्म नहीं कर देता, तब तक चैन नहीं लेता था। काटने का सब्र भी नहीं था। कुंदन अपना काम छोड़कर उसे खरबूजा आदि फल काटकर देता। फिर भी एक फांक भी अपने मुंह में नहीं रखता था।

कुंदन को देखकर ऐसा लगता था, जैसे कोई छोटी चिड़िया बड़ी चिड़िया के मुंह में दाना डाल रही हो। कनिष्क छिलके इधर-उधर फेंक देता तो कुंदन उन्हें उठाकर कूड़ेदान में फेंक आता। वह उसके कपड़े ठीक कर दिया करता था। दोनों की मां एक कार दुर्घटना में घायल हो गई थी। उनके पिताजी ने बचाने की बहुत कोशिश की। अस्पताल में दाखिल कराया, बहुत सेवा की, फिर भी काल से वे अपनी पत्नी को नहीं बचा सके।

कनिष्क तब 5 और कुंदन 3 वर्ष का था। उनके पिताजी को अपनी पत्नी के चले जाने का बहुत दु:ख था। वे मन ही मन कहते- 'काश! उस कार दुर्घटना में मैं ही मर जाता।' मां तो हर दशा में बच्चों को प्यार से पाल लेती है, पर बाप नहीं पाल पाता। 
 
दो वर्ष इसी प्रकार व्यतीत हो गए। बच्चों की दादी थीं, तब तक कुछ विशेष अभाव नहीं खला, परंतु शायद बहू के शोक में वे भी परलोकगामी हो गईं। तब हर बात की परेशानी होने लगी। आखिर एक दिन कनिष्क और कुंदन की विमाता का घर में पदार्पण हुआ। तब कुंदन 5 वर्ष का था।

वह अपनी माता से शीघ्र ही घुल-मिल गया, पर कनिष्क अवि‍कसित बालक होने पर भी नई मां की हर बात का विरोध करता था। उसके मना करने भी बाहर निकलकर ऊटपटांग हरकतें करता। नहाने के लिए कहती तो दूर भाग जाता। गंदी जमीन पर पसरकर बैठ जाता। मना करने पर वहीं लोट जाता। पढ़ने की पुस्तकें फाड़ देता और कुंदन को बिना किसी बात के पीट देता। यह उसकी रोज की कहानी थी। 
 
मां हैरान थी। पहली पत्नी के वियोग में दु:खी पति को संभाले या इस विद्रोही राजकुमार को, वह समझ नहीं पाती थी। घर का सारा काम करने के बाद भी उसे संतोष नहीं था कि वह गृहिणी का कर्तव्य पूरा कर रही है। मन पर एक बोझ रहता था कनिष्क उस बोझ को और बढ़ा देता, पर पति के वापस आने तक सभी समाप्त हो जाता। डिब्बे के डिब्बे, पैकेट के पैकेट घर में से खोज-खोजकर कनिष्क खा ही जाता था। कुछ न मिलता तो मां को ही मारने लगता। 
 
'मुझे भूख लगी है, खाना खाऊंगा।' वह बेचारी उस समय कुछ न कुछ बनाकर देती। पेट में दर्द हो जाता, ज्वर हो जाता, पर वह नहीं मानता। 
 
 
 
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पिता ने मानसिक रोग से अविकसित बच्चों के विद्यालय में उसका प्रवेश करा दिया। वहां पुरुष शिक्षक थे जबकि मालती खरे नाम की एक महिला भी थी। वह कनिष्क को बहुत प्यार करने लगी थीं। उसे पढ़ाती, तरह-तरह के उपायों से गिनती सिखाने की कोशिश करतीं तो वह थोड़ा-बहुत पढ़ना-लिखना सीख गया था। पर छुट्टी वाले दिन क्या करे। फिर उस पर वही धर-पटक करने वाला जुनून सवार हो जाता। कुंदन उसके इस भाव को मान जाता और उसका पीछा करता। कई प्रकार के खतरों और प्रहारों से वह उसे बचाकर सकुशल वापस ले आता।
 
एक दिन कनिष्क और कुंदन दोनों अपने पिता के साथ दिल्ली गए। वहां एक रिश्तेदार के घर ठहरे। तय हुआ कि वे भोजन करके दिल्ली घूमने जाएंगे, परंतु तभी एक गड़बड़ हो गई। कनिष्क कई डिब्बे बिस्किट खाने के बाद और थोड़ी देर में ही खरबूजा खाने के बाद बाहर सड़क पर टहलने निकल गया। 5 मिनट पीछे ही दौड़ता हुआ वापस आया। मां उसे खोज रही थी। कोई आशंका उसके मन में घर कर चुकी थी, आखिर यह बाहर गया क्यों? जरूर कोई शैतानी की होगी। 
 
उसकी आशंका सही निकली। दो मिनट बाद ही घर का माली लाल-पीली आंखें करके द्वार पर आ खड़ा हुआ। कनिष्क जाली के दरवाजे के पीछे छिप गया।
 
मां ने पूछा- तुम कौन हो और इस समय क्यों आए हो? 
 
आपके यहां यह लड़का कौन है? क्या पागल है? माली ने उत्तेजना से भरकर कहा। 
 
मां ने कहा- हां थोड़ा पागल है। 
 
उसने कहा- मैं माली हूं यहां का। अपने बाल-बच्चों के साथ पास के मकान में रहता हूं। यह काला चश्मा लगाने वाला लड़का बड़ा ही दुष्ट है। हम इसको जान से मार डालेंगे। 
 
मां ने फिर कहा- भैया! यह सचमुच पागल है। इसने जो कुछ किया है, वह पागलपन में ही किया है। 
 
फिर उसने कनिष्क से पूछा- क्या किया तूने? 
 
कनिष्क ने कहा- मैंने कुछ नहीं किया है। इन्होंने ही मुझे मारा है। 
 
तब माली ने ही सब कुछ बताया कि इसने हमारे 3 साल के बेटे को उठाकर जमीन पर दे मारा। वह मर जाता तो? उसका सिर फूट गया है। 
 
थोड़ी देर के बाद माली की मां, उसकी पत्नी, बहन, 3 बच्चे और पड़ोस में काम करने वाला माली सभी कनिष्क की शिकायत करने के लिए आ गए। एक भीड़ जमा हो गई। मां तो शर्म के मारे मर-सी गई- हाय! इसे मैं यहां लाई ही क्यों? यह तो कहीं जाने लायक नहीं है।
 
उसी समय कुंदन अंदर से आकर एकदम भीड़ के सामने खड़ा हो गया। उसने कहा- मेरे भाई ने इस बच्चे का सिर फोड़ दिया है, जैसा तुम कहते हो। वैसे तो केवल थोड़ा-सा गुमड़ा उछल आया है, उसे हाथ से दबा देते तो ठीक हो जाता। अब इस पर हल्दी-चूना गरम करने पुल्टिस बांध दो, ठीक हो जाएगा। फिर भी मेरे भाई पर आप सबको बहुत गुस्सा आ रहा है तो मैं आपके सामने खड़ा हूं, मुझे आप इसी तरह पटक दो। 
 
भीड़ के लोग एक-दूसरे का मुंह देखने लगे। फिर माली बच्चे को डॉक्टर के पास लेकर चला गया। भीड़ छंट गई थी। 
इस पूरे घटनाक्रम ने कनिष्क को पूरी तरह बदलकर रख दिया। दवाइयों और स्कूल से अधिक असर दिखाया था कुंदन के प्यार ने। सच पूछें तो मनोरोग की यही सबसे बड़ी चिकित्सा है। 
 
बच्चो, हमारे आसपास भी कई कनिष्क रहते हैं। हमारा उनके प्रति व्यवहार कैसा है, आकलन करिए। 
 
मानसिक दिव्यांगों की हमें असामान्य लगने वाली हरकतें उनकी बीमारी के कारण ही होती हैं। उनकी आवश्यकता एवं क्रिया-प्रतिक्रियाओं को आत्मीयता और स्नेह से समझना चाहिए। क्रोध, उपहास या उपेक्षा से तो हम सामान्य लोगों को भी चिढ़ा देते हैं। यही तो समझाना चाहता था कुंदन।

साभार - देवपुत्र 
 

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