एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं की कुल वैल्यू को ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) किसी कहते हैं। अर्थशास्त्री सुशांत हेगड़े (रिसर्च और रेटिंग्स फर्म केयर रेटिंग्स) ने जीडीपी की तुलना ठीक वैसी ही की है, जैसे 'किसी छात्र की मार्कशीट' होती है।
जैसे छात्र की मार्कशीट से पता चलता है उसने सालभर में कैसा प्रदर्शन किया है और किन विषयों में वह मजबूत या कमजोर रहा है। उसी तरह जीडीपी देश की आर्थिक गतिविधियों के स्तर को दिखाता है और इससे यह पता चलता है कि किन सेक्टरों की वजह से इसमें तेजी या गिरावट आई है।
जीडीपी से यह भी पता चलता है कि सालभर में अर्थव्यवस्था ने कितना अच्छा या खराब प्रदर्शन किया है। अगर जीडीपी ने डेटा सुस्ती को दिखाया है तो इसका मतलब यह है कि देश की अर्थव्यवस्था सुस्त हो रही है और देश ने इससे पिछले साल के मुकाबले पर्याप्त सामान का उत्पादन नहीं किया और सेवा क्षेत्र में भी गिरावट रही।
साल में 4 दफा भारत में सेंट्रल स्टैटिस्टिक्स ऑफिस (सीएसओ) जीडीपी का आकलन करता है यानी हर तिमाही में जीडीपी का आकलन किया जाता है। हर साल यह सालाना जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े जारी करता है। माना जाता है कि भारत जैसे कम और मध्यम आमदनी वाले देश के लिए साल-दर-साल अधिक जीडीपी ग्रोथ हासिल करना जरूरी है ताकि देश की बढ़ती आबादी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। जीडीपी से एक तय अवधि में देश के आर्थिक विकास और ग्रोथ का पता चलता है।