पश्चिम बंगाल में सरकार भले ही देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले अपराध की दर कम होने का दावा करे लेकिन एक मामले में यह राज्य अव्वल है। वह है महिलाओं पर एसिड हमलों की बढ़ती घटनाएं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पश्चिम बंगाल इस मामले में पहले स्थान पर है। एक महिला मुख्यमंत्री के सत्ता में होने के बावजूद यहां ऐसे हमलों की शिकार महिलाओं को न्याय और मुआवजा मिलने की दर काफी धीमी है। एनसीआरबी के ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि 2016 में पूरे देश में एसिड हमलों की 283 घटनाएं दर्ज की गईं।
इनमें से लगभग 27 फीसदी यानी 76 मामले अकेले बंगाल में हुए। बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश का स्थान है, जहां 57 मामले दर्ज हुए। वर्ष 2014 में देश में ऐसे 203 मामले दर्ज हुए थे जबकि वर्ष 2015 में ऐसे 222 मामले सामने आए थे। लेकिन 2016 में ऐसे मामलों की तादाद बढ़ कर 283 तक पहुंच गईं।
2016 में इन हमलों के सिलसिले में कुल 233 लोगों को गिरफ्तार किया गया था। एसिड सर्वाइवर्स एंड वुमेन वेलफेयर फाउंडेशन (एएसडब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के संयोजक दिब्यलोक राय चौधरी कहते हैं, "बीते कुछ वर्षों के दौरान देश में एसिड हमलों के मामले में अभियुक्तों को सजा की दर जहां 40 फीसदी रही है, वहीं पश्चिम बंगाल में यह महज 14 फीसदी है।" उनका कहना है कि हमले के बाद पीड़ित लोग महीनों तक सदमे और अस्पताल में रहते हैं। इससे नतीजतन इस दौरान अपराधी या तो फरार हो जाता है या फिर कानूनी खामियों का फायदा उठा कर बचाव की जमीन तैयार कर लेता है।
पीड़ितों के पुनर्वास व मुआवजे की प्रक्रिया तेज करने की खातिर विभिन्न राज्यों के पुलिस प्रमुखों पर दबाव बढ़ाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग ने हाल में एसिड हमलों का एक राष्ट्रीय डिजिटल डाटाबेस तैयार किया है। 2013 में आपाराधिक कानून संशोधन अधिनियम पारित होने के बाद भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में धारा 326ए और 326बी जोड़ने के बाद ऐसे हमलों में अभियुक्तों को अब 10 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इससे पहले ऐसे मामलों में अधिकतम तीन साल की ही सजा का प्रावधान था।
समय पर मुआवजा नहीं
एसिड हमलों के बाद पीड़ित या पीड़िता के सामने सबसे बड़ी चुनौती इलाज का खर्च जुटाने की होती है। उनका इलाज या पुनर्वास लंबा चल सकता है। लेकिन बंगाल सरकार का रिकॉर्ड इस मामले में अच्छा नहीं है। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (एपीडीआर) की ओर से सूचना के अधिकार के तहत जुटाई गई जानकारी से पता चला है कि सरकार ने 46 मामलों में से महज 18 में ही मुआवजा दिया है।
एपीडीआर के बापी दासगुप्ता एसिड हमले के पीड़ित लोगों की ओर से बरसों से मामले लड़ते रहे हैं। वह सूचना के अधिकार के जरिए मुआवजे की जानकारी लेने के अलावा एसिड की बिक्री से संबंधित नियमों को कड़ाई से लागू करने की भी मुहिम चला रहे हैं। बापी बताते हैं, "इन हमलों में मुख्यतः नाइट्रिक एसिड का इस्तेमाल होता है जो सुनारों की दुकानों पर आसानी से उपलब्ध है। इसका इस्तेमाल सोने को साफ करने के लिए किया जाता है।"
कलकत्ता हाईकोर्ट में एसिड हमलों के पीड़ितों के मामले लड़ने वाले वरिष्ठ एडवोकेट जंयत नारायण चटर्जी कहते हैं, "ऐसे हमलों की जांच की प्रगति से मुआवजे का कोई संबंध नहीं होना चाहिए। अभियुक्त की गिरफ्तारी हो या नहीं, मुआवजा पहले मिलना चाहिए।"
राज्य सरकार का दावा है कि बीते दो वर्षों के दौरान राज्य में ऐसी घटनाओं में कमी आई है। अधिकारियों का मानना है कि एसिड हमलों को रोका जा सकता है। लेकिन इसके लिए ऐसी हर घटना की सूचना पुलिस को देनी होगी। दूसरी ओर, एसिड हमलों के शिकार लोगों के हित में काम करने वाले संगठनों का कहना है कि सरकार और पुलिस को ऐसे मामलों में दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा।
एडवोकेट चटर्जी कहते हैं, "ऐसे मामलों में पुलिस व गैर-सरकारी संगठनों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है। उसी स्थिति में पीड़ितों को न्याय दिलाया जा सकेगा।" इसके साथ ही पीड़ितों के पुनर्वास की एक ठोस रणनीति जरूरी है।