Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ब्रिक्स मुद्रा: क्या टैरिफ बढ़ाने की ट्रंप की धमकी जायज है?

हमें फॉलो करें Donald Trump

DW

, शनिवार, 7 दिसंबर 2024 (07:55 IST)
निक मार्टिन
ब्रिक्स समूह का नाम इसके मूल सदस्य देशों ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका के नाम पर रखा गया है। ये सभी देश 21वीं सदी में सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल हैं। फिलहाल, वैश्विक स्तर पर 80 फीसदी कारोबार के लिए अमेरिकी डॉलर का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन ये देश डॉलर पर निर्भरता कम करना चाहते हैं।
 
अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मानना है कि डॉलर आधारित वित्तीय प्रणाली से अमेरिका को काफी ज्यादा आर्थिक फायदा होता है। जैसे, कम ब्याज दर पर कर्ज लेना, बड़े राजकोषीय घाटे को झेलने की क्षमता, और स्थिर विनिमय दर।
 
अमेरिकी डॉलर को चुनौती क्यों देना चाहते हैं ब्रिक्स देश
डॉलर का इस्तेमाल तेल और सोने जैसी वस्तुओं की कीमत तय करने के लिए किया जाता है। जब दुनिया में अनिश्चितता होती है, तो निवेशक अक्सर डॉलर में निवेश करते हैं क्योंकि डॉलर स्थिर होता है।
 
डॉलर का इस्तेमाल दुनिया भर में होता है। इससे अमेरिका को बहुत अधिक राजनीतिक ताकत मिलती है। वह दूसरे देशों पर प्रतिबंध लगा सकता है। साथ ही, उनके व्यापार और पूंजी पर रोक लगा सकता है।
 
ब्रिक्स समूह अब समय के साथ बड़ा हो रहा है। हाल ही में ईरान, मिस्र, इथियोपिया और संयुक्त अरब अमीरात इस समूह में शामिल हुए हैं। ब्रिक्स के सदस्य देशों ने अमेरिका पर डॉलर को ‘हथियार' की तरह इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि इससे प्रतिद्वंद्वी देशों को अमेरिकी हितों के तहत परिभाषित ढांचे के भीतर काम करना पड़ता है।
 
जब यूक्रेन पर रूसी हमले की वजह से अमेरिका और यूरोपीय संघ ने रूस पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया था, तब एक नई साझा मुद्रा के बारे में चर्चा काफी ज्यादा बढ़ गई थी। इस दौरान यह भी चिंता जताई गई थी कि अगर ब्रिक्स समूह में शामिल अन्य देश पश्चिमी देशों के साथ मतभेद रखते हैं, तो उन्हें भी निशाना बनाया जा सकता है।
 
ब्रिक्स मुद्रा योजना किस तरह तैयार हुई?
ब्रिक्स मुद्रा बनाने का विचार सबसे पहले 2008-09 के वित्तीय संकट के तुरंत बाद आया था। उस समय अमेरिका में रियल एस्टेट में उछाल और कमजोर नियम-कानूनों ने पूरी दुनिया में बैंकिंग प्रणाली को लगभग ध्वस्त कर दिया था।
 
पिछले साल दक्षिण अफ्रीका में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में, इन देशों ने डॉलर से जुड़े जोखिम कम करने के लिए एक साझा मुद्रा बनाने की संभावना पर विचार करने पर सहमति जताई। हालांकि, समूह के प्रमुख देशों ने यह भी कहा कि इसे पूरा होने में कई साल लग सकते हैं।
 
इस साल अक्टूबर में कजान में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक कदम और आगे बढ़ते हुए ब्लॉकचेन-आधारित अंतर्राष्ट्रीय भुगतान प्रणाली का प्रस्ताव रखा, जिसे पश्चिमी प्रतिबंधों को दरकिनार करने के उद्देश्य से डिजाइन किया गया है।
 
हालांकि, पुतिन की योजना को लेकर बहुत उत्साह नहीं दिखा, लेकिन ब्रिक्स देशों ने स्थानीय मुद्राओं में ज्यादा व्यापार करने पर सहमति जताई, ताकि वे डॉलर पर कम निर्भर रहें।
 
पुतिन और ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा नई मुद्रा के सबसे बड़े समर्थक हैं। चीन ने स्पष्ट रूप से कोई राय नहीं दी है, लेकिन उसने डॉलर पर निर्भरता कम करने के प्रयासों का समर्थन किया है। वहीं, भारत इस मामले पर काफी सावधानी से अपने कदम बढ़ा रहा है।
 
क्या साझा मुद्रा तैयार करना संभव है?
ब्रिक्स देशों के लिए एक नई साझा मुद्रा बनाना बहुत बड़ी चुनौती होगी। इन नौ देशों की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्थाएं अलग-अलग हैं, जिससे कई जटिलताएं पैदा हो सकती हैं। ये देश आर्थिक विकास के अलग-अलग चरणों में हैं और उनकी विकास दर में काफी अंतर है।
 
उदाहरण के लिए, चीन एक सत्तावादी देश है, लेकिन इसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 17।8 ट्रिलियन डॉलर है, जो ब्रिक्स समूह के कुल जीडीपी का लगभग 70 फीसदी है। चीन अपने व्यापार से कमाई ज्यादा करता है और एक प्रमुख निर्यातक के रूप में अपनी प्रतिस्पर्धा को बनाए रखने के लिए डॉलर का बड़ा भंडार रखता है। दूसरी ओर, भारत कारोबारी घाटे में चल रहा है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और इसकी अर्थव्यवस्था 3।7 ट्रिलियन डॉलर की है।
 
ब्रिक्स में चीन का प्रभुत्व एक बड़ा असंतुलन पैदा करेगा। इससे भारत के लिए किसी भी ऐसी नई मुद्रा पर सहमत होना मुश्किल होगा जिससे उसके राष्ट्रीय हित पर असर हो। ब्रिक्स के अन्य सदस्य देशों के बीच असमानता से भी साझा मुद्रा पर विरोध बढ़ सकता है।
 
यह भी संभावना नहीं है कि ब्रिक्स देश आखिरकार डॉलर या यूरो जैसी पूरी तरह से कारोबार वाली मुद्रा की ओर बढ़ना चाहते हैं। पहली बार यूरो का प्रस्ताव 1959 में रखा गया था। 2002 में यूरो को यूरोपीय संघ के 12 देशों में वैध मुद्रा के तौर पर मान्यता मिली। दूसरे शब्दों में कहें, तो यूरो को साझा मुद्रा बनने में 40 साल से अधिक का वक्त लगा। इसके बाद, 20 अन्य यूरोपीय देशों में यूरो अपनाया गया।
 
सबसे संभावित विकल्प यह है कि ऐसी साझा मुद्रा बनानी होगी जिसका इस्तेमाल सिर्फ व्यापार के लिए किया जाए। इसका मूल्य सोने या तेल जैसी वस्तुओं और अन्य मुद्राओं के आधार पर तय किया जाए।
 
ब्रिक्स देशों की नई मुद्रा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की स्पेशल ड्राइंग राइट्स (एसडीआर) की तरह काम कर सकती है। एसडीआर एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संपत्ति है, जिसका मूल्य डॉलर, यूरो, युआन, येन और पाउंड की दैनिक विनिमय दरों पर आधारित होता है। कुछ लोगों का सुझाव है कि ब्रिक्स के लिए एक विकल्प डिजिटल मुद्रा भी हो सकती है।
 
ट्रंप की 100 फीसदी टैरिफ की धमकी जल्दबाजी तो नहीं?
ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म ‘ट्रुथ सोशल' पर शनिवार को लिखा कि जब वह जनवरी में व्हाइट हाउस लौटेंगे, तो ब्रिक्स देशों से ‘यह वचन मांगेंगे' कि वे ‘न तो एक नई ब्रिक्स मुद्रा बनाएंगे और न ही किसी ऐसी अन्य मुद्रा का इस्तेमाल करेंगे जो अमेरिकी डॉलर की जगह ले सके।'
 
हालांकि, इसे ट्रंप की जल्दबाजी कह सकते हैं, क्योंकि मुद्रा के प्रस्ताव पर ब्रिक्स देशों के नेताओं की बयानबाजी के बावजूद इस दिशा में कोई खास प्रगति नहीं हुई है।
 
दरअसल, 2 दिसंबर को दक्षिण अफ्रीकी सरकार ने जोर देकर कहा कि ब्रिक्स मुद्रा बनाने की कोई योजना नहीं है। साथ ही, उन्होंने गलत बयानबाजी के लिए ‘हाल ही में की गई गलत रिपोर्टिंग' को दोषी ठहराया।
 
ब्राजील के डिपार्टमेंट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशन ऐंड कोऑपरेशन (डीआईआरसीओ) के प्रवक्ता क्रिसपिन फिरी ने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म एक्स पर पोस्ट किए गए एक बयान में कहा कि अब तक की चर्चा राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल करके समूह के भीतर व्यापार को बढ़ावा देने पर केंद्रित रही है।
 
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है असर
ट्रंप की धमकी से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के साथ अमेरिका के रिश्ते खराब हो सकते हैं, जो उसके प्रमुख व्यापारिक साझेदार भी हैं। इसके बदले में अमेरिका को भी जवाबी कार्रवाई की धमकी मिल सकती है।
 
ट्रंप पहले से ही चीन और अपने अन्य प्रतिद्वंद्वी देशों पर अतिरिक्त टैरिफ लगाने की धमकी दे चुके हैं। अगर उनकी सरकार इस तरह का कोई भी कदम उठाती है, तो इससे दुनिया भर में और अमेरिका में भी महंगाई बढ़ सकती है और आर्थिक विकास धीमा हो सकता है।
 
डॉलर को प्राथमिकता देने का यह फैसला ट्रंप के पहले कार्यकाल से नीतिगत बदलाव को दिखाता है यानी कि यह फैसला उनके पहले कार्यकाल की नीति की तुलना में बिल्कुल अलग है। पहले वे डॉलर को कमजोर करके अमेरिकी निर्यात को बढ़ावा देना चाहते थे। अब उनके धमकी देने से डॉलर मजबूत हुआ है और सोने, रुपये और रैंड की कीमत कम हुई है।
 
वहीं इन सब के बीच, रूसी सरकार के प्रवक्ता दमित्री पेस्कोव ने कहा कि डॉलर को रिजर्व करेंसी के रूप में इस्तेमाल करने का चलन कम हो रहा है। ज्यादा से ज्यादा देश अपने व्यापार और विदेशी आर्थिक गतिविधियों के लिए अपनी राष्ट्रीय मुद्राओं का इस्तेमाल कर रहे हैं।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

संभल की मस्जिद के बारे में पुरातत्व विभाग के दावों पर सवाल