Dharma Sangrah

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

हिंदी का दक्षिण भारत में विरोध राजनीति है या कुछ और

हिंदी को दक्षिण भारतीय राज्य अपनी भाषाओं के लिए खतरा क्यों मानते हैं? हिंदी पट्टी भी उनके विरोध को भारतीयता का विरोध क्यों मानती है? सैकड़ों भाषाओं और बोलियों के देश में भाषाएं सहगामिनी की बजाय प्रतिद

Advertiesment
हमें फॉलो करें Hindi

DW

, मंगलवार, 22 अप्रैल 2025 (07:49 IST)
शिव जोशी
काफी पेचीदा और बहुस्तरीय भाषा संरचना वाले भारत देश में स्कूली शिक्षा के तहत तीन-भाषा फॉर्मूला लागू करने के केंद्र सरकार के फैसले को लेकर गैर-हिंदी भाषी राज्यों में विरोध की लहर है। खासकर तमिलनाडु में राज्य सरकार और नागरिक समाज इस मुद्दे पर आंदोलित हैं। तीन-भाषा फार्मूले के औचित्य पर नये सिरे से बहस छिड़ गई है। क्या टकराव को खत्म करने का कोई रास्ता संभव है या इस मुद्दे पर केंद्र-राज्य तनाव बना रहेगा।
 
समन्वय, विवाद और आक्रोश का इतिहास
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने 1948 में और आगे चलकर कोठारी आयोग (1964-68) ने भाषाई विविधता और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए तीन-भाषा फार्मूला की सिफारिश की थी। मकसद ये था कि शिक्षार्थी ना सिर्फ अपनी मातृभाषा में दक्षता हासिल करें बल्कि राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में हिंदी और वैश्विक संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी में भी पारंगत हो सकें। दक्षिण के कुछ राज्य, खासकर तमिलनाडु इसे हिंदी थोपने की कोशिश के तौर पर देखते आए हैं।
 
पुराने विवाद पर नई चिंगारी तब भड़की जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी एनईपी 2020 के तीन-भाषा फार्मूले को अपनाने से तमिलनाडु ने इंकार कर दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने समग्र शिक्षा अभियान के तहत राज्य को शैक्षिक सहयोग और वित्तीय मदद रोक दी। मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तीन-भाषा फॉर्मूले की स्वीकृति को शैक्षिक फंड से जोड़ने की केंद्र की नीति की भर्त्सना की है।
 
तमिलनाडु ही वह राज्य रहा है जहां भाषाई विवाद को लेकर साठ के दशक में हिंसक और खूनी प्रदर्शन हो चुके हैं। इस विरोध के तीखेपन और सघनता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश का वह अकेला राज्य है जहां केंद्र सरकार के पैसे से चलने वाले जवाहरलाल नवोदय विद्यालय नहीं बनाए गए हैं क्योंकि इन स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है।
 
सरकार का कहना है कि एनईपी पर अमल से शैक्षिक मानकों में एकरूपता आएगी इसीलिए फंडिंग भी इसके अनुसार ही जारी की जाएगी। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने एनईपी का पक्ष साफ करते हुए कहा है कि उसके जरिए कोई भाषा नहीं थोपी जा रही बल्कि यह शिक्षा के अवसरों को व्यापक बनाने की नीति है। उनका दावा है कि एनईपी 2020 के तीन-भाषा फॉर्मूले में कोई बाध्यकारी व्यवस्था नहीं रखी गयी है बल्कि उसे लचीला रखा गया है। हालांकि यह भरोसा तमिलनाडु जैसे राज्यों के गले नहीं उतर रहा।
 
हिंदी का अखिल भारतीय विस्तार
2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ करीब 44 फीसदी भारतीय हिंदी बोलते हैं और 25 फीसदी से कम भारतीय हिंदी को अपनी मातृभाषा मानते हैं। 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और पहली बार 1953 में हिंदी दिवस मनाया गया।
 
2011 की भाषाई जनगणना के आंकड़े 2018 में जारी किए गए थे। 35 राज्यों में से 12 राज्य के लोगों के बीच आपसी व्यवहार और रोजमर्रा के संचार की पहली भाषा हिंदी है। यह आंकड़ा भी गौरतलब है कि 1971-2011 की अवधि में हिंदी 161 प्रतिशत की दर से बढ़ी तो चार सबसे बड़ी द्रविड़ भाषाएं इसी अवधि में लगभग आधे यानी, 81 प्रतिशत की दर से ही बढ़ पायीं।
 
लेकिन एक और रुझान भी ध्यान खींचता है। हिंदीभाषी राज्यों से दक्षिण के राज्यों की ओर अधिक माइग्रेशन देखा गया है। तमिलनाडु में 2001 से 2011 के दौरान हिंदी बोलने वालों का अनुपात करीब दोगुना हो चुका था। हिंदी के बढ़ते दबदबे के बीच गैर-हिंदी भाषियों की कुछ चिंताएं भी ध्यान खींचती हैं।
 
हिंदी थोपने का आरोप और तीन-भाषा फॉर्मूले की चुनौतियां
भाषा, भूगोल और संस्कृति की विविधता वाले देश के गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी को थोपने की कथित कोशिशें राजनीतिक और सामाजिक तनाव का कारण बनती रही हैं। खासतौर पर दक्षिण भारत के राज्य हिंदी के जरिए केंद्र की सरकारों पर विस्तारवाद का आरोप लगाते रहे हैं। तमिलनाडु में पहले से दो-भाषा फॉर्मूला लागू है- तमिल और अंग्रेजी। कमोबेश ऐसा ही विरोध केरल, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे राज्यो में भी हो रहा है।
 
छोटी उम्र में ही कई भाषाओं को सीखने की "मांग” को पूरा कर पाने में स्कूली बच्चे खुद को असमर्थ पाते हैं और उन पर अतिरिक्त बोझ आ जाता है। अधिकांश शिक्षाविद् और भाषाविद् गैर-हिंदी भाषा के अध्यापकों की भारी कमी की ओर भी ध्यान दिलाते हैं। नीति में तीसरी आधुनिक भाषा के लिए योग्य या प्रशिक्षित अध्यापक उपलब्ध नहीं हैं। और देहाती इलाकों में अधिकांश शिक्षक, स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की भाषा से अनभिज्ञ होते हैं। इसके अलावा पाठ्यपुस्तकें राजकीय भाषा में होती हैं।
 
पर्याप्त संसाधनों का अभाव भी एक चुनौती है। ऑनलाइन सामग्री उपलब्ध हो भी जाए तो कई स्कूलों में वित्तीय सीमाएं हैं। हालांकि एनईपी 2020 में ट्रेनिंग और संसाधन मुहैया कराने और लचीली व्यवस्था रखने का भरोसा भी दिया गया लेकिन आंदोलित राज्य इतने भर से संतुष्ट नहीं।
 
आंकड़ों के मुताबिक केंद्र सरकार के कर राजस्व में करीब 29 फीसदी का योगदान करने वाले देश के पांच दक्षिणी राज्यों को सिर्फ 15 फीसदी संसाधन हासिल हो पाते हैं। तीन-भाषा फॉर्मूले से दी जाने वाली शिक्षा का एक पहलू शहरों की अभिजात स्कूली शिक्षा बनाम देहातों की संसाधनविहीन शिक्षा का भी है।
 
हिंदी उपन्यासकार और संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि हिदी को लेकर इस आग्रह के दुष्परिणाम मौजूदा टकराव के रूप में दिख ही रहे हैं। उनके मुताबिक, "हैरानी है कि तकनीकी कौशल और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के इस दौर में हिंदी को थोपने जैसी हरकत दिख रही है, यह संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचा सकती है। यह संकीर्णता है, सरकार को उदार होना चाहिए। वैसे भी तमिल के मुकाबले हिंदी भाषा का विकास बाद का है और उनका मूल भी एक नहीं है। अगर आज हिंदी संपर्क की भाषा है तो इसे ऐसा ही बने रहने देने में क्या हर्ज़ है?”
 
हिंदी पट्टी की अन्य भाषाओं से हिंदी का व्यवहार
अधिकांश गैर-हिंदी भाषी राज्य हिंदी और अंग्रेजी के साथ अपनी क्षेत्रीय भाषा में शिक्षा देते हैं, हिंदी भाषी राज्यों में इस फॉर्मूले के तहत अक्सर हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पढ़ाई जाती है। हालांकि आलोचक कहते हैं कि संस्कृत एक तरह से नाममात्र के लिए है क्योंकि उसे व्यवहारिक उपयोग में सीमित माना जाता है।
 
भारत की तमाम उपभाषाओं-बोलियों का समृद्ध इतिहास रहा है लेकिन अब वे व्यवहारिक उपयोग से किनारे ही कर दी गई हैं। इस सिलसिले में भाषाविद् प्रोफेसर आयशा किदवई मैथिली, भोजपुरी, ब्रज और मगही का उदाहरण देती हैं जो स्कूलों में नहीं पढ़ाई जाती जबकि लाखों लोग उन्हें बोलते हैं। किदवई के मुताबिक राज्य इन भाषाओं को हिंदी के विराट छाते के नीचे ले आते हैं जिसके चलते भाषायी विलोपन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
 
हिंदी के अपने ही क्षेत्र में अपने साथ रहती आईं कई भाषाओं-बोलियों पर वर्चस्व को लेकर भी सवाल उठते हैं। राष्ट्र भाषा के रूप में उसकी कामना क्या इतनी ऊंची उठती चली गई कि अपने साथ फलफूल रही भाषाओं-उपभाषाओं-बोलियो से उसने पल्ला झाड़ लिया? उत्तर भारत की कई उपभाषाओं-बोलियों का उपयोग घरों तक या आम बोलचाल तक सीमित हो गया जिसकी वजह से वे सिकुड़ रही हैं।
 
भाषाविद् इसे लैंग्वेज शिफ्ट यानी भाषाई बदलाव कहते हैं। कहा जा सकता है कि मानकीकरण की एक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत हिंदी का विकास हुआ है लेकिन पंकज बिष्ट कहते हैं कि ये प्रक्रिया ऐसी नहीं होनी चाहिए कि करीबी भाषाओं के अस्तित्व पर संकट आ जाए।
 
संघवाद के मूल्य और समाधानों की तलाश
हिंदी के आंतरिक संकट के बीच, उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजन की रेखाएं इधर के वर्षों में और गहन होती दिख रही हैं। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के कितने छात्र तमिल सीखते हैं, तमिलनाडु के हिंदी आलोचक अक्सर ये सवाल उठाते हैं। ऐसे ही सवालों के इर्दगिर्द कोएर्सिव फेडरेलिज्म यानी जबरिया संघवाद की आशंका जन्म लेती है और भाषाई समावेशिकता पर सांस्कृतिक एकरूपता का खतरा मंडराने लगता है। इसीलिए इस टकराव का एक सुचिंतित और व्यापक सहमति वाला रास्ता निकालने की जरूरत महसूस की जा रही है।
 
कांग्रेस सांसद और लेखक शशि थरूर, समाचार चैनलर एनडीटीवी की वेबसाइट में प्रकाशित लेख में सहयोगी संघवाद पर जोर देते हुए कहते हैं, "तीन-भाषा फार्मूले के गतिरोध को दूर करने के लिए एक संतुलित अप्रोच की जरूरत है जो राष्ट्रीय उद्देश्यों और क्षेत्रीय आकांक्षाओं- दोनों का सम्मान करे।
 
इस विषय में केंद्र-राज्य संबंधों को लेकर गठित अंतरराज्यीय परिषद् की सक्रिय भूमिका भी अपेक्षित है। भारत जैसे महादेश की विविधता ही उसकी विराट स्वरूप का निर्माण करती है और आलोचना लोकतांत्रिक ढांचे को और मजबूत बनाती है। ये बात बहुत बार कही जा चुकी है, और खुद वर्तमान प्रधानमंत्री भी समय समय पर इन बिंदुओं को रेखांकित कर चुके हैं।
 
बहुभाषिकता की जरूरत के बीच ये भी एक महत्वपूर्ण बात है कि लोग भाषाएं इसीलिए सीखते हैं कि वे उनके लिए उपयोगी और लाभदायक होती हैं। विपरीत परिस्थितियों और नये पर्यावरणों में खुद को ढालने के लिए भी नई भाषाएं, नई तहजीबें सीखी जाती हैं। शशि थरूर चुटकियां लेकर कहते हैं कि दक्षिण भारत में हिंदी को प्रमोट करने में बॉलीवुड ने ज्यादा काम किया है।
 
आर्थिक और सामाजिक कारणों से तीव्र हो रही आवाजाही और अंतरराज्यीय प्रवास के जरिए लोग एक-दूसरे के करीब आएंगे और वे भाषाओं को बाध्यता की तरह नहीं बल्कि जरूरत और धीरे-धीरे परस्पर मेलजोल के तहत सीखेंगे-स्वीकारेंगे। अभी प्रकट-अप्रकट तौर पर यह हो भी रहा है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

एशियाई देशों से रिश्ते मजबूत करने में जुटा चीन