आपने कभी उन बुजुर्गों की बात सुनी है जो आसमान की ओर ताक कर, किसी चिड़िया की आवाज सुन कर या फिर पेड़ पौधों को देख आने वाले मौसम का हाल बता देते हैं। वैज्ञानिक अब उनके ज्ञान का इस्तेमाल कर मौसम का पूर्वानुमान लगाएंगे।
जलवायु परिवर्तन और बढ़ती आबादी लाखों लोगों का जीवन ऐसे मौसम के खतरे में डाल रही है जिसका पहले से अंदाजा नहीं लगता। रिसर्चरों का कहना है कि जलवायु में परिवर्तन को समझने के लिए प्राकृतिक संकेतों को देखना होगा जैसे कि पेड़-पौधे, चिड़िया या तापमान। इन सबका इस्तेमाल कर शहरों में रहने वालों को मौसम की चरम स्थिति के बारे में आगाह किया जा सकता है।
शहरों के लोग अकसर पूर्वानुमानों को नहीं मानते। यह बातें ब्रिटिश एकेडमी के जर्नल में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट में कही गई है। ब्रिटिश एकेडमी में शहर और बुनियादी ढांचा कार्यक्रम की निदेशक कैरोलाइन नोल्स कहती हैं, "देसी ज्ञान की अकसर अनदेखी की जाती है।" नोल्स का कहना है, "गांवों और शहरों की सीमाओं के बीच ज्ञान का लेनदेन हो सकता है और इससे पूरी दुनिया में लोगों की जिंदगी और रोजीरोटी बचायी जा सकती है।"
रिसर्च के लिए घाना के 21 ग्रामीण और शहरी इलाके में रहने वाले 1050 लोगों से बात की गई। इसमें राजधानी आक्रा और उत्तर के मुख्य शहर तामाल भी शामिल है। रिसर्चरों ने ऐसे प्राकृतिक संकेतों की सूची बनाई है जिन्हें देसी समुदाय बाढ़, सूखा या फिर तापमान में बदलाव का पता लगाने के लिए इस्तेमाल करता था। इसमें बारिश का रूप, चींटियों का व्यवहार, कुछ चिड़ियों का दिखना, बाओबाब पेड़ में फूल लगना और गर्मी की तीव्रता। यह संकेत और इन्हें देखने का तरीका एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पहुंचाए जाते रहे है।
नोल्स का कहना है कि सारे ग्रामीण संकेतों को शहरों तक नहीं पहुंचाया जा सकता लेकिन कुछ ऐसे हैं जो दोनों जगहों के वातावरण के लिए उपयुक्त हैं जैसे कि बादल, गर्मी, कीट और पेड़। घाना यूनिवर्सिटी के रेमंड आबुदु कासेई रिसर्च रिपोर्ट के लेखक हैं। उनका कहना है कि शहरी इलाकों में पेड़ लगाने को बढ़ावा दे कर देसी ज्ञान का इस्तेमाल शहरों की हरियाली में किया जा सकता है।
रिसर्च में एक अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक 30 लाख से ज्यादा लोग भारी बारिश के कारण बाढ़ के खतरे का सामना कर सकते हैं क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण अप्रत्याशित मौसम के खतरे बढ़ते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन कराने वाले कार्बन उत्सर्जन को ना रोका गया तो इसके खतरों में बाढ़ और पानी की कमी के साथ ही भारी गर्मी और बिजली का गुल होना भी शामिल है।
रिसर्चरों का कहना है कि आने वाले सालों में बाढ़ ज्यादा से ज्यादा अचानक होती जाएगी और इसके बारे में पहले से अनुमान लगाना मुश्किल होता जाएगा। ऐसे में जरूरी है कि विज्ञान आधारित चेतावनी तंत्र में देसी ज्ञान को शामिल करने को प्रमुखता दी जाए। उनके अनुसार पूरी दुनिया में जलवायु अनुकूलन में देसी ज्ञान का इस्तेमाल लोगों ने देखा है। तंजानिया, जिम्बाब्वे, म्यांमार और इथियोपिया जैसे देशों में लोग अपने ज्ञान का इस्तेमाल कर बाढ़ या सूखे की थाह लगा लेते हैं। नोल्स का कहना है कि देसी समुदायों और क्लाइमेट रिसर्चरों के बीच ज्यादा से ज्यादा बातचीत की जरूरत है और "दोनों एक दूसरे से सीख सकते हैं।"
इस देसी ज्ञान को वैज्ञानिक रिसर्च में ज्ञान के एक अतिरिक्त स्तर के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके साथ ही रिसर्च में यह भी कहा गया है कि पारंपरिक ज्ञान को कागजों में दर्ज करना भी जरूरी है ताकि प्राकृतिक वातावरण में खोने का जोखिम ना रहे। देसी लोगों का जीवन पर्यावरण के कारण होने वाले बदलावों का सबसे ज्यादा नुकसान झेल रहा है।