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इस तरह पर्यावरण की रक्षा में हाथ बंंटाएगी जर्मन रेल

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DW

, मंगलवार, 13 दिसंबर 2022 (08:40 IST)
महेश झा
जर्मन रेल समय पर मंजिल पर नहीं पहुंचने के लिए बदनाम होने लगी है। इस हफ्ते उसने एक ऐसी परियोजना शुरू की है, जिसका मकसद ऐसा राष्ट्रीय टाइम टेबल तैयार करना है जिसमें ट्रेनों का समय एक दूसरे से जुड़ा हो।
 
जर्मन रेल की नई परियोजना जर्मन सरकार के पर्यावरण लक्ष्यों के साथ भी जुड़ी है। सरकार घरेलू यात्रा और माल ढुलाई में कारों और विमानों पर निर्भरता कम करना चाहती है। इसमें कार्बन उत्सर्जन रेल से ज्यादा होता है। इसके लिए रेल को 2030 तक यात्रियों के सफर के किलोमीटर को दोगुना करना और माल ढुलाई में 25 फीसदी की वृद्धि का लक्ष्य शामिल है। यह तभी संभव है जब ट्रेन टाइन टेबल इस तरह बनाया जाए कि यात्रियों को अगली ट्रेन बिना ज्यादा इंतजार के मिल जाए।
 
याद कीजिए अपने सफर के बारे में जब लंबे सफर पर अगर ट्रेन बदलनी हो तो लंबा इंतजार करना होता है। अरुणाचल से यदि किसी को हजारीबाग जाना हो, तो बस और ट्रेन बदलने में घंटों इंतजार करना होता है। जर्मनी छोटा है लेकिन फिर भी कई बार यहां भी ऐसी ही हालत होती है।
 
इसलिए जर्मन रेल डॉयचे बान दो लक्ष्यों पर काम कर रही है। एक तो सुपर फास्ट ट्रेनों के साथ सफर के समय को कम करना, शहरों के बीच यात्रा के समय को कम करना और मुख्य स्टेशनों से आगे जाने के लिए बिना ज्यादा इंतजार के अगली ट्रेन का बंदोबस्त करना। इस परियोजना को डॉयचलांड टाक्ट यानि जर्मनी टाइम टेबल का नाम दिया गया है। इसमें अंतरराज्यीय ट्रेनों और स्थानीय परिवहन का समय इस तरह से तय किया जा रहा है कि यात्रियों को ज्यादा इंतजार ना करना पड़े।
 
प्लेन और कार का इस्तेमाल होगा कम
अगर यह परियोजना कामयाब रहती है तो बहुत से लोगों को प्लेन या कार से सफर करने की जरूरत नहीं रहेगी। मसलन इस हफ्ते से कोलोन और म्यूनिख के बीच हर आधे घंटे पर ट्रेन चलेगी। फ्रैंकफर्ट और म्यूनिख जर्मन एयरलाइंस लुफ्थांसा का हब है और देश का प्रमुख अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा। अब जर्मनी आने वाले यात्री फ्रैंकफर्ट के बदले म्यूनिख भी आ सकेंगे और आगे का सफर रेल में कर पाएंगे। क्योंकि म्यूनिख से कोलोन आने के लिए अगले प्लेन का इंतजार करने के बदले यात्री हर आधे घंटे पर चलने वाली ट्रेन ले पाएंगे। इस तरह वे एयरपोर्ट पर सिक्योरिटी चेक में लगने वाला समय भी बचा लेंगे।
 
जर्मन रेल की सबसे बड़ी चुनौती है ट्रेन का समय पर चलना। ट्रेन थोड़ी लेट हुई और आपका अगला कनेक्शन छूटा। इसकी शिकायत रेल यात्री संघ के कार्ल पेटर नाउमन भी करते हैं। रेलगाड़ियों की संख्या बढ़ाकर इस समस्या को दूर किया जा सकता है, लेकिन यह आसान नहीं है। एक वजह यह है कि रेल नेटवर्क पर काफी दबाव है। इसके अलावा समय रहते नई रेलगाड़ियों का ऑर्डर देना होगा, वर्कशॉप की क्षमता बढ़ानी होगी और कामगारों को प्रशिक्षण देना होगा। इन सब में समय लगता है। इसलिए जर्मन रेल ने आने वाले सालों में नेटवर्क को बेहतर बनाने और स्टेशनों को सुधारने पर 13 अरब यूरो का निवेश करने का फैसला किया है।
 
परियोजना पर संदेह
परियोजना पर संदेह करने वालों की भी कमी नहीं है। रेल के इस्तेमाल में तेजी लाने के ले बनाए गए एक आयोग का मानना है कि जर्मन रेल को मिलने वाली सरकारी सहायता का सिस्टम बहुत जटिल है और उसकी वजह से गलत चीजों को प्राथमिकता मिलती है। यही कारण है कि जर्मनी रेल ने रेल लाइनों को चुस्त दुरुस्त रखने पर ध्यान नहीं दिया है। आयोग का कहना है कि रेलवे यदि रेललाइनों की मरम्मत पर ध्यान नहीं देता तो बाद में इसका खर्च सरकार को उठाना पड़ता है।
 
इसलिए यह आयोग स्विस मॉडल की वकालत कर रहा है, जहां पुराने रेल लाइनों की मरम्मत के लिए एक फंड है और दूसरा नई रेल लाइनें बनाने के लिए। इस बात की संभावना है कि भविष्य में 190 विभिन्न तरह की सबसिडी को मिला दिया जाएगा। लेकिन इससे रेल के लिए जरूरी निवेश की कमी पूरी नहीं होगी। उसे निवेश के नए स्रोतों की तलाश करनी होगी। कार्ल पेटर नाउमन का कहना है कि यदि आपने 20-30 साल तक इंफ्रास्ट्रक्चर में पर्याप्त निवेश नहीं किया है तो अब उसकी जल्दी भरपाई करनी होगी।
 
9 यूरो टिकट
गर्मियों में जर्मन सरकार ने 9 यूरो मासिक के राष्ट्रीय परिवहन टिकट का परीक्षण किया था। इस टिकट से लोग पूरे देश में सार्वजनिक परिवहन से यात्रा कर सकते थे। सिर्फ एक्सप्रेस और सुपर फास्ट रेलगाड़ियों को इससे अलग रखा गया था। फिर भी तीन महीने के परीक्षण के दौरान 5.2 करोड़ टिकट बिके। महीने में औसत 1.7 करोड़। अब ये मासिक टिकट करीब 49 यूरो प्रति महीने बेचने की योजना है। गर्मियों में परीक्षण के दौरान 18 लाख टन कार्बन डाय ऑक्साइड की बचत हुई। इस परीक्षण ने दिखाया कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल कर कार्बन उत्सर्जन को भी कम किया जा सकता है।
 
चुनौती ये है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा। तीन महीने के लिए 9 यूरो के टिकट के लिए केंद्र सरकार ने सबसिडी दी। 9 यूरो की जगह अब 49 का टिकट आ रहा है और लंबी बहस के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सबसिडी पर तो सहमति हो गई है लेकिन अभी तय नहीं कि क्या ऐसे लोग इसे अपनाएंगे जो आम तौर पर कारों का इस्तेमाल करते हैं। उसके लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर होना होगा और बसों, ट्रामों, ट्रेनों तथा ड्राइवरों में निवेश करना होगा।
 
जर्मन रेल की तैयारी
जर्मन रेल ने कम से कम लोगों की प्लेन पर निर्भरता घटाने की तैयारी शुरू कर दी है। इसी साल वह जर्मन विमान कंपनी लुफ्थांसा के नेतृत्व वाली स्टार अलायंस में शामिल हुई है। अब अलायंस के सदस्य, और इसमें भारत का एयर इंडिया भी शामिल है, फ्रैंकफर्ट या म्यूनिख जैसे हब से यात्रियों को जर्मन रेल के जरिए उनके गंतव्य तक पहुंचा पाएंगे।
 
साथ ही जर्मन रेल देश के विभिन्न एयरपोर्ट को रेल से कनेक्ट कर रही है ताकि यात्री सीधे ट्रेन से एयरपोर्ट तक पहुंच सकें। यहां वह सीटों की क्षमता को 60 फीसदी बढ़ा रही है। ट्रेनों में भीड़ की समस्या से निबटने के लिए जर्मन रेल क्रिसमस और नए साल के सीजन में 40,000 अतिरिक्त सीटें उपलब्ध करा रही है। यात्रियों की मदद के लिए 800 अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती भी कर रही है। जर्मन रेल के प्रवक्ता आखिम स्ट्राउस का कहना है, ”रेलगाड़ियों की संख्या बढ़ रही है, ट्रेनों में सीटों की संख्या बढ़ रही है।"
 
मेन लाइन पर हर आधे घंटे में ट्रेन
कोलोन से म्यूनिख वाले मेन लाइन पर हर आधे घंटे पर एक ट्रेन के साथ जर्मन रेल ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह मॉडल भारत के लिए भी यातायात में काम का साबित हो सकता है, भले ही जर्मनी का आकार भारत से बहुत ही छोटा है। भारत में कोलकाता-दिल्ली, दिल्ली गुआहाटी या दिल्ली-मुंबई जैसे मेन लाइन पर बहुत भीड़ होती है और आसानी से रेल टिकट नहीं मिलता।
 
ऐसे में जब टाटा को बेचा गया एयर इंडिया 500 नए प्लेन खरीदने की योजना बना रहा है, भारतीय रेल के साथ निकट सहयोग महत्वपूर्ण होगा। यात्रियों की सुविधा और पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज से तो जरूरी कदम साबित होगा ही, एयर इंडिया को इससे और भारतीय ग्राहक भी मिलेंगे, जो इस समय देश से बाहर जाने के लिए दूसरी एयरलायंसों का सहारा ले रहे हैं। 
चित्र सौजन्य : ट्विटर

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