रिपोर्ट : अविनाश द्विवेदी
दक्षिण एशिया में भारत के प्रमुख ताकत होने की 3 वजहें हैं, पड़ोसी देशों की मदद, राजनीतिक प्रभाव और क्षेत्र के देशों से ऐतिहासिक संबंध। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद इस इलाके में भारत का प्रभाव लगातार कम हो रहा है।
कोरोनावायरस की दूसरी लहर भारत के लिए कई मुसीबतें लेकर आई। इस दौरान एक ओर जहां बहुत से लोगों की जान गई और लाशों को नदियों में बहाने की तस्वीरें सामने आईं, वहीं दूसरी ओर भारत अपनी कई अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियां निभाने से भी चूका। भारत के वैक्सीन निर्यात पर प्रतिबंध के फैसले से जहां 'कोवैक्स प्रोग्राम' धीमा हुआ, वहीं बांग्लादेश जैसे पड़ोसी भी काफी परेशान हुए। भारत के वैक्सीन निर्यात पर बैन के फैसले के बाद बांग्लादेश ने अप्रैल अंत में अपनी जनता को कोवीशील्ड की पहली डोज देने पर रोक लगा दी थी। जिसके बाद उसे चीन ने लाखों वैक्सीन गिफ्ट कीं और अब बांग्लादेश चीन से वैक्सीन खरीद भी रहा है। बांग्लादेश में नई वैक्सीन के तौर पर लोगों को अब 'साइनोवैक' ही दी जा रही है।
अब सवाल यह है कि फिलहाल कई समस्याओं से जूझ रहा भारत पड़ोसियों के साथ अपने संबंध फिर से सामान्य कर सकेगा या नहीं? इस मसले पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विदेश संबंधों के प्रोफेसर हैप्पीमोन जैकब लिखते हैं कि भले ही 17 साल बाद भारत को विदेशी मदद स्वीकार करनी पड़ी हो लेकिन भारी मात्रा में भेजी गई मदद दिखाती है कि दुनिया मान रही है कि भारत को नजरअंदाज करना मुश्किल है। लेकिन दूसरी ओर संशय भी है कि जबतक वह फिर अपने पैरों पर नहीं खड़ा हो जाता, पश्चिमी दुनिया के किसी काम का नहीं होगा। महामारी के चलते नई दिल्ली के दक्षिण-एशियाई इलाके की बड़ी ताकत और नेता होने के दावे को बड़ा झटका लगेगा। आने वाले सालों में भारतीय विदेश नीति पर इसका असर भी पड़ेगा।
दुनिया की फार्मेसी अंदर से बीमार
दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश होने के कारण भारत मुश्किल में पड़ोसी देशों की मदद कर सकता है और इस क्षेत्र के देशों से ऐतिहासिक संबंधों के कारण राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल भी कर सकता है। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद इस इलाके में भारत का प्रभाव लगातार कम हो रहा है। इसकी पड़ोसियों की मदद करने की क्षमता भी काफी प्रभावित हुई है। ऐसे में पड़ोसी देशों के साथ ऐतिहासिक रिश्ते उसके स्थान को बचाए रख सकेंगे, यह कहना मुश्किल है।
सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के डायरेक्टर सी उदय भास्कर कहते हैं कि भारत ने अपनी छवि ऐसी बना रखी थी कि वह अपने साथ-साथ पड़ोसियों की वैक्सीन जरूरतों को भी पूरा कर देगा। शुरुआत में उसने ऐसा किया भी। लेकिन फिर उसने अपने पड़ोसियों को अधर में छोड़ दिया। ऐसे में भारत की छवि तो खराब हुई ही है। हालांकि मुंबई विश्वविद्यालय के अंतरराष्ट्रीय संबंध एवं सामरिक अध्ययन केंद्र के डायरेक्टर राजेश खरात मानते हैं, भारत पर वर्तमान में घरेलू दबाव हैं लेकिन भारत जल्द कूटनीतिक वापसी करेगा। पड़ोसी देशों को भी यह रवैया छोड़ना चाहिए कि हर सुविधा खुद से लाकर उन्हें दी जाए।
चीन पर नियंत्रण और मुश्किल
चीन पहले ही अपनी आर्थिक मदद की रणनीति के जरिए भारत को भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित करने की कोशिश कर रहा था। कोरोनावायरस की दूसरी लहर ने इस प्रक्रिया को तेज करने का काम किया है। चीन को नियंत्रित करने के मसले पर उदय भास्कर कहते हैं कि चीन का तरीका अलग रहा है, वह भारी लोन देकर और इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण करके जिस तरह से अन्य देशों से संबंध बनाता है, भारत और अमेरिका वैसा नहीं कर सकते।
कोरोना ने भारतीय अर्थव्यवस्था को भी बुरी तरह प्रभावित किया है। जिससे भारत की सेना को आधुनिक बनाने का प्लान भी प्रभावित हुआ है। जबकि उत्तरी सीमा पर चीन की आक्रामकता को नियंत्रित करने के लिए ऐसा किया जाना जरूरी था। भारत की वैश्विक कूटनीति और स्थानीय भू-राजनीति पर भी इसका असर होना तय है। भारत ने 3 अन्य बड़े देशों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ मिलकर चीन को नियंत्रित करने के लिए 'क्वाड' नाम का एक संगठन बनाया था। वर्तमान में भारत पर जो दबाव हैं, वे इस संगठन का प्रभाव भी कम कर सकते हैं। हालांकि उदय भास्कर कहते हैं कि क्वाड एक भौगोलिक महत्व रखता है और इसमें भारत को उसकी भू-राजनीतिक स्थिति का फायदा जरूर मिलेगा।
स्वास्थ्य सुविधाओं के जरिए नई शुरुआत का मौका
ऐसा नहीं है कि भारत के लिए सभी परिस्थितियां नकारात्मक ही हों। गंभीर संकट अपने साथ अवसर भी लाते हैं। भारत भी इस संकट को अवसर के तौर पर भुना सकता है। हैप्पीमोन जैकब लिखते हैं कि कोरोना की पहली लहर के दौरान ही सार्क देशों ने आपसी सहयोग बढ़ाने पर जोर दिया था। आपसी सहयोग के जरिए भारत पूरे दक्षिण एशिया में स्वास्थ्य सेवाओं का मजबूत तंत्र खड़ा करने का प्रयास कर सकता है, ताकि ऐसी हेल्थ इमरजेंसी का मजबूती से मुकाबला किया जा सके। भारत को आगामी भू-राजनीति को स्वास्थ्य कूटनीति, पर्यावरणीय मुद्दों और स्थानीय संचार से जोड़कर विकसित करना चाहिए।
राजेश खरात भी भारत को स्वास्थ्य कूटनीति की दिशा में आगे बढ़ने की सलाह देते हैं कि सार्क देशों के बीच सहयोग के जो आधार रहे हैं, उनमें स्वास्थ्य एक प्रमुख मुद्दा है। यह सही बात है कि पिछले कुछ सालों में इस पर उतना जोर नहीं दिया गया। लेकिन यह समय दक्षिण एशियाई क्षेत्र में स्वास्थ्य के मूलभूत ढांचे के निर्माण के लिए बिल्कुल सही हो सकता है। खरात कहते हैं कि इसके लिए हर देश से भारत की सीमा पर एक एक्सक्लूसिव मेडिकल जोन (EMZ) बनाया जाना चाहिए, जहां पड़ोसी देशों के नागरिक आकर अपना इलाज करा सकें। इसके लिए उन्हें दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों तक न आना पड़े और वे वहीं से इलाज कराकर लौट जाएं। यह कदम भारत की छवि को मजबूत करने की दिशा में महत्वपूर्ण होगा।
भारत के लिए आपदा में अवसर भी
उदय भास्कर ऐसे किसी सुझाव को प्राथमिकता देने की बात से सहमत नहीं हैं। वे कहते हैं कि भारत को सबसे पहले अपने घरेलू क्षमता निर्माण पर ध्यान देना चाहिए। इसकी मजबूती के बाद ही पड़ोसियों पर ध्यान दिया जाना चाहिए। मसलन जब तक भारत अपने उत्तरप्रदेश और बिहार जैसे राज्यों की जरूरतों को पूरा करने का काम नहीं करेगा, कोई भी दक्षिण एशियाई देश अपनी जरूरतों के लिए भारत पर आंख मूंद कर विश्वास नहीं कर सकेगा। लेकिन एक डर यह भी है कि जब चीन भारत-प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव लगातार बढ़ा रहा है, क्या भारत सिर्फ घरेलू समस्याओं पर ध्यान सीमित कर सकता है। हालांकि कोरोना के चलते घटे औद्योगिक उत्पादन और बढ़ी बेरोजगारी के बीच भारत के सामने रणनीतिक महत्वाकांक्षाएं सीमित करने के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
ऐसे हालात का चीन फायदा उठाने की कोशिश कर सकता है। हालांकि राजेश खरात मानते हैं कि चीन इस समय कोई गड़बड़ी नहीं करेगा, क्योंकि गलवान विवाद के बाद से ही भारत उसके खिलाफ पर्याप्त आक्रामक रहा है। चीनी आक्रामकता के अलावा भारत पर बाइडन प्रशासन के अंतर्गत अमेरिका से संबंधों को नई दिशा देने का दबाव भी है। जाहिर है कोरोना महामारी के बाद भारतीय विदेश नीति में काफी बदलाव होंगे। लेकिन जानकार इसमें आशा की एक किरण भी देखते हैं। उनके मुताबिक दक्षिण एशिया दुनिया के ऐसे इलाकों में शामिल है, जिसका अब तक सबसे कम एकीकरण हो सका है और कोरोना महामारी इसके लिए एक बड़ा अवसर पेश कर रही है। भारत चाहे तो इसकी शुरुआत कर सकता है।