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प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी मंत्रिपरिषद को भी महत्वहीन बना दिया

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अनिल जैन

, मंगलवार, 15 जून 2021 (15:49 IST)
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने दूसरे कार्यकाल के 2 वर्ष पूरे कर चुके हैं लेकिन इन 2 सालों में वे अपने मंत्रिपरिषद को भी पूरी तरह आकार नहीं दे पाए हैं। उनकी सरकार का तीसरा साल शुरू हो चुका है लेकिन अभी भी आधी-अधूरी मंत्रिपरिषद से ही काम चल रहा है। इसी वजह से कई कैबिनेट और स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री ऐसे हैं जिनके पास 2 और 3 से ज्यादा मंत्रालयों का दायित्व है। यह स्थिति बताती है कि प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद को कितना महत्व देते हैं और क्यों अधिकांश महत्वपूर्ण फैसले मंत्रिमंडल यानी कैबिनेट में चर्चा के बगैर प्रधानमंत्री अपने स्तर पर ही ले लिया करते हैं।
 
30 मई 2019 को नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरी बार शपथ ग्रहण की थी। उनके साथ शपथ लेने वाले अन्य 57 अन्य मंत्रियों में 24 कैबिनेट मंत्री, 9 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री और 24 राज्यमंत्री शामिल थे। पिछले 2 साल के दौरान इनमें से 2 मंत्रियों का निधन हो गया, जबकि 2 कैबिनेट मंत्रियों ने अपनी-अपनी पार्टियों के एनडीए से अलग हो जाने की वजह से मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया। इस प्रकार फिलहाल केंद्रीय मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित कुल 54 मंत्री हैं। संवैधानिक व्यवस्था के मुताबिक केंद्रीय मंत्रिपरिषद में 81 मंत्री हो सकते हैं यानी अभी मंत्रिपरिषद में 27 स्थान रिक्त हैं।
 
यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि 2 साल पहले जब प्रधानमंत्री मोदी ने जब अपनी मंत्रिपरिषद का गठन किया था तब यह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। इसमें भाजपा के अलावा लोक जनशक्ति पार्टी, शिव सेना और शिरोमणि अकाली दल का भी प्रतिनिधित्व था। हालांकि यह प्रतिनिधित्व नाममात्र का या औपचारिक ही था। यानी इन सहयोगी से दलों के 1-1 सदस्य को ही मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया था। लेकिन पिछले 1 साल के दौरान सरकार में सहयोगी दलों का यह नाममात्र का प्रतिनिधित्व भी खत्म हो चुका है।
 
लोक जनशक्ति पार्टी की ओर से मंत्री बने रामविलास पासवान का निधन हो चुका है, जबकि शिव सेना के अरविंद सावंत और अकाली दल की हरसिमरत कौर बादल अपनी-अपनी पार्टियों के एनडीए से अलग हो जाने के कारण इस्तीफा दे चुकी हैं। हालांकि कहने को इस सरकार में एक राज्यमंत्री रामदास अठावले रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के हैं। लेकिन वे भी राज्यसभा में भाजपा के कोटे से जीतकर आए हैं, क्योंकि महाराष्ट्र में उनकी अपनी पार्टी का कोई विधायक नहीं है।
 
हालांकि जनता दल (यू), ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक, असम गण परिषद और अपना दल जैसी क्षेत्रीय पार्टियां भी एनडीए का हिस्सा है, लेकिन इनकी सरकार में कोई हिस्सेदारी नहीं है। इस प्रकार अब यह एनडीए की नहीं बल्कि शुद्ध रूप से भाजपा की सरकार है, जिसे मोदी सरकार कहा जाता है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी मंत्रिपरिषद का विस्तार या उसमें फेरबदल कब करेंगे, यह सवाल अब भाजपा नेताओं के साथ ही उन नेताओं को भी परेशान करने लगा है, जो मंत्री बनने की आस लेकर कांग्रेस सहित अन्य दलों से भाजपा में शामिल हुए हैं। मंत्रिपरिषद में विस्तार की अटकलें लगाते-लगाते ये नेता अब थकने लगे हैं और इस बारे में बात करने से बचते हैं। कई नेताओं का इंतजार तो अब निराशा या अवसाद की हद तक पहुंच गया है।
 
लेकिन इस स्थिति को लेकर भाजपा से ही जुड़े दूसरे नेताओं का कहना है कि अमुक नेता मंत्री बनना चाहते हैं या अमुक नेता को मंत्री बनाने का वादा किया गया था, सिर्फ इसलिए मंत्रिपरिषद का विस्तार नहीं किया जा सकता। मतलब साफ है कि जिन्हें मंत्री बनना है, वे बैठे इंतजार करते रहें, जब सही समय आएगा तो विस्तार होगा।
 
अब सवाल है कि सही समय कब आएगा? अब तो केंद्र में दूसरी बार सरकार बनने के 2 साल का जश्न भी मना लिया गया है! पहले सरकार और सत्तारूढ दल के सूत्रों के हवाले से कहा जा रहा था कि सरकार के 2 साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद का विस्तार करेंगे। यही बात सरकार की पहली सालगिरह के कुछ दिनों पहले भी कही गई थी लेकिन सालगिरह से पहले ही देश में कोरोना महामारी शुरू हो चुकी थी, जो सालगिरह के समय चरम पर थी। तो ऐसे में सवाल है कि क्या महामारी की वजह से मंत्रिपरिषद का विस्तार नहीं हो रहा है?
 
भाजपा के ही कुछ जानकार नेता इस बात को खारिज करते हैं। उनका कहना है कि महामारी कोई वजह नहीं है। आखिर महामारी में बाकी सारे काम तो हो ही रहे हैं और धूमधाम से हो रहे हैं। कई राज्यों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव हुए हैं। वहां बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां हुई हैं। फिर जिस तरह उन राज्यों में मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह हुए हैं, उसी तरह केंद्र में भी मंत्रियों की शपथ कराई जा सकती है।
 
कुल मिलाकर मंत्रिपरिषद का विस्तार टालने की कोई वाजिब वजह नहीं है। फिर भी विस्तार नहीं हो रहा है तो इसका सीधा मतलब है प्रधानमंत्री ऐसा करना नहीं चाहते हैं यानी उन्हें अभी और मंत्रियों की जरूरत नहीं है। दूसरी बात यह भी है कि केंद्र में मंत्री बनाकर राज्यों की राजनीति साधने का भी समय अभी तक नहीं आया था। लेकिन अब वह समय करीब आ गया है।
 
उत्तरप्रदेश सहित सात राज्यों में अगले साल यानी कुछ महीनों बाद विधानसभा के चुनाव होना है। इसलिए माना जा रहा है कि चुनाव से पहले प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद का विस्तार निश्चित रूप से करेंगे। इस महीने या ज्यादा से ज्यादा अगले महीने संसद का मॉनसून सत्र शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री मोदी अपनी मंत्रिपरिषद का विस्तार और उसमें फेरबदल कर सकते हैं।
 
गौरतलब है कि इस समय सरकार में 1 दर्जन से ज्यादा मंत्री ऐसे हैं जिनके पास अपने मंत्रालय के अलावा 2 या 3 से ज्यादा मंत्रालयों का अतिरिक्त प्रभार है। मंत्रिपरिषद का विस्तार होने से ऐसे मंत्रियों की जिम्मेदारी का बोझ हल्का हो सकेगा। मंत्रिपरिषद का जब भी विस्तार होगा तो उसमें उत्तरप्रदेश का प्रतिनिधित्व बढने की संभावना है, क्योंकि एक तो वहां आगामी फरवरी-मार्च में विधानसभा के चुनाव होना है और दूसरे राज्य के मुख्यमंत्री के कामकाज के तौर-तरीकों से ब्राह्मण सहित कई जाति समूहों में नाराजगी है, इसलिए सामाजिक संतुलन साधने के लिए भी केंद्र में बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है।
 
इसके अलावा सूबे के मुख्यमंत्री की प्रधानमंत्री और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के साथ तनातनी की जो खबरें हाल ही में आई हैं, उसके मद्देनजर राज्य में भाजपा के अंदरुनी राजनीतिक समीकरणों को संतुलित करने तथा मुख्यमंत्री के समानांतर कुछ नए सत्ता-शक्ति केंद्र तैयार करने के लिए भी सूबे के कुछ नेताओं को केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है। इसके अलावा दूसरे दलों से भाजपा में शामिल हुए कुछ नेताओं को भी मंत्री बनाया जाना है और जनता दल (यू), अन्ना द्रमुक, अपना दल, लोक जनशक्ति पार्टी आदि कुछ सहयोगी दलों को भी सरकार में प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है। इसके अलावा ओडिशा के बीजू जनता दल और आंध्रप्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस जैसी पार्टियां जो कि संसद में हमेशा ही सरकार का साथ देती आ रही हैं, उन्हें भी औपचारिक तौर पर एनडीए में शामिल होने के लिए राजी कर सरकार में हिस्सेदारी दी जा सकती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मंत्रिपरिषद के विस्तार और उसमें फेरबदल की कवायद जब भी होगी तो उसका मकसद सरकार के कामकाज को गति देना या उसमें सुधार करना नहीं होगा बल्कि राजनीतिक लाभ-हानि और गुणा-भाग को ध्यान में रखा जाएगा।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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