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मणिपुर में नई रेलवे परियोजना से आजीविका खतरे में

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, सोमवार, 16 मार्च 2020 (15:44 IST)
रिपोर्ट प्रभाकर, कोलकाता
 
मणिपुर की राजधानी इंफाल को रेलवे नेटवर्क से जोड़ने की एक महात्वाकांक्षी परियोजना की वजह से राज्य में ईजेई नदी अपने वजूद के लिए लड़ रही है। इस नदी पर लगभग डेढ़ लाख लोगों की आजीविका टिकी है।
 
सरकार की एक्ट ईस्ट नीति के तहत पूर्वोत्तर राज्यों को देश के बाकी हिस्सों को रेलवे नेटवर्क के जरिए जोड़ने की यह परियोजना बीते 1 दशक से चल रही है। लेकिन पहले भूमि अधिग्रहण और उसके मुआवजे और उसके बाद पर्यावरण को होने वाले नुकसान के आरोपों की वजह से यह परियोजना शुरू से ही विवादों में रही है।
केंद्र सरकार की एक्ट ईस्ट नीति के तहत मणिपुर में सामान और यात्री परिवहन के लिए बनने वाली इस पहली ब्रॉड गेज लाइन की लंबाई 111 किलोमीटर है। इस लाइन के जरिए ही पूर्वोत्तर भारत को आसियान देशों से जोड़ा जाना है।
 
तामेंगलांग जिले के जिरीबाम से शुरू होकर यह रेलवे लाइन पहले चरण में नोनी जिले के टूपूल तक जाएगी। दूसरे चरण में यह 27 किमी दूर राजधानी इंफाल तक जाएगी। तीसरे और आखिरी चरण में यह सीमावर्ती शहर मोरे होते हुए म्यांमार के तामू तक जाएगी।
 
इस परियजोना के तहत सुरंगों और पुलों का निर्माण कार्य वर्ष 2012 में शुरू हुआ था। इसके लिए इस शांत पर्वतीय इलाके में भारी-भरकम मशीनों का शोर गूंजने लगा। मशीनों के इस शोर और इसकी वजह से तेज होने वाली गतिविधियों के चलते मणिपुर के नोनी जिले में बहने वाली ईजेई नदी प्रदूषित हो गई है। इससे इसमें पाई जाने वाली मछलियों की विभिन्न किस्में लापता हो गई हैं।
44 साल के पामेई टिंगेनलुंग बताते हैं कि हमारे देखते ही देखते नदी की तमाम मछलियां गायब हो गई हैं। पर्वतीय इलाके में खेती की खास सुविधा नहीं होने की वजह से यह नदी तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लगभग 1.50 लाख लोगों की रोजी-रोटी का प्रमुख जरिया है। लोग मछली पकड़कर ही अपना और परिवार का पेट पालते हैं। वे इसके लिए परियोजना को लागू करने वाली पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे को जिम्मेदार ठहराते हैं।
 
ईजेई, जिसे कुछ लोग ईजाई भी कहते हैं, मणिपुर के नागा-बहुल सेनापति, तामेंगलांग और नोनी जिले से होकर बहने वाली ईरांग की मुख्य सहायका नदी है। आगे चलकर दक्षिण में यह बराक नदी में मिल जाती है।
 
स्थानीय लोगों ने नदी में बढ़ते प्रदूषण का विरोध करने के लिए कुछ साल पहले ईजेई नदी विकास समिति का गठन किया था। लेकिन बाद में आपसी विवाद की वजह से यह समिति हाथ पर हाथ धरे बैठ गई। इसके अध्यक्ष चामरेई कामेई बताते हैं कि पहले तो जमीन अधिग्रहण को लेकर विवाद हुआ और उसके बाद उसके मुआवजे की दर पर। आपसी समस्याओं में लोगों के उलझने की वजह से समिति का विरोध परवान नहीं चढ़ सका।
कामेई का कहना है कि कुछ साल पहले तक नदी का पानी इतना साफ था कि उसे पीने में कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन अब निर्माण की वजह से पैदा होने वाला कचरा और प्रदूषित पानी कई जगह सीधे नदी में प्रवाहित होता है। सुरंगों को बनाने के लिए सीमेंट के साथ केमिकल भी मिलाया जाता है। इससे पानी काफी प्रदूषित हो गया है। उनका दावा है कि इस पानी से सिंचाई होने की वजह से धान के खेत भी प्रदूषित हो गए हैं।
 
अपनी दलीलों के समर्थन में वे राज्य के कृषि विभाग के आंकड़ों का हवाला देते हैं। चामेई बताते हैं कि वर्ष 2016-17 में तामेंगलांग व नोनी जिलों में प्रति हैक्टेयर 1.51 मीट्रिक टन धान की पैदावार हुई थी, जो वर्ष 2017-18 के दौरान घटकर 1.08 मी. टन रह गई। समिति ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में भी इस मामले की शिकायत की थी। प्राधिकरण ने संबंधित पक्षों को हलफनामा देने का आदेश दिया था लेकिन वर्ष 2017 के बाद इस मामले की सुनवाई नहीं हुई है।

 
विडंबना यह है कि सुदूर इलाके में होने की वजह से मीडिया में भी इस समस्या को खास तवज्जो नहीं मिली है। इसकी बजाय स्थानीय मीडिया में 141 मीटर ऊंचे एक प्रस्तावित पुल को कवरेज देते हुआ कहा जा रहा है कि यह विश्व का सबसे ऊंचा गर्डर पुल होगा। इससे इलाके में पर्यटकों की तादाद बढ़ेगी।
 
दूसरी ओर, मणिपुर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे और रेल मंत्रालय ने इन आरोपों को निराधार बताया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कहा है कि नदी की पानी की गुणवत्ता की निगरानी के लिए नोनी बाजार स्थित केंद्र के जरिए पानी की नियमित रूप से निगरानी की जाती है। उक्त परियोजना विभिन्न वजहों से पटरी से उतरती रही है। कभी आर्थिक नाकेबंदी से तो कभी उग्रवादी या गैरसरकारी संगठनों की अपील पर होने वाले दीर्घकालीन बंद से।
 
मणिपुर में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने नवंबर 2018 में इस परियोजना का पहला चरण 2020 तक पूरा होने का दावा किया था। पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे ने हाल में अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इस परियोजना की अनुमानित लागत बीते 5 साल में बढ़कर 12,524 करोड़ तक पहुंच गई है।
 
एक सामाजिक कार्यकर्ता ओ. सुनील कहते हैं कि इस परियोजना से पर्यावरण और नदी को होने वाले नुकसान की कहीं कोई चर्चा तक नहीं है। इसकी वजह से स्थानीय लोगों को भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माण कार्यों के कारण इलाके में जमीन धंसने का खतरा बढ़ गया है। पहले ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। लेकिन किसी के कानों पर कोई जूं तक नहीं रेंगती। (फ़ाइल चित्र)

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