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प्रमोशन में आरक्षण का आधार कौन तय करेगा

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, शनिवार, 25 अगस्त 2018 (12:19 IST)
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ उस याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें एससी एसटी की 'क्रीमी लेयर' को प्रमोशन में आरक्षण का लाभ न देने की मांग की गई है। लेकिन केंद्र सरकार इसका विरोध कर रही है।
 
 
संविधान पीठ के जजों ने केंद्र की ओर बहस कर रहे महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल से पूछा है कि आखिर 'क्रीमी लेयर' को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। संविधान पीठ ने कहा कि, "माना ‘X' इस आरक्षण की बदौलत राज्य का मुख्य सचिव बन जाता है। अब क्या ये तार्किक होगा कि उसे या उसके परिवार के सदस्यों को प्रमोशन में आरक्षण देने के लिए पिछड़ा माना जाए जिससे उसे तीव्र गति से वरिष्ठता मिल जाएगी?' सुप्रीम कोर्ट ने मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अगुवाई में संविधान पीठ गठित की है जिसमें जस्टिस नरीमन, जस्टिस कुरियन जोसेफ, जस्टिस एसके कौल और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
 
 
2006 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर के तहत पदोन्नतियों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है लेकिन एससी एसटी मामले में आरक्षण का लाभ बना हुआ है। कोर्ट ने प्रमोशन देने के साथ जो तीन शर्ते जोड़ी थी वे हैं- पिछड़ेपन की पहचान, अपरिहार्य वजहें, और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व। अगर इन तीन आधारों पर आरक्षण जायज है तो ही इसका लाभ दिया जाए। अब सरकार चाहती है कि अदालत अपने इस फैसले पर फिर से विचार करे। क्योंकि उसका कहना है कि पिछड़ेपन का परीक्षण करना जरूरी नहीं है। उसके मुताबिक प्रत्येक मामले में इन शर्तों का अनुपालन 'अंसभाव्यता की परिस्थिति' है।
 
 
केंद्र सरकार एससी एसटी सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रमोशन में 22.5 प्रतिशत आरक्षण रखना चाहती है। इस दलील के पीछे दृष्टिकोण ये है कि दलित जातियां हजारों वर्षों के दमन और उत्पीड़न की वजह से पिछड़ी हुई रही हैं। उसका मानना है कि 'सकारात्मक कार्रवाई' के लिए ये व्यवस्था बनी रहनी चाहिए। इस साल पांच जून को अपने एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को एससी एसटी संवर्ग के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण देने की मंजूरी दे दी थी। लेकिन इस बीच ये मामला संविधान पीठ के पास सुनवाई के लिए आ गया लिहाजा पुराना आदेश अभी प्रभावी नहीं है।
 
 
आर्थिक उदारवाद के हाशियों में ही वृहद दलित समाज रहा है। आरक्षण से कुछ सशक्तीकरण आया है लेकिन इसके विपरीत दलितों पर बैकलैश की घटनाएं भी बढ़ी है। दलितों के प्रति सवर्णों के एक बड़े हिस्से में दुराव और नफरत देखी जाती है जिन्हें लगता है कि दलित उनके अवसरों को हथिया रहे हैं। जातीय श्रेष्ठता की ग्रंथि, ब्राह्मणवादी मानसिकता भी अपना काम करती है। सच्चाई यही है कि वंचित समूहों को अभी मुकम्मल भागीदारी नहीं मिल पाई है। नौकरियों की ही बात करें तो आईएस, आईपीएस और आईएफएस जैसी सर्वोच्च सिविल सेवाओं में एससी, एसटी और ओबीसी अधिकारियों की संख्या निर्धारित कोटे से कम है। 2011 के एक आंकड़े के मुताबिक, 3251 प्रत्यक्ष भर्ती वाले आईएएस अधिकारियों में से एससी अधिकारी 13.9 %, एसटी 7.3 % और ओबीसी 12.9 % थे। बड़े पैमाने पर आरक्षित पद भरे नहीं गए हैं।
 
 
आंकड़े बताते हैं हायरार्की यानी पदानुक्रम में जैसे जैसे सीढ़ी चढ़ते हैं तो एससी एसटी कर्मचारियों की संख्या घटती जाती है। ग्रुप ए में सिर्फ 11.1 फीसदी एससी हैं और 4.6 एसटी. ग्रुप बी में 14.3 और 5.5 प्रतिशत हैं, ग्रुप सी में एससी 16 फीसदी और एसटी 7.8 फीसदी. ग्रुप डी में एससी 19.3 फीसदी और एसटी 7 फीसदी हैं।


ग्रुप डी में अधिक संख्या में एससी एसटी कर्मचारी इसलिए हैं क्योंकि 40 फीसदी 'सफाई कर्मचारी' एससी हैं। तो यहां पर आकर सारा सामाजिक तानाबना और सामाजिक न्याय की पुकारें ढीली पड़ जाती हैं। ये दिखता है कि आरक्षण की व्यवस्था भी पूरा न्याय नहीं कर पा रही है। इसी तरह 2015 में एक आरटीआई के जवाब में पाया गया कि केंद्र सरकार की नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण के बावजूद 12 प्रतिशत से भी कम ओबीसी कर्मचारी हैं। नियुक्ति देने वाले कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग में भी हालात शोचनीय हैं। वहां करीब 13 प्रतिशत एससी, 4 प्रतिशत एसटी और 6.67 प्रतिशत ओबीसी कर्मचारी तैनात हैं।
 
 
सामाजिक हालात भी देखें। आंकड़े बताते है कि पिछले दस साल में दलितों (एससी, एसटी) के खिलाफ अपराध 66 फीसदी की दर से बढ़े हैं। सच्चर कमेटी की सिफारिशों की समीक्षा और अमल के लिए गठित कुंडु समिति ने ग्रामीण इलाकों में दलितों की बदहाली को रेखांकित किया है। दलितों की साक्षरता दर सुधरी है। लेकिन सामान्य वर्ग की 74 फीसदी साक्षरता के मुकाबले उनकी दर 66 फीसदी ही है। लाभ भी पूरा नहीं मिल पा रहा है। सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित छात्रों के नामांकन की दर पहले के मुकाबले कुछ सुधरी है लेकिन ये अपेक्षित दर नहीं है।


एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट, 2011 के मुताबिक शिक्षा के निजीकरण का सबसे ज्यादा नुकसान दलितों को हुआ है क्योंकि उनके बच्चे महंगी शिक्षा से वंचित हुए हैं। सोशियो इकोनमिक कास्ट सेंसस नाम की संस्था का सर्वे है कि अनुसूचित जाति के परिवारों में सिर्फ 0.73 फीसदी घरों में कोई सदस्य सरकारी नौकरी पर है। तो 'क्रीमी लेयर' बनने की नौबत तो बने। जो है वो लेयर नहीं एक धुंधलका ज्यादा प्रतीत होता है।
 
 
समयबद्ध आरक्षण और एक निश्चित अंतराल पर उसकी समीक्षा की जरूरत है। आज किसी सर्वमान्य और व्यापक डाटा का अभाव है। आरक्षण के दायरे में आने वाले समुदायों और जातियों को लेकर एक निर्णायक व्यवस्था बननी ही चाहिए। वरना आरक्षण की मांग के आंदोलन पनपते ही रहेंगे। और इस संवैधानिक अधिकार का मखौल बनाया जाता रहेगा। एक देशव्यापी सोशल ऑडिट इस दिशा में कराया जा सकता है और उसके बाद सर्वदलीय सम्मति बननी चाहिए। जाहिर है ये टेढ़ी खीर है लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति हो और वोटलोलुप राजनीति पर काबू पाया जा सके तो ये संभव हो सकता है।

राजनीतिक अवसरवाद ने भी दलितों को अपना शिकार बनाया है। राजनीतिक स्तर पर न्यायसंगत, विवेकसम्मत और संविधानसम्मत समाधान की जरूरत है। राजनीतिक दलों को भी अपने कैडर और वोटर को ये यकीन दिलाना चाहिए और इसके लिए क्लास लगानी चाहिए कि आरक्षण क्यों जरूरी है और आरक्षण से किसी सवर्ण के लिए अवसर नहीं घट रहे हैं- अवसरों की कमी की वजहें सरकारों की नीति क्रियान्वयन प्रक्रियाओं में छिपी हैं।
 
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 

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