अपने पर्वतीय भूगोल और सांस्कृतिक पहचान की बदौलत उत्तराखंड को अलग राज्य बना था। लेकिन आज ये पहचान खतरे में है। गांव के गांव निर्जन हो रहे हैं और बड़े पैमाने पर लोग पलायन कर मैदानी इलाकों का रुख कर चुके हैं।
सामाजिक स्तर पर पलायन ने और राजनैतिक स्तर पर आबादी के लिहाज से हुए परिसीमन ने उत्तराखंड से उसका पर्वतीय स्वरूप एक तरह से छीन लिया है। 70 सीटों वाली राज्य विधानसभा में राज्य के नौ पर्वतीय जिलों को जितनी सीटें आवंटित हैं उससे कुछ ज्यादा सीटें राज्य के चार मैदानी जिलों के पास हैं। राज्य का पर्वतीय भूगोल सिकुड़ चुका है। 2011 के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं कि राज्य के करीब 17 हजार गांवों में से एक हजार से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। 400 गांवों में दस से कम की आबादी रह गई है। 2013 की भीषण प्राकृतिक आपदा ने तो इस प्रक्रिया को और तेज कर दिया है और पिछले तीन साल में और गांव खाली हुए हैं। हाल के अनुमान ये हैं कि ऐसे गांवों की संख्या साढ़े तीन हजार पहुंच चुकी है, जहां बहुत कम लोग रह गए हैं या वे बिल्कुल खाली हो गए हैं।
पलायन की तीव्र रफ्तार का अंदाजा इसी से लगता है कि आज जब राज्य के चौथे विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं तो ऐसे में कई पहाड़ी गांवों में मतदाता ही नहीं हैं। एक मीडिया खबर के मुताबिक कुमाऊं के चंपावत जिले के 37 गांवों में कोई युवा वोटर ही नहीं है। सारे वोटर 60 साल की उम्र के ऊपर के हैं। और ये बुजुर्ग आबादी भी गिनी चुनी है। एक गांव में बामुश्किल 60-70 की आबादी रह गई है। अनुमान है कि पिछले 16 वर्षों में करीब 32 लाख लोगों ने अपना मूल निवास छोड़ा है। युवा वोटरों की किल्लत से जूझ रहे गांवों के बनिस्पत शहरों में युवा वोटरों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस समय करीब 75 लाख मतदाताओं में से 56 लाख ऐसे वोटर हैं जिनकी उम्र 50 साल से कम है। इनमें से करीब 21 लाख लोग 20-29 के आयु वर्ग में हैं और करीब 18 लाख 30-39 के वर्ग में हैं।
साफ है कि युवा आबादी गांवों से कमोबेश निकल चुकी है। बेहतर शिक्षा, बेहतर रोजगार और बेहतर जीवन परिस्थितियों के लिए उनका शहरी और साधन संपन्न इलाकों की ओर रुख करना लाजिमी है। पहाड़ों में फिर कौन रहेगा। गांव तेजी से खंडहर बन रहे हैं, रही सही खेती टूट और बिखर रही है। कुछ प्राकृतिक विपदाएं, बुवाई और जुताई के संकट, कुछ संसाधनों का अभाव, कुछ माली हालत, कुछ जंगली सुअरों और बंदरों के उत्पात और कुछ शासकीय अनदेखियों और लापरवाहियों ने ये नौबत ला दी है। पहाड़ों में जैसे तैसे जीवन काट रहे लोग अपनी नई पीढ़ी को किसी कीमत पर वहां नहीं रखना चाहते। चाहे वे किसान हों या साधारण कामगार या फिर सरकारी कर्मचारी जैसे शिक्षक डॉक्टर या किसी अन्य विभाग के कर्मचारी।
पहाड़ी जीवन को गति देने के लिए, उसमें नई ऊर्जा भरने के लिए और गांवों को फिर से आबाद करने के लिए होना तो ये चाहिए था कि सरकारें बहुत आपात स्तर पर इस पलायन को रोकती। दुर्गम इलाकों को तमाम बुनियादी सुविधाओं से लैस कर कुछ तो सुगम बनाती। खेत हैं लेकिन बीज नहीं, हल, बैल, पशुधन सब गायब। स्कूल हैं तो भवन नहीं, भवन हैं तो टीचर कम, पाइपलाइनें हैं तो पानी कम, बिजली के खंभे हैं तो बिजली नहीं। अस्पताल हैं तो दवाएं उपकरण और डॉक्टरों का टोटा। ये किल्लत भी जैसे पहाड़ की नियति बन गई है। ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में पलायन इन 16 वर्षों की ही समस्या है। काफी पहले से लोग रोजीरोटी के लिए मैदानों का रुख करते रहे हैं। एक लाख सर्विस मतदाता इस राज्य में है। यानी जो सेना, अर्धसैनिक बल आदि में कार्यरत है। ये परंपरा बहुत पहले से रही है। युवा भी अपने अपने वक्तों में बाहर ही निकले हैं। लेकिन अगर वे इतने बड़े पैमाने पर गांवों के परिदृश्य से गायब हुए हैं तो ये सोचने वाली बात है कि क्या वे सभी उस सुंदर बेहतर जीवन को हासिल कर पाएं होंगे जिसकी कामना में वे अपने घरों से मैदानों की ओर निकले होंगे। इस मूवमेंट का, उसके नतीजों का अध्ययन किया जाना जरूरी है।
ये दलील बेतुकी है पहाड़ी इलाकों में सुविधाएं पहुंचाना दुष्कर काम है। उत्तराखंड के पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश का उदाहरण हमारे सामने है। उसने उन्हीं चीजों में अपनी पहचान और समृद्धि का निर्माण किया है जिनका संबंध विशुद्ध पर्वतीयता से है। जैसे कृषि, बागवानी, पनबिजली, पर्यटन, कला आदि। उत्तराखंड में क्या ये संभव नहीं हो सकता था? आज अगर बूढ़े अकेले छूट गए हैं या गांव भुतहा हो चले हैं तो इसकी जिम्मेदारी किस पर आती है। क्या उन जगहों को छोड़ कर जाने वालों पर या उन लोगों पर जो इस भूगोल के शासकीय नियंता और नीति निर्धारक चुने गए हैं। महात्मा गांधी ने कहा था, भारत की आत्मा गांवों में बसती है। लेकिन जब गांव ही नहीं रहेंगे तो ये आत्मा बियाबान में ही भटकेगी।