Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

बड़े प्रोजेक्ट से बेहतर हैं छतों पर लगे सोलर पैनल

हमें फॉलो करें बड़े प्रोजेक्ट से बेहतर हैं छतों पर लगे सोलर पैनल

DW

, शनिवार, 11 सितम्बर 2021 (16:31 IST)
रिपोर्ट : अविनाश द्विवेदी
 
भारत जुलाई, 2021 तक रूफटॉप सोलर से सिर्फ 5.1 गीगावॉट ऊर्जा का ही उत्पादन कर रहा था। जो साल 2022 तक रूफटॉप सोलर से 40 गीगावॉट बिजली उत्पादन के लक्ष्य का सिर्फ 13% ही है। ऐसे में अब यह लक्ष्य पूरा करना संभव नहीं लग रहा है।
 
दुनिया 2022 की ओर तेजी से बढ़ रही है और इसी के साथ भारत का रूफटॉप सोलर यानी छतों पर लगे सोलर पैनल के जरिए 40 गीगावॉट बिजली उत्पादन का लक्ष्य असंभव नजर आने लगा है। भारत सरकार ने यह सपना 2015 में देखा था और यह 175 गीगावॉट के उस रिन्यूएबल एनर्जी उत्पादन कार्यक्रम का हिस्सा था जिसे 2022 तक पूरा किया जाना था।
 
बाद में इस लक्ष्य को बदलकर साल 2030 तक 450 गीगावॉट ग्रीन एनर्जी उत्पादन कर दिया गया। अब तक भारत 100 गीगावॉट से ज्यादा की ग्रीन एनर्जी उत्पादन क्षमता हासिल कर चुका है जिसका ज्यादातर हिस्सा (करीब 78 फीसदी) बड़े पवन और सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट से आ रहा है। लेकिन जुलाई, 2021 तक भारत रूफटॉप सोलर के जरिए सिर्फ 5.1 गीगावॉट ऊर्जा ही उत्पादित कर रहा था।
 
यह निर्धारित लक्ष्य का मात्र 13 फीसदी है। यानी बड़े सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट के मामले में तेजी से आगे बढ़ रहा भारत रूफटॉप सोलर के मामले में पिछड़ रहा है। वह भी ऐसा तब हो रहा है, जब बड़े सौर और पवन ऊर्जा के प्रोजेक्ट कई तरह के प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं। इस प्रतिरोध की कई वजहें हैं।
 
पानी और पर्यावास का संकट
 
बड़े सोलर फार्म में पैनल को सुरक्षित रखने के लिए बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है। भारत के कई इलाकों में पानी की भारी कमी है। जानकार कहते हैं, ऐसे इलाकों में लगे सोलर प्लांट चिंता का सबब हो सकते हैं। इसके अलावा ऐसे प्रोजेक्ट के लिए स्थानीयों का विस्थापन या किसी विशेष भू-भाग पर आर्थिक निर्भरता वाले समूहों पर पड़ने वाला प्रभाव भी चिंता बढ़ाता है।
 
इतना ही नहीं जमीन पर सोलर पैनल लगाने के लिए वहां के पेड़-पौधों या घास को हटाया जाता है जिससे उस जगह का पर्यावास बदल जाता है। स्थानीय छोटे-बड़े जानवरों और पक्षियों को इससे नुकसान पहुंचता है। इस तरह के खतरे का एक बड़ा उदाहरण ग्रेट इंडियन बस्टर्ड नाम का पक्षी है जिस पर राजस्थान में लगे रिन्यूएबल एनर्जी प्रोजेक्ट्स के चलते खतरा मंडरा रहा है।
 
वेस्टलैंड को खतरा
 
जानकार कहते हैं कि एक डर इन प्रोजेक्ट्स के लिए गलत भू-भाग के चयन का भी है, जैसे वेस्टलैंड। भारत में घास और झाड़ियों के कई पुराने मैदान इसके अंतर्गत हैं। जानकार बताते हैं कि भले ही ये बहुत सामान्य लगें लेकिन ये बहुत से जंगलों से भी पुराने हैं, और पर्यावरण के लिए बहुमूल्य हैं।
 
साल 2019 में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि इन इलाकों से 8400 वर्ग किमी भूभाग को साल 2008-09 से 2015-16 के बीच नॉन-वेस्टलैंड क्लास में डाल दिया गया है। वह भी पर्यावरणविदों के इस दावे के बावजूद कि यहां घास के मैदानों के अलावा भारत के अर्द्ध-शुष्क प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र का भी बहुत बड़ा हिस्सा बसता है।
 
वेस्टलैंड से अलग हुए इन भूभागों पर ग्रीन एनर्जी प्रोजेक्ट लगाए जा रहे हैं। हाल ही इन मैदानों पर स्टडी करने वाले एमडी मधुसूदन और अबी वानक वेस्टलैंड से जुड़े अपने एक रिसर्च पेपर में लिखते हैं, 'भारत के बड़े स्तर पर रिन्यूएबल एनर्जी तकनीकी के मामले में अंतरराष्ट्रीय नेता बनने की भूमिका ने हाल के सालों में खुले प्राकृतिक पर्यावास को विंडबनापूर्ण तरीके से एक बड़े खतरे में डाला है।'
 
रूफटॉप सोलर सही विकल्प
 
ऐसे हालात में कई पर्यावरण कार्यकर्ता सुझाते हैं कि भारत को बड़े सौर ऊर्जा प्रोजेक्ट के बजाए रूफटॉप सोलर पर जोर देना चाहिए। शुरुआत में रूफटॉप सोलर में तेज बढ़ोतरी देखी भी गई थी। साल 2019 में आई इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकॉनमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस की एक रिपोर्ट के मुताबिक रूफटॉप सोलर भारत में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ रहा ग्रीन एनर्जी सोर्स था।
 
भारत में यह 2012 से 2019 के बीच सालाना 116 फीसदी की दर से बढ़ा। लेकिन फिर यह सुस्त पड़ गया। बड़े स्तर पर इसके लिए तकनीक उपलब्ध कराने वाली ज्यादातर कंपनियों का मत है कि भले ही रूफटॉप सोलर फिलहाल शुरुआती दौर में है, लेकिन इसमें बड़े बदलावों की संभावना है। तेजी से इनोवेशन के जरिए सोलर पैनल को और प्रभावी बनाया जा सकता है। जिससे लोग इसे तेजी से अपनाएं।
 
कई सारी रुकावटें
 
हालांकि जानकार इसमें कई रुकावटें भी देखते हैं। भारत में बिजली के बारे में कानून बनाने का अधिकार राज्यों को है। राजनीतिक लाभ पाने के लिए राज्य सोलर जैसे किसी बदलाव को जबरदस्ती लागू कराने से हिचकते हैं। फिर कोविड के चलते भी रूफटॉप का प्रसार प्रभावित हुआ है। एक समस्या नियमों को लेकर अनिश्चितता की भी है। नेट मीटरिंग बनाम ग्रॉस मीटरिंग ने भी गड़बड़ी पैदा की है।
 
नेट मीटरिंग में सोलर एनर्जी के घरेलू और व्यावसायिक उत्पादकों को अपने अतिरिक्त ऊर्जा उत्पादन को वापस ग्रिड को बेचने की सुविधा मिलती है। और जितनी ऊर्जा वे ग्रिड को बेचते हैं, उसे उनके बिजली के बिल में कम कर दिया जाता है। जबकि ग्रॉस मीटरिंग में उनके जरिए उत्पादित कुल बिजली के लिए एक निश्चित टैरिफ चुकाया जाता है, इसके अलावा उन्हें खुद उपयोग की गई बिजली के लिए पैसा बिजली वितरण कंपनी को देना होता है।
 
आर्थिक मदद से बदलाव
 
जानकार कहते हैं, लोगों को महंगे रूफटॉप सोलर पर छूट मिलनी चाहिए। इसके अलावा डिस्कॉम की ओर से भुगतान में अनिश्चितता को दूर किए जाने की जरूरत भी है। सोलर पैनल लगाने में आने वाले भारी खर्च के लिए फंडिंग के विकल्पों की कमी भी चिंता की बात है क्योंकि रूफटॉप सोलर लगाने का खर्च अब भी बहुत ज्यादा है।
 
आईआईटी बॉम्बे में डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी साइंस एंड इंजीनियरिंग के हेड रंगन बनर्जी मानते हैं, 'दूरदर्शी होकर सोचें तो यह सामान्य बिजली से काफी सस्ता है।' फिर भी शुरुआती बड़ा निवेश रूफटॉप के लिए एक रुकावट होता है। लगभग सभी जानकार इस बात पर सहमत हैं कि अगर इसके लिए आर्थिक मदद दी जा सके तो भारत में इसे अपनाने की रफ्तार तेज की जा सकती है। रंगन बनर्जी कहते हैं, 'रूफटॉप को बढ़ावा देने के लिए सरकार को इसके अनुकूल नीतियां बनाने और ऐसी कंपनियों को बढ़ावा देने की जरूरत है, जो इस दिशा में काम कर रही हैं।'
 
ट्रांसपोर्टेशन का खर्च बचेगा
 
जानकार कहते हैं कि बड़े सोलर प्रोजेक्ट के बजाए रूफटॉप सोलर लगाना आर्थिक तौर पर भी सही है। बड़े उद्योगों, गोदामों और सरकारी कार्यालयों की छतें बड़ी होती हैं जिनका इस्तेमाल सोलर पैनल लगाने में किया जाना चाहिए। ये सभी जगहें उपभोक्ताओं के ज्यादा नजदीक होंगी।
 
फिर भी ऐसा करने के बजाए सैकड़ों मील दूर देश के दूर-दराज इलाकों में 100 से 500 मेगावॉट के सोलर फार्म बनाए जा रहे हैं। ऐसा एक बार में ज्यादा उत्पादन के लिए किया जाता है। लेकिन अगर सरकारी इमारतों और गोदामों को इस काम में लाएं तो बिजली के ट्रांसपोर्टेशन में आने वाला भारी खर्च भी बचाया जा सकेगा। इस तरह से बिजली खुद ही ग्राहकों के पास आ जाएगी और उसके ट्रांसमिशन और वितरण पर होने वाले भारी नुकसान की बचत होगी।
 
अच्छी बैटरी का बड़ा रोल
 
इसके साथ ही ग्राहक बैटरियों के जरिए इस बिजली को स्टोर भी कर सकते हैं जिससे बिजली वितरण कंपनियों पर उनकी निर्भरता भी कम होगी। बिजली वितरण कंपनियों का मूलभूत ढांचे के निर्माण पर होने वाला भारी खर्च भी इससे बचेगा। रंगन बनर्जी भी इसे एक जरूरी बदलाव मानते हैं ताकि पूरे दिन बिजली की आत्मनिर्भरता हासिल की जा सके।
 
हालांकि जानकार यह भी कहते हैं कि रूफटॉप सोलर के ज्यादा सुविधाजनक और तर्कसंगत होने का यह मतलब नहीं है कि बड़े सोलर प्रोजेक्ट पूरी तरह खत्म कर दिए जाने चाहिए। यह भी बहुत उपयोगी हैं, जब तक ये सही जगहों पर लगाए जाएं, जैसे छोड़ी जा चुकी खदानों पर।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

9/11 हमले के बाद वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के जल्दी गिरने के दो कारण