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इतना दिलचस्प और चर्चित क्यों हो गया है उपराष्ट्रपति का चुनाव

भारत में उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान में दो प्रमुख गठबंधनों के उम्मीदवार आमने-सामने हैं। चुनाव में उम्मीदवारों की जीत-हार से ज्यादा चर्चा चुनाव के कारणों की हो रही है, जिसका असर चुनावी नतीजों पर भी दिख सकता है।

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, मंगलवार, 9 सितम्बर 2025 (07:54 IST)
-समीरात्मज मिश्र
इस साल 21 जुलाई को संसद के मॉनसून सत्र की शुरुआत हुई थी और उसी दिन शाम को राज्यसभा के तत्कालीन सभापति जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देते अचानक उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया था। भारत की राजनीति में इस इस्तीफे से उबाल आ गया। उपराष्ट्रपति, राज्यसभा के पदेन सभापति होते हैं। उनके इस्तीफे की वजह से ये चुनाव हो रहा है और चुनाव में धनखड़ के इस्तीफे की वजह एक प्रमुख चुनावी मुद्दे की तरह तैर रही है।
 
उपराष्ट्रपति पद के चुनाव के लिए अधिसूचना जारी होते ही भारतीय जनता पार्टी ने सीपी राधाकृष्णन को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतार दिया। उस वक्त राधाकृष्णन महाराष्ट्र के राज्यपाल थे। तमिलनाडु के कोयंबटूर से आने वाले राधाकृष्णन बीजेपी के पुराने नेता हैं और आरएसएस की पृष्ठभूमि से आते हैं।
 
बीजेपी की इस घोषणा को इसलिए एक बड़ा मास्टरस्ट्रोक समझा गया क्योंकि इसके जरिए तमिलनाडु के सियासी समीकरणों को साधने की एक और कोशिश की गई थी। बीजेपी दक्षिण भारत के इन सुदूर इलाकों में प्रवेश करने की जोरदार कोशिशें कर रही है लेकिन सफलता नहीं मिल रही है। अगले साल तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव हैं। साल 2021 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने चार सीटों पर जीत हासिल की थी और एआईएडीएमके तमिलनाडु में उसकी सहयोगी पार्टी है।
 
दक्षिण में प्रभाव बढ़ाने की बीजेपी की कोशिश
वरिष्ठ पत्रकार संजय झा कहते हैं, "प्रधानमंत्री मोदी लंबे समय से तमिलनाडु में पार्टी की जमीन मजबूत करने में लगे हैं लेकिन तमिलनाडु की राजनीतिक तासीर बीजेपी के अनुकूल नहीं है। संसद में सेंगोल स्थापित करना, अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में काशी-तमिल संगम का आयोजन, तमिलनाडु के अभिनेताओं को बड़े पुरस्कार देना, ऐसे कई दांव कामयाब नहीं हुए और सीपी राधाकृष्णन की उम्मीदवारी भी उन्हें तमिलनाडु में कोई राजनीतिक लाभ नहीं दिलाने वाली। यहां तक कि तमिलनाडु से राधाकृष्णन के पक्ष में भी कोई बहुत फायदा नहीं मिलने वाला है क्योंकि संघ की पृष्ठभूमि क्षेत्रीय अस्मिता पर ज्यादा भारी पड़ रही है।”
 
इस बात की पुष्टि आज डीएमके सांसद कनिमोझी ने भी कर दी और न्यूज एजेंसी एएनआई से बातचीत में साफ किया कि इस मामले में किसी तरह का कोई भ्रम नहीं है। उनका कहना था, "यह एक वैचारिक लड़ाई है और लोकतंत्र की लड़ाई है। किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं है।”
 
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एनडीए के खेमे में बेचैनी
बीजेपी की इस उम्मीदवारी से एनडीए के कुछ घटक दलों में भी बेचैनी है। जनता दल यूनाइटेड को उम्मीद थी कि शायद इस पद के लिए उनकी पार्टी के उम्मीदवार को मौका मिल जाए। मौजूदा उपसभापति जेडीयू के ही कोटे से राज्यसभा में हैं और फिर आने वाले दिनों में बिहार में चुनाव भी हैं। लेकिन जेडीयू और बिहार दोनों को ही निराशा हाथ लगी।
 
वहीं, इंडिया गठबंधन ने भी जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश बी सुदर्शन रेड्डी की उम्मीदवारी की घोषणा की, उससे यह चुनाव दक्षिण भारत के ही दो नेताओं के बीच आकर सिमट गया। अब एनडीए के सहयोगियों, खासकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना की पार्टियों पर क्षेत्रीय अस्मिता का दबाव बढ़ता नजर आ रहा है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता रेवंत रेड्डी जिस तरह से आंध्र और तेलंगाना की राजनीतिक पार्टियों को साधने में लगे हैं और असदुद्दीन ओवैसी ने भी इंडिया गठबंधन में ना होते हुए भी जिस तरह से रेड्डी का समर्थन किया है, उससे इन पार्टियों पर दबाव और बढ़ गया है।
 
असदुद्दीन ओवैसी ने सोशल मीडिया साइट एक्स पर लिखा है, "तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने मुझसे बात की और अनुरोध किया कि हम जस्टिस सुदर्शन रेड्डी को उपराष्ट्रपति पद के लिए समर्थन दें। एआईएमआईएम जस्टिस रेड्डी का समर्थन करेगी, जो हमारे हैदराबादी साथी हैं और एक सम्मानित न्यायविद हैं।”
 
चुनाव में किसका पलड़ा भारी?
संख्या के लिहाज से देखा जाए तो एनडीए गठबंधन का ना सिर्फ पलड़ा भारी है बल्कि इतना भारी है कि वो आसानी से अपने उम्मीदवार को चुनाव जितवा सकती है। हालांकि एनडीए के घटक दलों की दुविधा और बीजेपी के भीतर क्रॉस वोटिंग की आशंकाओं ने बीजेपी नेतृत्व की परेशानी को बढ़ा दिया है। बताया गया है कि प्रधानमंत्री की मौजूदगी में एनडीए सांसदों के लिए रविवार को हुई कार्यशाला में कई सांसद नहीं पहुंचे।
 
यही नहीं, पिछले दिनों दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के चुनाव में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के समर्थक उम्मीदवार संजीव बालियान की बीजेपी के ही उम्मीदवार राजीव प्रताप रूडी के मुकाबले जो हार हुई, उसकी आशंका बीजेपी को इस चुनाव में भी दिखाई दे रही है।
 
यही नहीं, जगदीप धनखड़ को जिस तरह से इस्तीफा देना पड़ा है जो चुनाव से पहले फिर चर्चा में है, वह मुद्दा भी काफी हावी दिख रहा है। न्यूज एजेंसी एएनआई से बातचीत में शिवसेना (यूटी) सांसद संजय राउत कहते हैं, "उपराष्ट्रपति पद का चुनाव, देश के संविधान की रक्षा के लिए है। हमारे पूर्व उपराष्ट्रपति कहां हैं या किस हालत में हैं, यह नहीं पता। जब तक जगदीप धनखड़ सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज नहीं कराते हैं। तब तक हम यह सवाल पूछते रहेंगे कि हमारे पूर्व उपराष्ट्रपति कहां हैं? लोगों की स्वतंत्रता खतरे में है इसलिए सभी सांसदों को देश की आत्मा क्या चाहती है या उनकी अंतरात्मा क्या चाहती है, इसे ध्यान में रख कर वोटिंग करनी चाहिए।”
 
उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य मतदान करते हैं, निर्वाचित और मनोनीत सभी। यह चुनाव गुप्त मतदान के जरिए होता है यानी राजनीतिक पार्टियां कोई व्हिप जारी नहीं करती हैं। मौजूदा समय में संसद के दोनों सदनों में मिलाकर 782 वोट हैं और जीत के लिए 391 वोट चाहिए। एनडीए के पास करीब 425 वोट और इंडिया गठबंधन के पास 324 वोट हैं।
 
ऐसे में एनडीए गठबंधन के उम्मीदवार आसानी से जीत सकते हैं। लेकिन इनमें से 48 वोट ऐसे हैं जो ना एनडीए के साथ हैं और ना ही इंडिया गठबंधन के। इसलिए यदि जरा भी क्रॉस वोटिंग हुई तो फिर एनडीए के लिए काफी मुश्किल हो जाएगी। यही नहीं, एनडीए उम्मीदवार को यदि गठबंधन के निर्धारित वोटों से कम वोट मिले तो ये स्थिति भी ना सिर्फ गठबंधन की मजबूती पर सवाल उठाएगी बल्कि सरकार की मजबूती पर भी सवाल खड़े होंगे।

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