उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के लिए हर एक सीट पर घमासान जारी है। इनमें एक ऐसी भी सीट है, जिस सीट पर 1996 में पहली बार कमल खिला, लेकिन उसके बाद वहां से कभी भाजपा नहीं जीत पाई। इस लोकसभा सीट का नाम है कन्नौज। मोदी लहर में भी यहां से भाजपा नहीं जीत पाई। इस सीट पर एक समय पर कांग्रेस का कब्जा था। कुछ समय तक अन्य दलों के कब्जे में भी यह सीट रही, लेकिन 1998 से लेकर अभी तक सिर्फ और सिर्फ समाजवादियों का कब्जा है।
कन्नौज सीट पर 1998 से समाजवादी पार्टी का कब्जा है और वर्तमान में यहां से मुलायमसिंह यादव की बहू और अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव सांसद हैं। दरअसल, यहां आंधी किसी की भी चली हो, लेकिन साइकिल की रफ्तार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। 2014 में मोदी लहर के बाद भी साइकिल कमल से आगे निकल गई।
सपा ने एक बार फिर डिंपल यादव को मैदान में उतारा है, वहीं भाजपा ने अपने पुराने नेता सुब्रत पाठक पर दांव लगाकर समाजवादियों की साइकिल रोकने का कन्नौज में समीकरण तैयार किया है। इस सीट पर 20 साल के वनवास को खत्म करने के लिए भाजपा एक बार फिर मोदी के सहारे कन्नौज में एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है। दूसरी ओर सपा मुखिया अखिलेश यादव कन्नौज में कोई भी ऐसी कमी नहीं छोड़ रहे हैं जिसका फायदा भाजपा उठा सके।
बसपा का समर्थन मिलने के बाद सपा कन्नौज में बेहद मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है। अगर पिछले लोकसभा पर नजर डालें तो सपा डिंपल यादव को 489164 (44 फीसदी) वोट मिले थे, जबकि बीजेपी प्रत्याशी सुब्रत पाठक को 469257 (42 फीसदी) वोट मिले थे और बीएसपी को 127785 (12 फीसदी) वोट मिले थे। अगर इन आंकड़ों पर नजर डालें और सपा व बसपा के वोटों को मिला दें तो भाजपा डिंपल यादव के आसपास भी खड़ी नजर नहीं आ रही है।
हार और जीत का फैसला तो अभी होना बाकी है, लेकिन यह स्पष्ट है कि कन्नौज में सपा व भाजपा की लड़ाई बेहद रोमांचक होने वाली है। जहां एक तरफ भाजपा 20 साल के वनवास को खत्म करने का प्रयास करेगी तो वहीं समाजवादी पार्टी अपने इस किले को गिरने से बचाने के लिए कोई भी कोर-कसर नहीं छोड़ेगी।
कन्नौज का जातिगत समीकरण : कन्नौज के जातीय समीकरण को देखें तो यहां 16 फीसदी यादव मतदाता हैं तो वहीं मुस्लिम वोटर करीब 36 फीसदी हैं। इसके अलावा ब्राह्मण मतदाता 15 फीसदी के ऊपर हैं। करीब 10 फीसदी राजपूत हैं तो 43 फीसदी में ओबीसी, लोधी, कुशवाहा, पटेल, बघेल मतदाता अच्छे खासे हैं।
खिलते-खिलते रह गया था कमल : 2014 में यहां सपा और भाजपा के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली थी। स्थिति यह थी कि जिस सीट को समाजवादी पार्टी लाखों के अंतर से जीतती थी, उस पर हजारों के अंतर से बमुश्किल जीत हासिल कर पाई।
क्या बोले उपमुख्यमंत्री : उत्तर प्रदेश सरकार के उपमुख्यमंत्री व भाजपा के वरिष्ठ नेता केशव प्रसाद मौर्य कन्नौज लोकसभा से प्रत्याशी सुब्रत पाठक के पक्ष में जनसभा करने आए हुए थे। इस दौरान उन्होंने वेबदुनिया से बातचीत करते हुए कहा कि इस बार कन्नौज लोकसभा की जनता से जो प्यार हमें मिल रहा है वह इस बात का संकेत दे रहा है कि 2019 में कन्नौज लोकसभा सीट पर कमल खिलने से कोई भी रोक नहीं सकता है। मुझे पूरा यकीन है कि इस बार कन्नौज लोकसभा में भाजपा के प्रत्याशी भारी मतों से विजयी होंगे।
क्या कहते हैं जानकार : राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार विपिन सागर व अनुराग बिष्ट कहते हैं की इस बार जो सियासी समीकरण बने हैं वह 2014 से बिल्कुल ही विपरीत हैं। अगर 2014 के चुनाव पर नजर डालें तो समाजवादी पार्टी के खिलाफ भाजपा व बसपा चुनावी मैदान में थे और सपा प्रत्याशी डिंपल यादव को रोकने के लिए एक तरफ भाजपा के सुब्रत पाठक लगे हुए थे तो दूसरी तरफ बसपा के निर्मल तिवारी और ऐसा त्रिकोणीय संघर्ष इस सीट पर देखने को मिला था, जो बेहद चौंकाने वाला था।
सीधे तौर पर कहा जा सकता है कि कहीं न कहीं साइकिल की रफ्तार धीमी होने लगी थी, लेकिन भाजपा के कमल को खिलने से रोकने में अहम भूमिका बसपा ने निभाई थी और उनके प्रत्याशी निर्मल तिवारी के मैदान में होने के चलते बसपा ने ब्राह्मण वोट बैंक पर ठीक-ठाक सेंध लगा दी थी जिस कारण से सुब्रत पाठक कमल खिलाने में कामयाब नहीं हो सके थे।
अगर 2019 की बात करें तो समीकरण कुछ और हैं क्योंकि इस बार सपा के प्रत्याशी डिंपल यादव को बसपा का पूरा समर्थन हासिल है और कहीं न कहीं बसपा का वोट बैंक सीधे तौर पर डिंपल यादव के पक्ष में जाएगा। अगर बीजेपी के सुब्रत पाठक 2014 में भाजपा से दूर हुए ब्राह्मण वोटों को समेट भी लाते हैं तो भी कन्नौज में कमल खिलाने की राह बेहद कठिन है। कहा जा सकता है की हार-जीत का फैसला तो जनता करेगी, लेकिन यह कहना कि डिंपल यादव कन्नौज सीट पर कमजोर है तो गलत होगा।