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गांधीनगर से टिकट कटने के बाद भी क्यों खामोश हैं लालकृष्ण आडवाणी?

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विकास सिंह

, शुक्रवार, 22 मार्च 2019 (12:57 IST)
बीजेपी ने लोकसभा चुनाव के लिए अपनी पहली लिस्ट में गुजरात के गांधीनगर से पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को चुनावी मैदान में उतारा है। शाह को गांधीनगर से बीजेपी के संस्थापक और वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की जगह टिकट दिया गया है। गांधीनगर से आडवाणी की जगह अमित शाह के लोकसभा चुनाव लड़ने से साफ हो गया है कि बीजेपी को शून्य से शिखर तक पहुंचाने वाले आडवाणी की संसदीय राजनीति पर अब विराम लग गया है।
 
91 साल के लालकृष्ण आडवाणी ने 1991 में पहली बार गांधीनगर सीट से लोकसभा पहुंचे थे। उसके बाद 1996 छोड़ आडवाणी ने छह बार गांधीनगर का संसद में प्रतिनिधित्व किया। पार्टी के टिकट नहीं दिए जाने के फैसले के बाद एक बार फिर आडवाणी चुप हैं, क्या इस खमोशी के पीछे आडवाणी की नाराजगी है या कोई दूसरी वजह।
 
टिकट और खामोशी पर सवाल : बीजेपी के संस्थापक और मार्गदर्शक मंडल के सदस्य लालकृष्ण आडवाणी के चुनाव नहीं लड़ने का फैसला क्या उनका खुद का है या वर्तमान में पार्टी का नेतृत्व करने वाले अमित शाह और मोदी का। ये सवाल भी दिल्ली से लेकर गुजरात तक उठ रहा है।  बीजेपी में इस बार टिकट बंटवारे से पहले ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि क्या पार्टी आडवाणी को टिकट देगी या पार्टी 75 पार के नेताओं को टिकट नहीं देने का फार्मूला लागू करते हुए उनका टिकट काट देगी।
 
पार्टी के कई ऐसे नेताओं ने संकेत पहले ही दे दिए थे। लोकसभा चुनाव में पार्टी की ओर से पहली सूची के एलान करने से पहले कई वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजानिक तौर पर चुनाव नहीं लड़ने का एलान करना इस बात का साफ संकेत था कि पार्टी उनको टिकट नहीं देने का फैसला कर चुकी है।
 
उत्तरप्रदेश के देवरिया से सांसद और मोदी कैबिनेट में मंत्री कलराज मिश्रा, झांसी से सांसद और मंत्री उमा भारती, मध्य प्रदेश के विदिशा से सांसद और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने टिकटों के एलान से पहले खुद ही घोषणा कर दी थी कि वो लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे। लेकिन, आडवाणी चुनाव लड़ने या नहीं लड़ने पर सार्वजनिक तौर पर कभी कुछ नहीं बोले और अब जब पार्टी ने गांधीनगर से उनकी जगह अमित शाह को टिकट दिया है, तब भी आडवाणी चुप है। 
 
सवाल ये है कि अगर 91 साल के आडवाणी खुद चुनाव नहीं लड़ना चाह रहे थे तो टिकटों के एलान से पहले खुद सार्वजनिक तौर पर चुनाव नहीं लड़ने का एलान कर सकते थे। लालकृष्ण आडवाणी को बेहद करीब से जानने वाले और गुजरात के वरिष्ठ पत्रकार सुधीर एस रावल की नजर में आडवाणी का अब भी चुप रहना उनकी स्टेट्समैन क्वालिटी को दिखाता है।
 
वेबदुनिया से बातचीत में सुधीर कहते हैं कि अगर आज लालकृष्ण आडवाणी टिकट कट जाने के बाद भी चुप हैं तो ये आडवाणी जी की गरिमा और ऊंचाई को दिखाता है, उनके चुप रहने को उनकी मजबूरी नहीं समझकर एक स्टेट्‍समैन की क्वालिटी के रूप में समझा जाना चाहिए। रावल कहते है कि बीजेपी को खड़ा करने में अटलजी और आडवाणी का महत्वपूर्ण योगदान था, इनके लिए पार्टी का संगठन, व्यकित से ज्यादा महत्वपूर्ण है, आज 91 साल के आडवाणी उस स्थान पर पहुंच गए है कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता है।
 
रावल कहते है जहां तक वो आडवाणी को जानते हैं कि उनका व्यक्तित्व ऐसा नहीं है कि वो सामने वाले को उसी की शैली में जवाब दें। इसलिए जब ये माना जा रहा है कि आडवाणी को टिकट न देकर उनका अपमान किया गया है तब भी वो चुप हैं। आडवाणी के खुद नहीं चुनाव लड़ने के ऐलान पर उनको करीब से जानने वाले वरिष्ठ पत्रकार रावल इसके पीछे आडवाणी की उस मनोदशा को बताते हैं जिससे वो पिछले पांच सालों से गुजर रहे हैं। 
 
पत्रकार रावल कहते हैं कि आडवाणी को जिस तरह से पार्टी में पहले इग्नोर किया गया और पिछले दिनों उनकी स्टेट्‍समैन छवि का सम्मान नहीं किया गया तो आडवाणी ने इस बार पर भी चुप रहना बेहतर समझा। रावल कहते हैं कि अगर पार्टी ने उनसे टिकट के बारे में आगे बढ़कर नहीं पूछा होगा तो उन्होंने टिकट के मसले पर कुछ कहा भी नहीं होगा।
 
आडवाणी को टिकट नहीं देने का फैसला अब उस फैसले की अगली कड़ी माना जा रहा है जिसमें पांच साल पहले उन्हें बीजेपी की राजनीति से किनारे करते हुए उस मार्गदर्शक मंडल का सदस्य बना दिया गया था जिसकी आज तक कोई बैठक ही नहीं हुई। अब जब लालकृष्ण आडवाणी चुनाव नहीं लड़ेंगे तो ये लगभग तय हो चुका है कि बीजेपी को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाले लौहपुरुष की चुनावी राजनीति भी खत्म हो चुकी है। ऐसे में देखना होगा कि पिछले पांच सालों से खामोश बीजेपी का ये लौहपुरूष अपनी खमोशी तोड़ता भी है या नहीं।

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