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डरे और थके हुए प्रधानमंत्री का हताशा और घबराहट भरा भाषण

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अनिल जैन

दिल्ली के रामलीला मैदान में ठीक पांच साल पहले भी इसी जनवरी के महीने में भाजपा की राष्ट्रीय परिषद का अधिवेशन हुआ था। उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और राष्ट्रीय राजनीति के क्षितिज पर उनके सूर्योदय का दौर विधिवत प्रारंभ हो चुका था।

उस अधिवेशन के माध्यम से उन्होंने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की हैसियत से अपना जो विजन देश के सामने रखा था, उसे सुनकर उनको प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध करने वाले लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था- 'आज नरेंद्र भाई को सुनकर ऐसा लगा जैसे हम विवेकानंद को सुन रहे हैं।’
 
हालांकि आडवाणी की इस प्रतिक्रिया में वास्तविकता का कम और चापलूसी तथा परिस्थितियों के आगे समर्पण का भाव ही ज्यादा था। अब पांच साल बाद उसी रामलीला मैदान में हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण को सुनने के बाद उन्हें विवेकानंद की उपमा देने या उनके भाषण की अतिश्योक्तिपूर्ण तारीफ करने की स्थिति में कोई नहीं है।
 
पांच साल पहले का उनका भाषण भाजपा कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने वाला और देश को नए सपने दिखाने वाला था, तो पांच साल बाद का उनका भाषण आत्म-प्रशंसा, अपनी सरकार के कामकाज को लेकर बढ़-चढ़कर किए गए दावों तथा विपक्ष के प्रति चिड़चिड़ाहट, झल्लाहट और हताशा से भरपूर रहा, जिसमें उनके पास न तो अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं को देने के लिए कुछ था और न ही देश को देने के लिए। अपनी सरकार के फैसलों पर उठ रहे सवालों से मुंह चुराते हुए उन्होंने रुदन भरे अंदाज में कहा कि विपक्ष उनको हराने के लिए एकजुट हो रहा है।
 
उनका यह बयान न सिर्फ उनकी हताश और पराजित मानसिकता का परिचय देता है बल्कि लोकतंत्र के बारे में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के शासन प्रमुख की हास्यास्पद समझ को भी उजागर करता है। सवाल है कि आखिर लोकतंत्र में विपक्ष सत्तारूढ़ दल को चुनाव के जरिए सत्ता से बाहर करने की कोशिश नहीं करेगा तो फिर क्या करेगा? कोई भी प्रधानमंत्री अपने विपक्ष से यह नादानी भरी अपेक्षा कैसे कर सकता है कि विपक्ष उसे चुनौती न देते हुए निष्कंटक राज करने दे?
 
प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान बताता है कि उन्हें आगामी चुनाव के संदर्भ में दीवार पर लिखी इबारत साफ-साफ समझ आ रही है। हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव नतीजों का संदेश बहुत साफ है कि मोदी सरकार से लोगों का मोहभंग हो रहा है और तीन महीने बाद होने वाले आमचुनाव में उनका सत्ता में बने रहना आसान नहीं है।
 
राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन में मोदी के पूरे भाषण के दौरान लगातार हार का डर नजर आया। उन्होंने कार्यकर्ताओं आम चुनाव की तैयारी में जुट जाने का आह्वान करते हुए साफ कहा- 'सिर्फ यह मान लेने काम नहीं चलेगा कि मोदी आएगा तो सब ठीक हो जाएगा और हम जीत जाएंगे।’ 
 
उनका यह कथन बताता है कि उनका आत्मविश्वास अब तेजी से ढलान पर है। अपने घिसे-पिटे अंदाज में उन्होंने बार-बार यही बताने की कोशिश की कि नेहरू-गांधी परिवार के शासन से देश को नुकसान हुआ है। सरदार पटेल, आंबेडकर आदि को भी उन्होंने अपनी राजनीतिक जरूरत और सुविधा के लिए याद किया। और कांग्रेस के साथ बन रहे प्रस्तावित महागठबंधन को लेकर भी ताना कसा कि आपको मजबूर सरकार चाहिए या मजबूत सरकार।
 
लगभग डेढ़ घंटे के भाषण में वे एक थके हुए नेता की तरह नेहरू-गांधी परिवार को जी भर कर कोसने अलावा वे उन्हीं मुद्दों पर सफाई देते नजर आए, जिन्हें राहुल गांधी पिछले कई दिनों से उठा रहे हैं। जाहिर है कि ऐसा करके मोदी ने बता दिया कि वे अगले चुनाव में राहुल गांधी को अपने प्रतिद्वंद्वी के के रूप में देखने लगे हैं और यह मानने लगे हैं कि महागठबंधन बना तो भाजपा के लिए उसकी चुनौती का मुकाबला करना आसान नहीं होगा।
 
यही वजह है कि वे 'मजबूर सरकार बनाम मजबूत सरकार’ का जुमला उछालकर देश को डराने की कोशिश करते नजर आए। उनका इशारा 2004 से 2014 तक सत्ता में रही कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार की ओर रहा। वे डॉ. मनमोहनसिंह की सरकार को मजबूर और अपनी सरकार को मजबूत बता रहे थे। लेकिन ऐसा करते वक्त यह भूल गए कि उन दस वर्षों में देश की आर्थिक विकास दर आठ फीसद से ज्यादा थी, जो कि आजाद भारत के अब तक के इतिहास में सबसे तेज विकास दर रही।
 
इतना ही नहीं, उन्हीं 10 वर्षों के दौर में 10 फीसदी से ज्यादा भारतीय गरीबी रेखा से बाहर भी आए। साथ ही मनरेगा जैसी योजनाओं देश के कृषि क्षेत्र का विकास हुआ और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में रोजगार के नए अवसर पैदा हुए। कुल मिलाकर देश उन दस वर्षों के दौरान तेजी से विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा। जबकि मोदी सरकार के पांच साल से भी कम समय के दौर में देश की अर्थव्यवस्था गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है।
 
आंकड़ों की हेराफेरी के बावजूद विकास दर छह फीसद से आगे नहीं जा सकी है। निर्यात में गिरावट आई है। रोजगार के नए अवसर पैदा होने की कौन कहे, उलटे नौकरियों की संख्या में लगातार कमी होने के चलते बेरोजगारी में इजाफा हो रहा है। रोजगार को लेकर लेबर ब्यूरो का नवीनतम सर्वे बता रहा है कि बेरोजगारी ने पिछले चार साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। ऑटो मोबाइल, टेलीकॉम, एयर लाइंस और कंस्ट्रक्शन सेक्टर में बडे पैमाने पर छंटनी हुई है।
 
लेबर ब्यूरो के सर्वे के मुताबिक वर्ष 2013-14 में बेरोजगारी दर 3.4 फीसद थी, जो वर्ष 2016-17 में 3.9 फीसद तक पहुंच गई है। अभी दो दिन पहले ही आए आंकड़े बता रहे हैं कि औद्योगिक विकास की दर पिछले 17 महीने के निम्नतम स्तर पर गिरकर 0.5 फीसद पर पहुंच गई है। देश की खेती-किसानी अब तक के सबसे गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। नोटबंदी और जीएसटी से पैदा हुई त्रासदी का असर अभी भी बना हुआ है। देश के सरकारी बैंकों की हालत एनपीए के चलते खोखली हो रही है। कुल मिलाकर देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है और तमाम विशेषज्ञ आने वाले दिनों को और अधिक दुश्वारियों से भरा बता रहे हैं।
 
जहां तक भ्रष्टाचार और घोटालों की बात है, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी के बाकी नेता चाहे जो दावा करें, जो स्थिति यूपीए शासन के दौरान थी, कमोबेश वही स्थिति आज भी है। रॉफेल लड़ाकू विमान सौदे पर उठ रहे सवालों को लेकर उनकी सरकार समाधानकारक जवाब देने में नाकाम रही है। खुद मोदी भी उन सवालों का जवाब देने से बचते रहे हैं। इस सिलसिले में उनकी सरकार ने जिस तरह सुप्रीम कोर्ट में दिए गए हलफनामे में गलत जानकारी दी और सीबीआई के निदेशक को उन्होंने जिस तरह मनमाने तरीके से हटाया उससे भी उनकी नीयत पर संदेह गहराया है।
 
सिर्फ सीबीआई ही नहीं, बल्कि रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग, सतर्कता आयोग, सूचना आयोग और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाओं का दुरुपयोग करने के मामले में भी उन्होंने पूर्ववर्ती सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया। यहां तक कि सेना का राजनीतिकरण करने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया।
 
इस सबके चलते ही पिछले दिनों पांच राज्यों के चुनाव में मोदी लहर का मिथक बुरी तरह खंडित हो चुका है। इन चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा में जो बौखलाहट नजर आने लगी है, उसकी व्यापक प्रदर्शन राष्ट्रीय परिषद के दो दिनी अधिवेशन में भी साफ देखने को मिला। इस अधिवेशन में आए तमाम कार्यकर्ता 'नमो अगेन’ लिखी टोपी पहने हुए थे। पूरा अधिवेशन स्थल 'अबकी बार फिर मोदी सरकार’ के पोस्टरों-बैनरों से पटा हुआ था।
 
इसके अलावा '2019 में जाइए सब कुछ भूल, याद रखिए सिर्फ मोदी और कमल का फूल’ जैसे नारे गूंज रहे थे। लेकिन फिर भी आम चुनाव में जीत का भरोसा नजर नही आ रहा था। देश भर से आए हजारों कार्यकर्ताओं को प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, अरुण जेटली, नितिन गडकरी जैसे तमाम नेताओं ने यही समझाने की कोशिश की कि 2019 में किसी भी तरह भाजपा को जिताना है, वर्ना अनर्थ हो जाएगा।
 
कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी के पास अपनी उपलब्धि बताने के लिए कुछ नहीं है। भाजपा की राजनीतिक जमीन कमजोर होने का अहसास उसके सहयोगी दलों को भी हो गया है, लिहाजा कुछ उसका साथ छोड़ चुके हैं तो कुछ साथ में बने रहने की मुंहमांगी कीमत मांग रहे हैं। इस सबके बीच जब मोदी 'मजबूर बनाम मजबूत सरकार’ का जुमला उछालते हैं और कुछ दिनों पहले तक पचास साल तक सत्ता में बने रहने का दम भरने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह आगामी आमचुनाव को पानीपत का तीसरा युद्ध बताते हैं तो इससे उनकी हताशा, घबराहट और पराजित मानसिकता की ही झलक मिलती है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)
 

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