Why is post of Lok Sabha speaker important: केन्द्र की भाजपा नीत राजग (NDA) सरकार में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी (TDP) द्वारा लोकसभा अध्यक्ष का पद मांगे जाने की खबर के बाद लोगों की उत्सुकता स्वाभाविक तौर पर बढ़ गई कि आखिर लोकसभा अध्यक्ष पद में ऐसा क्या खास है, जो इस पद को टीडीपी मांग रही है। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में टीडीपी के ही जीएमसी बालयोगी लोकसभा अध्यक्ष रह चुके हैं। प्रोटोकॉल में भी स्पीकर का पद प्रधानमंत्री के बाद आता है।
दरअसल, अल्पमत सरकार में लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यही स्थिति राज्य सरकारों में विधानसभा अध्यक्षों की होती है। 2019 में 303 लोकसभा सीट जीतने वाली भाजपा का आंकड़ा इस बार 240 पर जाकर रुक गया है, जबकि बहुमत के लिए 272 सीटों की जरूरत होती है। अब बहुमत के लिए सरकार को एनडीए के सहयोगी दलों पर पूरी तरह निर्भर रहना होगा। इनमें टीडीपी और जदयू बड़े दल हैं, जिन्होंने क्रमश: 16 और 12 सीटें जीती हैं।
कैसे चुना जाता है स्पीकर : स्पीकर के चुनाव से पहले लोकसभा के सबसे वरिष्ठ संसद को प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता है। प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में ही लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव होता है। यदि एक से ज्यादा उम्मीदवार हैं तो चुनाव होता है, अन्यथा लोकसभा निर्विरोध भी चुना जा सकता है। आम तौर पर लोकसभा चुनाव का कार्यकाल उसके चुनाव से लेकर अगले लोकसभा अध्यक्ष के चयन तक होता है। आम तौर पर सत्तारूढ़ दल का सांसद ही लोकसभा का अध्यक्ष चुना जाता है।
क्या हैं लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार : लोकसभा अध्यक्ष का पद संवैधानिक होता है। सदन का सबसे प्रमुख व्यक्ति स्पीकर ही होता है। सदन में लोकसभा अध्यक्ष की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। सदन में मर्यादा और व्यवस्था बनाने का जिम्मा लोकसभा अध्यक्ष का ही होता है। हंगामे या अव्यवस्था की स्थिति में सदन को स्थगित और निलंबित करने का अधिकार अध्यक्ष के पास ही होता है। सदन की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सांसदों को भी स्पीकर निलंबित कर सकते हैं।
कब ज्यादा महत्वपूर्ण होता स्पीकर का पद : आमतौर लोकसभा अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल का ही होता है। लेकिन, अटलजी के कार्यकाल में टीडीपी के जीएमसी बालयोगी एवं शिवसेना के मनोहर जोशी भी स्पीकर के पद पर रह चुके हैं। जब सदन में बहुमत साबित करने की बात आती है या फिर दलबदल कानून लागू होता है तो अध्यक्ष की भूमिका काफी अहम हो जाती है। सांसदों के पाला बदलने की स्थिति में उनकी अयोग्यता पर फैसला लेने का अधिकार अध्यक्ष को ही होता है। यदि अध्यक्ष सरकार समर्थक होगा तो उसका फायदा सरकार को मिलता है। हालांकि अध्यक्ष के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि स्पीकर के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है।
महाराष्ट्र सबसे बड़ा उदाहरण : महाराष्ट्र इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां पहले शिवसेना में टूट हुई फिर एनसीपी भी शिवसेना की तर्ज पर ही टूट गई। उस समय विधायकों की अयोग्यता का फैसला विधानसभा अध्यक्ष को ही लेना था। चूंकि विधानसभा अध्यक्ष राहुल नार्वेकर शिंदे गुट के थे, इसलिए ज्यादातर फैसले उनके पक्ष में ही हुए। यही स्थिति एनसीपी की टूट के समय भी देखने को मिली। राहुल नार्वेकर का फायदा अजित गुट को भी मिला। तब नार्वेकर पर पक्षपात के आरोप भी लगे थे। ऐसी स्थिति यदि लोकसभा में भी बनती है तो लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। इसीलिए टीडीपी की नजर स्पीकर पद पर है।
भारत में लोकसभा अध्यक्ष : गणेश मावलंकर भारत के पहले लोकसभा अध्यक्ष थे, जिनका कार्यकाल 15 मई, 1952 से 27 फरवरी 1956 तक रहा। एमए आयंगर, सरदार हुकम सिंह, नीलम संजीव रेड्डी, गुरुदयाल सिंह ढिल्लों, बलिराम भगत, केएस हेगड़े, बलराम जाखड़, रवि राय, शिवराज पाटिल, पीए संगमा, जीएमसी बालयोगी, मनोहर जोशी, सोमनाथ चटर्जी, मीरा कुमार, सुमित्रा महाजन, ओम बिरला भी लोकसभा अध्यक्ष रहे। जीएमसी बालयोगी पहले दलित स्पीकर थे, जबकि कांग्रेस की मीरा कुमार पहली महिला लोकसभा अध्यक्ष थीं, वे दलित भी थीं। 2014 में भाजपा सरकार के दौरान श्रीमती सुमित्रा महाजन लोकसभा अध्यक्ष रहीं, जो कि दूसरी महिला थीं।
क्या कहती हैं सुमित्रा महाजन : पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती सुमित्रा महाजन वेबदुनिया से बातचीत में बताती हैं लोकसभा स्पीकर का पद वास्तव में बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। प्रोटोकॉल में स्पीकर का पद राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के तत्काल बाद आता है। कुछ मामलों में जरूर मुख्य न्यायाधीश चौथे क्रम पर आते हैं। श्रीमती महाजन कहती हैं कि यदि सीजेआई स्पीकर से पहले शपथ लेते हैं, तो वे प्रोटोकॉल में चौथे क्रम पर आते हैं, लेकिन यदि वे स्पीकर के बाद शपथ लेते हैं तो प्रोटोकॉल में उनका क्रम स्पीकर के बाद ही आएगा।
पोलिटिकली देखें तो प्रोटोकॉल में स्पीकर का पद प्रधानमंत्री के तत्काल बाद ही आता है। सदन में जो कुछ भी होता है, उसके लिए स्पीकर ही जिम्मेदार होता है। बजट स्पीकर के अधिकार में ही रहता है। लोकसभा अध्यक्ष सदन का एडमिनिस्ट्रेटिव हैड भी होता है। कई बार आर्थिक विषयों पर कोई बिल इकोनॉमिक बिल है या नहीं, इस पर अंतिम निर्णय स्पीकर का ही होता है। इस निर्णय को अदालत में भी चुनौती नहीं दी जा सकती। दोनों सदनों की जब भी संयुक्त बैठक होती है तो उसकी अध्यक्षता लोकसभा स्पीकर ही करेगा।
Edited by: Vrijendra Singh Jhala