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महाभारत में धृतराष्ट्र और संजय के बीच रोचक संवाद की 7 बातें

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अनिरुद्ध जोशी

संजय के पिता बुनकर थे। उनके पिता का नाम गावल्यगण था। उन्होंने महर्षि वेदव्यास से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व ग्रहण किया था। अर्थात वे बुनकर से ब्राह्मण बन गए थे। वेदादि विद्याओं का अध्ययन करके वे धृतराष्ट्र की राजसभा के सम्मानित मंत्री भी बन गए थे।
 
1. जब कुरुक्षेत्र में महाभारत के युद्ध प्रारंभ होने वाला था तो वेद व्यासजी धृतराष्ट्र के पास गए और उनसे इस युद्ध को रोकने का कहा तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं तो स्वयं यह नहीं चाहता ऋषिवर। मैं क्या करूं मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं है। तब ऋषि कहते हैं कि तो ठीक है मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूं जिससे तुम स्वयं सर्वनाश देख सको। धृतराष्ट्र ऐसा करने से उन्हें रोक देते हैं और कहते हैं कि संजय को यह दिव्य दृष्टि प्रदान कीजिए। ताकि मैं इनसे सुन सकूं कि कौन वीरगति को प्राप्त हुआ है। तब ऋषि वेदव्यास संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर देते हैं।
 
2. बहुत कम लोग संजय के बारे में जानते हैं। गीता की शुरुआत संजय और धृतराष्ट्र के संवाद से होती है। संजय हस्तीनापुर में बैठे हुए ही कुरुक्षेत्र में हो रहे युद्ध का वर्णन धृतराष्ट्र को सुनाता है। हस्तीनापुर (मेरठ उत्तर प्रदेश में) और कुरुक्षेत्र (हरियाणा में) लगभग 145 किलोमीटर का फासला है। 18 दिन तक चलने वाले युद्ध की हर घटना का संजय वर्णन करता है। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त थी, अत: वे युद्धक्षेत्र का समस्त दृश्य महल में बैठे ही देख सकते थे। नेत्रहीन धृतराष्ट्र ने महाभारत-युद्ध का प्रत्येक अंश उनकी वाणी से सुना। धृतराष्ट्र को युद्ध का सजीव वर्णन सुनाने के लिए ही व्यास मुनि ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की थी।
 
3. संजय प्रारंभ से अंत तक धृतराष्ट्र के साथ ही रहते हैं। महाभारत का युद्ध समाप्त हो जाने के बाद भी वे उनके मार्गदर्शन की भांति कार्य करते रहे। यह बहुत ही आश्चर्य वाली बात है कि एक ओर जहां धृतराष्ट्र देख सकने में अक्षम थे वहीं संजय के पास दिव्य दृष्टि थी। आज के दृष्टिकोण से वे टेलीपैथिक विद्या में पारंगत थे।
 
4. कहते हैं कि संजय श्रीकृष्ण के भक्त थे और वे धृतराष्ट्र के मंत्री भी थे अत: उन्होंने कभी भी अपनी भक्ति को मंत्री से नहीं टकराने दिया। दोनों ही में उन्होंने संतुलन बनाया रखा फिर भी संजय अपनी स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध थे। वे धृतराष्ट्र को सही सलाह देते रहते थे। एक ओर वे जहां शकुनि की कुटिलता के बारे में सजग करते थे तो दूसरी ओर वे दुर्योधन द्वारा पाण्डवों के साथ किए जाने वाले असहिष्णु व्यवहार के प्रति भी धृतराष्ट्र को अवगत कराकर चेताते रहते थे। वे धृतराष्ट्र के संदेशवाहक भी थे।
 
5. कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के मुख से गीता को अर्जुन के बाद संजय ने सुनी थी। संजय श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद के साक्षी थे। धृतराष्ट्र से समक्ष संजय ने संपूर्ण महाभारत का लाइव वर्णन किया था। उनका यह वर्णन अद्भुत था। उन्होंने महाभारत के सभी प्रमुख योद्धाओं के बारे में विस्तार से वर्णन किया। कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय। यहीं नहीं, देवताओं के लिए दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी सिर्फ इन दो लोगों ने ही किया था। जहां तक देवी और देवताओं का सवाल है तो वे तो सुन ही रहे थे।
 
6. गीता के अंत में संजय ने धृतराष्ट्र से कहा:–
इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः।
संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।।
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेतद्रुह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयतः स्वंयम्।। (अष्टादश अध्याय श्लोक-74 -75)
इस प्रकार मैंने वासुदेव और महात्मा अर्जुन के इस विलक्षण तथा रोमाचकारी संवाद को सुन । कैसे? तो श्रीव्यासजी की कृपा से, उनकी दी हुई दृष्टि से मैंने इस परं गोपनीय योग को साक्षात् योगेश्वर श्रीकृष्ण को कहते हुए सुना है।
 
7. महाभारत युद्ध के पश्चात अनेक वर्षों तक संजय युधिष्ठिर के राज्य में रहे। इसके पश्चात धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती के साथ उन्होंने भी संन्यास ले लिया था। बाद में धृतराष्ट्र की मृत्यु के बाद वे हिमालय चले गए, जहां से वे फिर कभी नहीं लौटे। दरअसल, महाभारत युद्ध के 15 वर्ष बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, संजय और कुंती वन में चले जाते हैं। तीन साल बाद एक दिन धृतराष्ट्र गंगा में स्नान करने के लिए जाते हैं और उनके जाते ही जंगल में आग लग जाती है। वे सभी धृतराष्ट्र के पास आते हैं। संजय उन सभी को जंगल से चलने के लिए कहते हैं, लेकिन दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र वहां से नहीं जाते हैं, गांधारी और कुंती भी नहीं जाती है। जब संजय अकेले ही उन्हें जंगल में छोड़ चले जाते हैं, तब तीनों लोग आग में झुलसकर मर जाते हैं। संजय उन्हें छोड़कर हिमालय की ओर प्रस्थान करते हैं, जहां वे एक संन्यासी की तरह रहते हैं। बाद नारद मुनि युधिष्ठिर को यह दुखद समाचार देते हैं। युधिष्ठिर वहां जाकर उनकी आत्मशांति के लिए धार्मिक कार्य करते हैं।

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