एक बार द्वैतवन में रह रहे पांडवों को देखने के लिए दुर्योधन के कहने पर शकुनि, कर्ण और दुशासन योजना बनाई। राजा धृतराष्ट्र से कहा की हम घोषयात्रा करना चाहते हैं। इस समय गोएं रमणिक प्रदेश में ठहरी हुई है और यह समय उनकी गणना करना का उचित समय है। इससे उनके बछड़े, रंग और आयु की गणना कर सकेंगे।
यह सुनकर धृतराष्ट्र ने यह कहकर मना कर दिया कि उस क्षेत्र में पांडव ठहरे हुए अत: तुम उधर ना जाओ तो ही उचित है। गौओं की गणना के लिए किसी दूसरे विश्वासपात्र व्यक्त को भेज दें। यह सुनकर शकुनि ने कहा राजन हम लोग केवल गोओं की गणना करना चाहते हैं। पाण्डवों से मिलने का हमारा कोई इरादा नहीं है। जहां पांडव रहते होंगे हम वहां तो जानकर भी नहीं जाएंगे।
इस तरह शकुनि ने धृतराष्ट्र को मना लिया और दुर्योधन और शकुनि को फिर मंत्री एवं सेना सहित वहां जाने की आज्ञा दे दी। दुर्योधन के साथ हजारों स्त्रियां और उनके भाई सहित सैंकड़ों की संख्या में बोझा ढोने के लिए लोग चले। इस सब लश्कर के साथ दुर्योधन पड़ाव डालता हुआ सर्वगुणसम्पन्न, रमणीय, सजल और सघन प्रदेश में पहुंच गया। वहां गाय, बछड़ों आदि की गणना करते करते वह कुछ लोगों के साथ द्वैतवन के एक सरोवर के निकट पहुंच गया। वहां उस सरोवर के तट पर ही युधिष्ठिर आदि पांडव द्रोपदी के साथ कुटिया बनाकर रहते थे। वे उस समय राजर्षि यज्ञ कर रहे थे।
तभी दुर्योधन ने अपने सेवकों को आज्ञा दी की यहां शीघ्र ही एक क्रीड़ाभवन तैयार करो। क्रीड़ा भवन का निर्माण करने के लिए जब वे द्वैतवन के सरोवर पर गए और वे जब उनके द्वार में घुसने लगे तो वहां के रक्षक मुखिया गंधर्वों ने उन्हें रोक लिया। क्योंकि उनके पहुंचने से पहले ही गंधर्वराज चित्रसेन उस जल सरोवर में क्रीड़ा करने के पहुंचकर जलक्रीड़ा कर रहे थे। इस प्रकार सरोवर को गंधर्वों से घिरा देखकर दुर्योधन के सेवक पुन: दुर्योधन के पास लौट आए। दुर्योधन ने तब सैनिकों को आज्ञा दी की उन गंधर्वों को वहां से निकाल दो। लेकिन उन सैनिकों को उल्टे पांव लौटना पड़ा।
इससे दुर्योधन भड़क उठा और उसने सभी सेनापतियों के साथ गंधर्वों से युद्ध करने पहुंच गए। वहां प्रारंभ में उसने कुछ गंधर्वों को पीटकर बलपूर्वक वह वन में अपने सैनिकों के साथ घुस गया। कुछ गंधर्व ने भागकर चित्रसेन को बताया कि किस तरह दुर्योधन अपनी सेना के साथ बलात् वन में घुसा है। तब चित्रसेना को क्रोध आया और उसने अपननी माया से भयंकर युद्ध किया। कुछ देर में दुर्योधन की सेना रणभूमि से भागने लगी। दुर्योधन, शकुनि और कर्ण को गंधर्व सेना ने घायल कर दिया। कर्ण के रथ के टूकड़े टूकड़े कर डाले।
कौरवों की हार को देखने हुए दुर्योधन के भाई और साथ युद्ध छोड़ पीठ दिखाकर भागने लगे। लेकिन चित्रसेना की सेना ने दुर्योधन और दुशासन को मारने की दृष्टि से घेरकर पकड़ लिया। भागती हुए सेना को घेर घेर कर मारा जाने लगा। लेकिन अंतत: कौरवों की सेना ने सारे बचा खुचा सामान लेकर पाण्डवों की शरण ली और उन्होंने दुर्योधन आदि के गंधर्वों की सेना के घेर लिए जाने का समाचार युधिषिठर को सुनाया।
यह समाचार सुनकर भीम ने कहा कि हम भी वनवास के बाद हाथी घोड़ों से लैस होकर जो काम करते वह गंधर्वों ने ही कर दिया है। चलो अच्छा ही हुआ। यह सुनकर युधिष्ठिर ने कहा कि यह समय कड़वे वचन कहने का नहीं है। कुटुम्बियों में मतभेद होते हैं लेकिन यदि कोई बाहर का व्यक्ति हमारे कुल के लोगों और स्त्रियों को पकड़कर ले जाए तो यह हमारे लिए धिक्कार की बात है। यह हमारे कुल का तिरसक्कार है। अत: शूरवीरों हमारे ही लोग जब हमारी शरण में आकर दुर्योधन आदि को छुड़ाने की प्रार्थना कर रहे हैं तो हमें शरणागत की रक्षा करना चाहिए।
युधिष्ठिर की यह बाते सुनकर भीमसेना निराश हो गए। लेकिन उन्हें तो युधिष्ठिर की आज्ञा मानना ही थी। तब पांचों पांडवों ने प्रतिज्ञा की की यदि गंधर्वलोग समझाने बुझाने पर कौरवों को नहीं छोड़ेंगे तो हम गंधर्वों का रक्तपात करेंगे। यह प्रतिज्ञा सुनकर कौरव सेना और उनके कुल के जी में जी आया।
गंधर्वों ने युधिष्ठिर की शांतिवार्ता को ठुकरा दिया तब भयंकर युद्ध हुआ और हजारों गंधर्वों को यमलोक पहुंचा दिया गया। गंधर्वों और पांडवों के बीच घनघोर युद्ध हुआ। अंत में अर्जुन ने दिव्यास्त्रा का संधान किया। अर्जुन के इस अस्त्र से चित्रसेना घबरा गया।तब उसने अर्जुन के समक्ष पहुंचकर कहा, मैं तुम्हारा सखा चित्रसेन हूं। अर्जुन ने यह सुनकर दिव्यास्त्र को लौटा लिया। फिर चित्रसेन अर्जुन रथ में बैठाकर अपने महल ले गया। अर्जुन ने पूछा तुमने स्त्रियों सहित दुर्योधन को बंदी क्यों बनाया।
चित्रसेना ने कहा, वीर धनंजय, दुरात्मा दुर्योधन और पापी कर्ण का अभिप्रया मालूम हो गया था। वे लोग यह सोचकर ही वन में आए थे कि आप लोग यहां रहते हैं। वे तुम्हें दुर्दशा में देखकर और द्रौपदी की हंसी उड़ाने की इच्छा से सरोवर तट पर जलक्रीड़ा हेतु पड़ाव डाल रहे थे। किसी प्रकार का अनर्थ ना हो इसीलिए देवराज इंद्र अर्थात आपके पिता की आज्ञा से ही मैंने सरोवर पर जलक्रीड़ा की योजना बनाकर दुर्योधन के छल को असफल कर दिया और दुर्योधन को उसके भाई सहित बंदी बना लिया।
पांचों पांडवों ने जब यह सुना तो वे सन्न रह गए। तब भी अर्जुन ने कहा कि चित्रसेना यदि तुम मेरा प्रिय करना चाहते हो तो धर्मराज के आदेश से तुमा हमारे भाई दुर्योधन को छोड़ दो। चित्रसेना ने कहा कि अर्जुन यह पापी है। इसे छोड़ दिया तब भी यह पाप ही करेगा। इसे धर्मराज (युधिष्ठिर) और श्रीकृष्ण को धोखा दिया था। चित्रसेन कुछ देर रुकने के बाद कहते हैं कि अच्छा चलो पहले हम युधिष्ठिर को इसके छल के बारे में बताते हैं। फिर वे जो निर्णय करें मुझे मंजूर है।
चित्रसेन ने युधिष्ठिर से सब बातें कही और उन्होंने बताया कि किस तरह यह पापी दुर्योधन आपका अहित करने आया था। इस पर भी युधिष्ठिर ने चित्रसेन से दुर्योधन, दुशासन और अन्य कौरवों सहित सभी स्त्रियों को छोड़ने का आदेश दिया। तब अंत में देवराज इंद्र ने कौरवों के हाथ से मारे गए गंधर्वों को अमृत की वर्षा करने जीवित कर दिया।
फिर दुर्योधन आदि कौरव को गंधर्व लोग युधिष्ठिर के पास लेकर आए और उन्होंने उन्हें युधिष्ठिर के सुपर्द कर दिया। युधिष्ठिर सहित सभी पांडवों ने दुर्योधन, दुशासन और सभी राजमहिषियों का स्वागत किया। दुर्योधन ने भरे मन से युधिष्ठिर को प्रमाण किया और लज्जित होकर अपने नगर हस्तिनापुर की ओर चला गया।
सोचिए यदि युधिष्ठिर आदि पांडव यह काम नहीं करते तो दुर्योधन आदि कौरवों को गंधर्व बंदीगृह में ही मार देते। इससे पांडवों के बीच का सबसे बड़ा कांटा निकल जाता। तब भविष्य में किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं होता। युद्ध नहीं होता तो भयंकर रक्तपात भी नहीं होता। वनवास के बाद स्वत: ही युधिष्ठिर को हस्तिनापुर का राज भी मिल जाता। सांप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती। न रहता बांस तो बांसूरी भी नहीं बजती।