महाभारत यूं तो असंख्या घटनाओं का एक संग्रह है। इसमें से अधिकतर घटनाएं जनमानस में प्रचलित है। उन अधिकतर में भी हम यहां आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं कुछ ऐसी घटनाएं जिन्हें आज भी समय-समय पर प्रसंगवश याद किया जाता है। हालांकि और भी ऐसी घटनाएं है जिन्हें यहां लिखा जा सकता था। जैसे द्रौपदी के स्वयंवर, गांधारी का शाप, शिखंडी का सहयोग, गीता का ज्ञान आदि।
1.एकलव्य की घटना : एकलव्य भगवान श्रीकृष्ण के पितृव्य (चाचा) के पुत्र थे जिसे बाल्यकाल में ज्योतिष के आधार पर वनवासी भील राज निषादराज को सौंप दिया गया था। महाभारत काल में प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। एकलव्य अपना अंगूठा दक्षिणा में नहीं देते या गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा दक्षिणा में नहीं मांगते तो इतिहास में एकलव्य का नाम नहीं होता।
गुरुद्रोणाचार्य ने भीष्मपितामह को वचन दिया था कि वे कौरववंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे और अर्जुन को वचन दिया था कि तुमसे बड़ा कोई धनुर्धर नहीं होगा। बस इस वचन की लाज रखने के कारण ही गुरुद्रोणाचार्य ने एकलव्य का अपना शिष्य नहीं बनाया और जब उन्हें पता चला कि एकलव्य तो सबकुछ सीख गया है। तब उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में अंगुठा मांग लिया। द्रोणाचार्य ने जिस अर्जुन को महान सिद्ध करने के लिए एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया था, उसी अर्जुन के खिलाफ उन्हें युद्ध लड़ना पड़ा और उसी अर्जुन के पुत्र की हत्या का कारण भी वे ही बने थे और उसी अर्जुन के साले के हाथों वे मृत्यु को प्राप्त हुए थे।
2.इंद्रप्रस्थ में दुर्योधन : पांडव अपने रहने के लिए इंद्रप्रस्थ नामक एक शहर बसाते हैं और उसमें एक मायावी महल बनवाते हैं। यह महल मायावी असुर मयासुर बनाता है। इस महल की खासियत यह थी कि जहां पानी का ताल नजर आता था वहां फर्श होता था और जहां फर्श नजर आता था वहां पानी का ताल होता था। दुर्योधन के मन में भी इस महल को देखने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।
वह जैसे ही महल के अंदर प्रवेश किया तो उसको एक भव्य हाल नजर आया। उस हाल में सुंदर फर्श लगा हुआ था और उपर गैलरी में द्रौपदी खड़ी हुई थी। दुर्योधन जैसे ही फर्श पर पैर रखता है वह पानी की ताल में गिर जाता है। दरअसल फर्श जैसा नजर आने वाला वह एक पानी का ताल ही होता है। पानी का ताल अर्थात स्वीमिंग पूल। उपर गैलरी में देख रही द्रौपदी यह घटना देखकर खूब जोर से हंसती है और कहती है, 'अंधे का पुत्र अंधा।'...दुर्योधन इस घटना से बहुत शर्मिंदा होकर खुद को अपमानीत सा समझता है और मन ही मन द्रौपदी से बदला लेने की सोचने लगता है।
3.लाक्षागृह कांड : शकुनी की नीति के तहत दुर्योधन ने पांडवों के रुकने के लिए एक ऐसा महल बनवाया था, जो लाख से बना थे जिसे बाद में लाक्षागृह कहा गया। दुर्योधन की योजना के अनुसार इस महल में रात में चुपचाप से आग लगा दी गई थी ताकि सोते हुए पांडवों की इस महल में ही जलकर मृत्यु हो जाए। किन्तु पांडवों के जासूसों ने उन्हें इस योजना की सूचना देदी और वे रात को ही एक गुप्त सुरंग से निकल भागे। ये सुरंग आज भी है, जो हिंडन नदी के किनारे पर खुलती है। लाख से बनें महल के अवशेष आज भी बरनावा में पाए जाते हैं। यह बरनावा या वारणावत नामक स्थान मेरठ जिले में स्थित है।
4. भीम नहीं उठा पाएं थे हनुमानजी की पूंछ : सभी को यह घटना तो मालूम ही होगी की बलशाली भीम हनुमानजी की पूंछ नहीं उठा पाए थे। दरअसल, भीम कुंति के कहने पर कमलदल लेने के लिए जंगल में एक रास्ते से जा रहे थे तभी उन्हें रास्ते में लेटे के वानर नजर आया। भीम ने उसे वानर समझकर कहा कि, ऐ वानर! अपनी ये पूंछ हटाकर मुझे निकलने का रास्ता दो। वानर ने कहा कि तुम ही हटा लो पूंछ। भीम के लाख प्रयास के बाद भी जब पूंछ अपने स्थान से नहीं हटी तो भीम समझ गए कि ये कोई साधारण वानर नहीं है। भीम ने क्षमा मांगी।
कुछ विद्वान मानते हैं कि यह घटना गंधमादन पर्वत पर घटी थी। हिमालय के कैलाश पर्वत के उत्तर में (दक्षिण में केदार पर्वत है) स्थित गंधमादन पर्वत कुबेर के राज्यक्षेत्र में था। सुमेरू पर्वत की चारों दिशाओं में स्थित गजदंत पर्वतों में से एक को उस काल में गंधमादन पर्वत कहा जाता था। आज यह क्षेत्र तिब्बत के इलाके में है। इस क्षेत्र में दो रास्तों से जाया जा सकता है।
पहला नेपाल के रास्ते मानसरोवर से आगे और दूसरा भूटान की पहाड़ियों से आगे और तीसरा अरुणाचल के रास्ते चीन होते हुए। संभवत महाभारत काल में अर्जुन ने असम के एक तीर्थ में जब हनुमानजी से भेंट की थी, तो हनुमानजी भूटान या अरुणाचल के रास्ते ही असम तीर्थ में आए होंगे। हालांकि कुछ विद्वानों अनुसार उत्तराखंड में जोशीमठ से लगभग 25 किलोमीटर दूर हनुमान चट्टी है। यहां भीम और हनुमानजी की भेंट हुई थी और हनुमानजी ने भीम को महाभारत युद्ध में विजयी होने का आशीष दिया था।
5. रणछोड़दास : जरासंध ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए अपने मित्र कालयवन को बुलाया था। कालयवन की सेना ने मथुरा को घेर लिया। उसने मथुरा नरेश कृष्ण के नाम संदेश भेजा और कालयवन को युद्ध के लिए एक दिन का समय दिया। श्रीकृष्ण ने उत्तर में संदेश भेजा कि युद्ध केवल कृष्ण और कालयवन में हो, सेना को व्यर्थ क्यूं लड़ाएं। कालयवन ने स्वीकार कर लिया।
अक्रूरजी और बलरामजी ने कृष्ण को इसके लिए मना किया, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें कालयवन को शिव द्वारा दिए वरदान के बारे में बताया और यह भी कहा कि उसे कोई भी हरा नहीं सकता। श्रीकृष्ण ने यह भी बताया कि कालयवन राजा मुचुकुंद द्वारा मृत्यु को प्राप्त होगा। मुचुकंद एक वरदान के चलते चिरनिद्रां में सो रहे है। उन्हें जो जगायेगा वह मृत्यु को प्राप्त होगा।
जब कालयवन और कृष्ण में द्वंद्व युद्ध का जय हो गया तब कालयवन श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण तुरंत ही दूसरी ओर मुंह करके रणभूमि से भाग चले और कालयवन उन्हें पकडऩे के लिए उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। इस प्रकार भगवान बहुत दूर एक पहाड़ की गुफा में घुस गए। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहां उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा, मुझसे बचने के लिए श्रीकृष्ण इस तरह भेष बदलकर छुप गए हैं।
वह पुरुष बहुत दिनों से वहां सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आंखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखाई दिया। वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाए जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गई और वह क्षणभर में जलकर राख का ढेर हो गया। कालयवन को जो पुरुष गुफा में सोए मिले, वे इक्ष्वाकुवंशी महाराजा मांधाता के पुत्र राजा मुचुकुंद थे। इस तरह कालयवन का अंत हो गया। इस घटना के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण का नाम रणछोड़दास पड़ा।
6. जरासंध का वध : बिहार के राजगृह में अवस्थित है कंस के ससुर जरासंध का अखाड़ा। जरासंध बहुत बलवान था। मान्यता है की इसी स्थान पर भगवान श्री कृष्ण के इशारे पर भीम ने उसका वध किया था। राजगृह को राजगीर कहा जाता है। रामायण के अनुसार ब्रह्मा के चौथे पुत्र वसु ने 'गिरिव्रज' नाम से इस नगर की स्थापना की। बाद में कुरुक्षेत्र के युद्ध के पहले वृहद्रथ ने इस पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया। वृहद्रथ अपनी शूरता के लिए मशहूर था।
जरासंध को कोई मार नहीं सकता था। भीम ने उसके शरीर के दो टूकड़े कर दिए थे लेकिन उसके दोनों टूकड़े फिर जुड़ जाते थे। तब श्रीकृष्ण ने एक तिनके के सहरे भीम को इशारे से बताया कि तिनके तो दो टूकड़े करके दाएं टूकड़े को बाईं और और बाएं टूकड़े को दाईं ओर फेंक दो। भीम को यह इशारा समझ में आ गया और उसने तब दूसरी बार जरासंध को पकड़कर उसके जब दो फाड़ किये तो दोनों फाड़ को एक दूसरे की विपरित दिशा में फेंक दिया।
7.चीरहरण : महाभारत में द्युतक्रीड़ा के समय युद्धिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगा दिया और दुर्योधन की ओर से मामा शकुनि ने द्रौपदी को जीत लिया। उस समय दुशासन द्रौपदी को बालों से पकड़कर घसीटते हुए सभा में ले आया। जब वहां द्रौपदी का अपमान हो रहा था तब भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और विदुर जैसे न्यायकर्ता और महान लोग भी बैठे थे लेकिन वहां मौजूद सभी बड़े दिग्गज मुंह झुकाएं बैठे रह गए। इन सभी को उनके मौन रहने का दंड भी मिला।
देखते ही देखते दुर्योधन के आदेश पर दुशासन ने पूरी सभा के सामने ही द्रौपदी की साड़ी उतारना शुरू कर दी। सभी मौन थे, पांडव भी द्रोपदी की लाज बचाने में असमर्थ हो गए। तब द्रोपदी ने आंखें बंद कर वासुदेव श्रीकृष्ण का आव्हान किया। श्रीकृष्ण उस वक्त सभा में मौजूद नहीं थे। द्रौपदी ने कहा, ''हे गोविंद आज आस्था और अनास्था के बीच जंग है। आज मुझे देखना है कि ईश्वर है कि नहीं।'' तब श्रीहरि श्रीकृष्ण ने सभी के समक्ष एक चमत्कार प्रस्तुत किया और द्रौपदी की साड़ी तब तक लंबी होती गई जब तक की दुशासन बेहोश नहीं हो गया और सभी सन्न नहीं रह गए। सभी को समझ में आ गया कि यह चमत्कार है।
8.कर्ण का वध : कवच कुंडल उतर जाने के बाद, अमोघ अस्त्र नहीं होने के बावजूद कर्ण में अपार शक्तियां थी। युद्ध के सत्रहवें दिन शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया। इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हराकर कुंती को दिए वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लेता है। बाद में वह अर्जुन से युद्ध करने लग जाता है। कर्ण तथा अर्जुन के मध्य भयंकर युद्ध होता है।
जब अर्जुन बाण चलाते और वह कर्ण के रथ पर लगता तो उसका रथ दूर दूर तक पीछे चला जाता और जब कर्ण बाण चलाते तो अर्जुन का रथ कुछ कदम ही पीछे हटता था और ऐसे में श्रीकृष्ण कर्ण की बहुत तारीफ करते हैं। तब अर्जुन भगवान से कहते हैं कि आप कर्ण की तारीफ कर रहे हैं जिसके बाण से हमारा रथ मात्र कुछ कदम ही पीछे हट रहा है लेकिन मेरे बाण से तो उसका रथ कई गज पीछे जा रहा है। तब ऐसे में कृष्ण मुस्कुरा देते हैं।
तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया भूमी में धंस जाता है। इसी मौके का लाभ उठाने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन से तीर चलाने को कहते हैं। बड़े ही बेमन से अर्जुन असहाय अवस्था में कर्ण का वध कर देता है। इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते हैं। उनका मनोबल टूट जाता है। फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाए जाते हैं, परंतु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत में मार देते हैं।
9.द्रोण वध : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनकर युद्ध में कोहराम मचा देते हैं। अश्वत्थामा और उसने पिता द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से भेद का सहारा लेने को कहते हैं। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह सब कृष्ण की नीति के चलते हुआ, जिसकी बाद में बहुत आलोचना हुई। लेकिन युद्ध में यह बहुत जरूरी था।
10.जयद्रथ का वध : महाभारत युद्ध में जयद्रथ के कारण अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया था और दुर्योधन आदि योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उसे मार दिया था। इस जघन्नय अपराध के बाद अर्जुन प्रण लेते हैं कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो मैं स्वयं अग्नि समाधि ले लूंगा। इस प्रतिज्ञा से कौरवों में हर्ष व्याप्त हो जाता है और पांडवों में निराशा फैल जाती है। कौरव किसी भी प्रकार से जयद्रथ को सूर्योस्त तक बचाने और छुपान में लग जाते हैं। जब काफी समय तक अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुंच पाया तो श्रीकृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को कुछ देर के लिए छिपा दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त समझकर जयद्रथ खुद ही अर्जुन के सामने हंसता हुआ घमंड से आ खड़ा होता है। तभी उसी समय सूर्य पुन: निकल आता है और अर्जुन तुरंत ही जयद्रथ का वध कर देता है।
11.बर्बरीक का शीश : युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। बर्बरीक का एक तीर ही युद्ध के लिए काफी था। उसके इस चमत्कार को देखकर भगवान श्रीकृष्ण यह सोचने लगते हैं कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा। इस तरह वह दोनों ओर की सेना को एक ही तीर से खत्म कर देगा।
तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर सुबह बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुंच गए और दान मांगने लगे। बर्बरीक भी कर्ण की तरह दानवीर था। बर्बरीक ने कहा मांगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फंस गए और कृष्ण ने उससे उसका 'शीश' मांग लिया। बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया। बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात् श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है। जहां कृष्ण ने उसका शीश रखा था उस स्थान का नाम खाटू है।
12.दुर्योधन को जंघा से दो फाड़ करना : यदि दुर्योधन का संपूर्ण शरीर वज्र के समान बन जाता तो फिर उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। दरअसल, दुर्योधन की माता गांधारी ने अपने पुत्र को अपने पास नग्न अवस्था में बुलाया था ताकि वह अपनी आंखों के तेज से अपने पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर कर दें। माता की आज्ञा का पालन करने के लिए दुर्योधन भी नग्न अवस्था में ही जा रहा था, तभी रास्ते में श्री कृष्ण ने दुर्योधन को रोककर कहा कि इस अवस्था में माता के सामने जाओगे तो तुम्हें शर्म नहीं आएगी? क्या यह पाप नहीं होगा? यह सुनकर दुर्योधन ने अपने पेट के नीचे जांघ वाले हिस्से पर केले का पत्ता लपेट लिया और इसी अवस्था में गांधारी के सामने पहुंच गया। गांधारी ने अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर पर दिव्य दृष्टि डाली। इस दिव्य दृष्टि के प्रभाव से दुर्योधन की जांघ के अलावा पूरा शरीर लोहे के समान हो गया। युद्ध में भीम ने दुर्योधन की जांघ उखाड़ कर फेंक दी थी जिसके चलते उसकी मृत्यु हो गई थी।
13.अश्वत्थामा को शाप : महाभारत में द्रोण पुत्र अश्वत्थामा एक ऐसा योद्धा था, जो अकेले के ही दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था। जब युद्ध के अंत में अश्वत्थामा को सेनापति बनाया तो उसने युद्ध के नियम के विपरित एक रात्रि में ही पांडवों की बची लाखों सेनाओं, पुत्रों और गर्भ में पल रहे पांडवों के पुत्रों तक को मौत के घाट उतार दिया था।
उसने ब्रह्मास्त्र छोड़े जाने का दुस्साहस भी किया था जिसके जवाब में अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया था। वेद व्यास दोनों को सलाह दी कि इससे धरती का विनाश हो जाएगा अत: अपने अपे ब्रह्मास्त्र वापस लो। अर्जुन ने तो अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र वापस लेना नहीं याद था तो उसने उसे अर्जुन के पुत्र अभिम्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ पर उतारा दिया जिसके चलते गर्भस्त्र शिशु मारा गया।
अश्वत्थामा के इस नरसंहार के बाद पांडवों में विरक्ति का भाव आ गया था। वे जीतकर भी हार गए थे। उनका सब कुछ नष्ट हो गया था। यही कारण था कि श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 3,000 वर्षों तक कोढ़ी के रूप में रहकर भटकने का शाप दे दिया और उत्तरा के गर्भ को पुन: जीवित कर दिया था।