यह बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि शकुनि के पास जुआ खेलने के लिए जो पासे होते थे वह उसके मृत पिता के रीढ़ की हड्डी के थे। अपने पिता की मृत्यु के पश्चात शकुनि ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख ली थीं। शकुनि जुआ खेलने में पारंगत था और उसने कौरवों में भी जुए के प्रति मोह जगा दिया था।
शकुनि की इस चाल के पीछे सिर्फ पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी भयंकर विनाश छिपा था, क्योंकि शकुनि ने कौरव कुल के नाश की सौगंध खाई थी और उसके लिए उसने दुर्योधन को अपना मोहरा बना लिया था। शकुनि हर समय बस मौकों की तलाश में रहता था जिसके चलते कौरव और पांडवों में भयंकर युद्ध छिड़ें और कौरव मारे जाएं।
जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर का युवराज घोषित हुआ, तब शकुनि ने ही लाक्षागृह का षड्यंत्र रचा और सभी पांडवों को वारणावत में जिंदा जलाकर मार डालने का प्रयत्न किया। शकुनि किसी भी तरह दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनते देखना चाहता था ताकि उसका दुर्योधन पर मानसिक आधिपत्य रहे और वह इस मुर्ख दुर्योधन की सहायता से भीष्म और कुरुकुल का विनाश कर सके अतः उसने ही पांडवों के प्रति दुर्योधन के मन में वैरभाव जगाया और उसे सत्ता का लोलुप बना दिया।
ऐसा भी कहा जाता है कि शकुनि के पासे में उसके पिता की आत्मा वास कर गई थी जिसकी वजह से वह पासा शकुनि की ही बात मानता था। कहते हैं कि शकुनि के पिता ने मरने से पहले शकुनी से कहा था कि मेरे मरने के बाद मेरी हड्डियों से पासा बनाना, ये पासे हमेशा तुम्हारी आज्ञा मानेंगे, तुमको जुए में कोई हरा नहीं सकेगा।
यह भी कहा जाता है कि शकुनि के पासे के भीतर एक जीवित भंवरा था जो हर बार शकुनि के पैरों की ओर आकर गिरता था। इसलिए जब भी पासा गिरता वह छ: अंक दर्शाता था। शकुनि भी इस बात से वाकिफ़ था इसलिए वह भी छ: अंक ही कहता था। शकुनि का सौतेला भाई मटकुनि इस बात को जानता था कि पासे के भीतर भंवरा है।
हालांकि शकुनि की बदले की भावना कि इस कहानी का वर्णन वेदव्यास कृत महाभारत में नहीं मिलता है। यह कहानी लोककथा और जनश्रुतियों पर आधारित है कि उसके परिवार को धृतराष्ट्र ने जेल में डाल दिया था जहां उसके माता, पिता और भाई भूख से मारे गए थे। बहुत से विद्वानों का मत है कि शकुनि के पासे हाथीदांत के बने हुए थे। शकुनि मायाजाल और सम्मोहन की मदद से पासो को अपने पक्ष में पलट देता था। जब पांसे फेंके जाते थे तो कई बार उनके निर्णय पांडवों के पक्ष में होते थे, ताकि पांडव भ्रम में रहे कि पासे सही है।
जानिए पूरी कथा :
शकुनि के कारण ही महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवों व कौरवों में होने वाले विभाजन के बाद पांडवों को एक बंजर पड़ा क्षेत्र सौंपा गया था, लेकिन पांडवों ने अपनी मेहनत से उसे इंद्रप्रस्थ में बदल दिया। युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के दौरान दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला। महल में प्रवेश करने के बाद एक विशाल कक्ष में पानी की उस भूमि को दुर्योधन ने गलती से असल भूमि समझकर उस पर पैर रख दिया और वह उस पानी में गिर गया। यह देख पांडवों की पत्नी द्रौपदी उन पर हंस पड़ीं और कहा कि 'एक अंधे का पुत्र अंधा ही होता है'। यह सुन दुर्योधन बेहद क्रोधित हो उठा।
दुर्योधन के मन में चल रही बदले की इस भावना को शकुनि ने हवा दी और इसी का फायदा उठाते हुए उसने पासों का खेल खेलने की योजना बनाई। उसने अपनी योजना दुर्योधन को बताई और कहा कि तुम इस खेल में हराकर बदला ले सकते हो। खेल के जरिए पांडवों को मात देने के लिए शकुनि ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु पुत्रों को खेलने के लिए आमंत्रित किया और फिर शुरू हुआ दुर्योधन व युधिष्ठिर के बीच पासा फेंकने का खेल। शकुनि पैर से लंगड़ा तो था, पर चौसर अथवा द्यूतक्रीड़ा में अत्यंत प्रवीण था। उसकी चौसर की महारथ अथवा उसका पासों पर स्वामित्व ऐसा था कि वह जो चाहता वे अंक पासों पर आते थे। एक तरह से उसने पासों को सिद्ध कर लिया था कि उसकी अंगुलियों के घुमाव पर ही पासों के अंक पूर्वनिर्धारित थे।
खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढ़ाने के लिए शकुनि ने दुर्योधन को आरंभ में कुछ पारियों की जीत युधिष्ठिर के पक्ष में चले जाने को कहा जिससे कि पांडवों में खेल के प्रति उत्साह उत्पन्न हो सके। धीरे-धीरे खेल के उत्साह में युधिष्ठिर अपनी सारी दौलत व साम्राज्य जुए में हार गए।
अंत में शकुनि ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा किया कि यदि वे अपने बाकी पांडव भाइयों व अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाएं। मजबूर होकर युधिष्ठिर ने शकुनि की बात मान ली और अंत में वे यह पारी भी हार गए। इस खेल में पांडवों व द्रौपदी का अपमान ही कुरुक्षेत्र के युद्ध का सबसे बड़ा कारण साबित हुआ।