महाराष्ट्र में जारी राजनीतिक जोड़तोड़ के बीच एनसीपी मुखिया शरद पवार का प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलना किसी 'बड़ी घटना' का संकेत माना जा रहा है क्योंकि कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि राजनीति के चूल्हे पर चढ़ी 'सत्ता की हांडी' को छोड़कर एक राजनेता यूं ही इधर-उधर भटके। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक दो दिग्गजों की इस मुलाकात के निहितार्थ ढूंढने में जुट गए हैं।
महाराष्ट्र के हाल के राजनीतिक घटनाक्रमों पर नजर डालें तो घटनाक्रम बहुत ही तेजी से बदल रहे हैं। पहले भाजपा-शिवसेना की सरकार बनने की कवायद शुरू हुई, लेकिन इसी बीच 'कुर्सी के खेल' ने कुछ अलग ही रंग ले लिया। मैया (मोदी) मैं तो चंद्र खिलौना (CM) लैहों....की तर्ज पर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे 'कोप भवन' में जाकर बैठ गए और 30 साल पुरानी दोस्ती टूट गई।
हालांकि दोस्ती में दरार तो 2014 में ही आ गई थी, जब दोनों पार्टियों ने महाराष्ट्र में अलग होकर चुनाव लड़ा था, लेकिन 2019 आते-आते संबंधों में पैदा हुई गांठ और बड़ी हो गई। यही कारण रहा कि जिस कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने वाले उद्धव उसी के दरवाजे पर जाकर समर्थन की गुहार लगाने लगे। मुस्लिम वोटों के मोह में कांग्रेस भी उन्हें अब तक झुला रही है।
इस पूरी राजनीति के महत्वपूर्ण कोण महाराष्ट्र के मराठा नेता शरद पवार ने शुरू में जिस तरह से भूमिका निभाई उससे ऐसा लग रहा था कि वे कांग्रेस से सहयोग दिलवाकर उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाकर ही दम लेंगे। लेकिन, उनकी हां-ना में शिवसेना ऐसी उलझी कि छटपटाहट के सिवाय वह कुछ कर भी नहीं पा रही है। शिवसेना की मुश्किल पार्टी के 'बयानवीर' संजय राउत के बयान से समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा कि मोदी को समझने के लिए 25 साल चाहिए तो शरद पवार को समझने के लिए 100 साल लगेंगे।
इस पूरे घटनाक्रम में मराठा सरदार का मोदी से मिलना कहीं न कहीं राउत के बयान पर ही मोहर लगाता है। बताया जा रहा है कि शरद पवार भाजपा के पक्ष में झुक सकते हैं। मोदी ने भी संसद में पवार की पार्टी एनसीपी की तारीफ कर कुछ ऐसे ही संकेत छोड़े हैं। अहम बात यह है कि यह मामला जितना लंबा खिंचेगा, भाजपा को शिवसेना या दूसरी पार्टियों के विधायकों को तोड़ने में आसानी रहेगी। ऐसी अटकलें भी हैं कि शिवसेना के विधायक टूट सकते हैं।
यदि जल्दी ही महाराष्ट्र में नई सरकार पर कोई निर्णय नहीं होता है तो विधायक इसलिए भी आसानी से टूट जाएंगे क्योंकि कोई भी फिर से चुनाव नहीं चाहेगा।
जरूरी नहीं कि इस बार चुने गए विधायक फिर से जीतकर विधानसभा पहुंच जाएं। अत: पार्टी से ज्यादा वे अपनी विधायकी बचाना चाहेंगे। ऐसे में पवार की इस मुलाकात को किसानों की समस्याओं से जोड़कर कम देखा जा रहा है बल्कि मोदी के 'पॉवर शिफ्टिंग' गेम से जोड़कर ज्यादा देखा जा रहा है।