Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

'हिन्द स्वराज' के बहाने गांधीजी की याद...

हमें फॉलो करें 'हिन्द स्वराज' के बहाने गांधीजी की याद...
webdunia

संजय द्विवेदी

महात्मा गांधी की मूलत: गुजराती में लिखी पुस्तक 'हिन्द स्वराज' हमारे समय के तमाम सवालों से जूझती है। महात्मा गांधी की यह बहुत छोटी-सी पुस्तिका कई सवाल उठाती है और अपने समय के सवालों के वाजिब उत्तरों की तलाश भी करती है। सबसे महत्व की बात है पुस्तक की शैली। यह किताब प्रश्नोत्तर की शैली में लिखी गई है। पाठक और संपादक के सवाल-जवाब के माध्यम से पूरी पुस्तक एक ऐसी लेखन-शैली का प्रमाण है जिसे कोई भी पाठक बेहद रुचि से पढ़ना चाहेगा। यह पूरा संवाद महात्मा गांधी ने लंदन से दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए लिखा था।
 
1909 में लिखी गई यह किताब मूलत: यांत्रिक प्रगति और सभ्यता के पश्चिमी पैमानों पर एक तरह हल्लाबोल है। गांधीजी इस कल्पित संवाद के माध्यम से एक ऐसी सभ्यता और विकास के ऐसे प्रतीकों की तलाश करते हैं जिनसे आज की विकास की कल्पनाएं बेमानी साबित हो जाती हैं।
 
गांधीजी इस मामले में बहुत साफ थे कि सिर्फ अंग्रेजों के देश के चले से भारत को सही स्वराज्य नहीं मिल सकता। वे साफ कहते हैं कि हमें पश्चिमी सभ्यता के मोह से बचना होगा। पश्चिम के शिक्षण और विज्ञान से गांधीजी अपनी संगति नहीं बिठा पाते। वे भारत की धर्मपरायण संस्कृति में भरोसा जताते हैं और भारतीयों से आत्मशक्ति के उपयोग का आह्वान करते हैं। 
 
भारतीय परंपरा के प्रति अपने गहरे अनुराग के चलते वे अंग्रेजों की रेल व्यवस्था, चिकित्सा व्यवस्था, न्याय व्यवस्था सब पर सवाल खड़े करते हैं, जो एक व्यापक बहस का विषय हो सकता है। हालांकि उनकी इस पुस्तक की तमाम क्रांतिकारी स्थापनाओं से देश और विदेश के तमाम विद्वान सहमत नहीं हो पाते। स्वयं गोपालकृष्ण गोखले जैसे महान नेता को भी इस किताब में कच्चापन नजर आया। गांधीजी के यंत्रवाद के विरोध को दुनिया के तमाम विचारक सही नहीं मानते। 
 
मिडलटन मरी कहते हैं- 'गांधीजी अपने विचारों के जोश में यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरत की नहीं, इंसान की बनाई हुई चीज है।' हालांकि जब दिल्ली की एक सभा में उनसे यह पूछा गया कि क्या आप तमाम यंत्रों के खिलाफ हैं? तो महात्मा गांधी ने अपने इसी विचार को कुछ अलग तरह से व्यक्त किया। महात्मा गांधी ने कहा कि- 'वैसा मैं कैसे कह सकता हूं, जब मैं यह जानता हूं कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है। खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी सी दांत कुरेदनी भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रों के लिए नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है।'
 
गांधीजी यह भी कहते हैं कि मेरा उद्देश्य तमाम यंत्रों का नाश करना नहीं बल्कि उनकी हद बांधने का है। अपनी बात को साफ करते हुए गांधीजी ने कहा कि ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिए, जो काम न रहने के कारण आदमी के अंगों को जड़ और बेकार बना दें। कुल मिलाकर गांधी, मनुष्य को पराजित होते नहीं देखना चाहते हैं। वे मनुष्य की मुक्ति के पक्षधर हैं। उन्हें मनुष्य की शर्त पर न मशीनें चाहिए, न कारखाने।
 
महात्मा गांधी की सबसे बड़ी देन यह है कि वे भारतीयता का साथ नहीं छोड़ते, उनकी सोच धर्म पर आधारित समाज रचना को देखने की है। वे भारत की इस असली शक्ति को पहचानने वाले नेता हैं। 
 
वे साफ कहते हैं- 'मुझे धर्म प्यारा है इसलिए मुझे पहला दुख तो यह है कि हिन्दुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्म का अर्थ मैं हिन्दू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मों के अंदर जो धर्म है, वह हिन्दुस्तान से जा रहा है, हम ईश्वर से विमुख होते जा रहे हैं।'
 
वे धर्म के प्रतीकों और तीर्थस्थलों को राष्ट्रीय एकता के एक बड़े कारक के रूप में देखते थे। वे कहते हैं- 'जिन दूरदर्शी पुरुषों ने सेतुबंध रामेश्वरम्, जगन्नाथपुरी और हरिद्वार की यात्रा निश्चित की उनका आपकी राय में क्या ख्याल रहा होगा? वे मूर्ख नहीं थे। यह तो आप भी कबूल करेंगे। वे जानते थे कि ईश्वर-भजन घर बैठे भी होता है।'
 
गांधीजी राष्ट्र को एक पुरातन राष्ट्र मानते थे। ये उन लोगों को एक करारा जवाब भी है, जो यह मानते हैं कि भारत तो कभी एक राष्ट्र था ही नहीं और अंग्रेजों ने उसे एकजुट किया। एक व्यवस्था दी। इतिहास को विकृत करने की इस कोशिश पर गांधीजी का गुस्सा साफ नजर आता है। वे 'हिन्द स्वराज' में लिखते हैं- 'आपको अंग्रेजों ने सिखाया कि आप एक राष्ट्र नहीं थे और एक राष्ट्र बनने में आपको सैकड़ों बरस लगे। जब अंग्रेज हिन्दुस्तान में नहीं थे तब हम एक राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे। हमारा रहन-सहन भी एक था। तभी तो अंग्रेजों ने यहां एक राज्य कायम किया।' 
 
गांधीजी अंग्रेजों की इस कूटनीति पर नाराजगी जताते हुए कहते हैं- 'दो अंग्रेज जितने एक नहीं हैं उतने हम हिन्दुस्तानी एक थे और एक हैं।' 'एक राष्ट्र-एक जन' की भावना को महात्मा गांधी बहुत गंभीरता से परिभाषित करते हैं। वे हिन्दुस्तान की आत्मा को समझकर उसे जगाने के पक्षधर थे। उनकी राय में हिन्दुस्तान का आम आदमी देश की सब समस्याओं का समाधान है।
 
महात्मा गांधी की राय में धर्म की ताकत का इस्तेमाल करके ही हिन्दुस्तान की शक्ति को जगाया जा सकता है। वे हिन्दू और मुसलमानों के बीच फूट डालने की अंग्रेजों की चाल को बेहतर तरीके से समझते थे। वे इसीलिए याद दिलाते हैं कि हमारे पुरखे एक हैं, परंपराएं एक हैं। वे लिखते हैं- 'बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुंचने के अलग-अलग रास्ते हैं।'
 
गांधीजी बुनियादी तौर पर देश को एक होते देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि ऐसे सवाल जो देश का तोड़ने का कारण बन सकते हैं, उन पर बुनियादी समझ एक होनी चाहिए। शायद इसीलिए सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ वे लगातार बोलते और लिखते रहे, वहीं सांप्रदायिक एकता को मजबूत करने के लिए वे ताजिंदगी प्रयास करते रहे। हिन्दू-मुस्लिम की एकता उनमें औदार्य भरने के हर जतन उन्होंने किए। 
 
हमारी राजनीति की मुख्य धारा के नेता अगर गांधीजी की इस भावना को समझ पाते तो देश का बंटवारा शायद न होता। इस बंटवारे के विष-बीज आज भी इस महादेश को तबाह किए हुए हैं। यहां गांधीजी की जरूरत समझ में आती है कि वे आखिर हिन्दू-मुस्लिम एकता पर इतना जोर क्यों देते रहे? वे संवेदनशील सवालों पर एक समझ बनाना चाहते थे, जैसे कि गाय की रक्षा का प्रश्न। वे लिखते हैं कि 'मैं खुद गाय को पूजता हूं यानी मान देता हूं। गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी है, यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।'
 
गांधीजी का 'हिन्द स्वराज' मनुष्य की मुक्ति की किताब है। यह एक आदमी के जीवन में भी क्रांति ला सकती है। ये राह दिखाती है। सोचने की ऐसी राह जिस पर आगे बढ़कर हम नए रास्ते तलाश सकते हैं। मुक्ति की ये किताब भारत की आत्मा में उतरे हुए शब्दों से बनी है जिसमें द्वंद हैं, सभ्यता का संघर्ष है किंतु चेतना की एक ऐसी आग है, जो हमें और तमाम जिंदगियों को रोशन करती हुई चलती है। गांधीजी की इस किताब की रोशनी में हमें अंधेरों को चीरकर आगे आने की कोशिश तो करनी ही चाहिए।
 
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

वित्तमंत्री अरुण जेटली ने आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया