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गांधीजी न शांतिवादी थे, न समाजवादी.... फिर क्या थे....क्या बापू आज फिर अकेले पड़ गए हैं

हमें फॉलो करें गांधीजी न शांतिवादी थे, न समाजवादी.... फिर क्या थे....क्या बापू आज फिर अकेले पड़ गए हैं
डॉ. बी.एस. भंडारी
 
 
गांधीजी न तो शांतिवादी थे, न ही समाजवादी और न ही व्याख्यामय राजनीतिक रंग में रंगने वाले व्यक्ति थे। वे बस, जीवन के शुद्ध विद्यमान सत्यों से जुड़े रहे। और इसी को आधार बनाकर उन्होंने सारे निर्णय लिए। गांधीजी का जीवन इस बात का साक्षी है तथा प्रेरित करता है कि सत्य का आचरण किया जा सकता है। अहिंसा, मानवीय स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के प्रति गाँधीजी की प्रतिबद्धता सावधानीपूर्वक व्यक्तिगत परीक्षण के बाद जीवन के सत्य से ही पैदा हुई थी।
 
यह कोई जरूरी तो नहीं है कि महात्मा गांधीजी को हम केवल गांधी जयंती या पुण्यतिथि को ही याद करें। महात्मा गांधी को तो हर दिन, हर वक्त याद रखने की जरूरत है, भले ही हम उनके सोच और कार्यक्रमों से सहमत हों या सहमत नहीं हों। 
 
उन्होंने जो कुछ किया और जो रास्ता बतलाया उसका महत्व किसी भी हालत में कम नहीं हो सकता। उनके जीवनकाल में ही उनका विरोध करने वाले अनेक लोग थे। उनका होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि स्वयं गांधीजी ने उनका विरोध किया था। ब्रिटिश साम्राज्य के समर्थक, देश का विभाजन चाहने वाले, हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वाले, हिंसा को साधन मानने वाले, पूंजीवादी और साम्यवादी व्यवस्था में विश्वास रखने वाले और धार्मिक दुराग्रह रखने वाले लाखों लोग तब भी गांधीजी के विरोधी थे। हजारों लोग तब भी और आज भी गांधीजी के विचारों और कार्यक्रमों की मजाक बनाने में नहीं हिचकिचाए। मगर गांधीजी कभी विचलित नहीं हुए और अकेले या जो भी साथ आया, उसको लेकर अपने रास्ते पर आगे बढ़ते गए। 
 
गांधीजी आज फिर अकेले पड़ गए हैं। अब तो न कोई जवाहरलाल, वल्लभभाई, मौलाना आजाद, सुशीला नैयर, प्यारेलाल, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे या कुमाराप्पा हैं और न माउंटबेटन, आइंस्टीन, रवीन्द्रनाथ टैगोर, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी या घनश्यामदास बिड़ला, जो उनकी सलाह मांगें। अब तो ज्यादातर लोग वे हैं जो उनकी मूर्तियां लगाने, उनकी तस्वीरें छपवाने या उनकी जय के नारे लगाकर सत्ता, लाइसेंस या मुनाफा बटोरने को उत्सुक हैं। थोड़े-बहुत लोग वे भी बचे हैं जो उन्हें देश-विभाजन का जिम्मेदार मानने या वैज्ञानिक प्रगति का विरोध करने वाला मानने की भूल कर बैठते हैं।  
 
मूर्तियां खंडित हो रही हैं, तस्वीरों पर धूल जम रही है और गांधीजी केवल नोटों पर छपने के कारण पहचाने जा रहे हैं। गांधीजी की आवाज तो लोग भूल ही गए हैं, मगर उनका बोला और लिखा उन किताबों में कैद हो गया है, जो पढ़ी नहीं जातीं। गांधीजी के विचार और कार्यक्रम उन लोगों के पास रह गए हैं, जो गांधीजी के नाम से जुड़कर अपना अस्तित्व कायम रखे हैं।  
 
अब क्या गांधीजी वापस आएंगे? नहीं। अब तो यह यकीन करना भी कठिन है कि गांधीजी इस धरती पर पैदा हुए थे। उनकी हर बात से हम अपने को दूर कर रहे हैं। विश्व-शांति की बात तो कर रहे हैं, मगर सेना, सुरक्षा, परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष अनुसंधान पर अरबों रुपया व्यय कर रहे हैं। सत्य की खोज में लगे हैं और अपने भक्तों व परिवार के सदस्यों से ही झूठ बोल रहे हैं। विज्ञापनों में बड़े अक्षरों व तस्वीरों में जो लिखते हैं, उसका अपवाद पढ़े न जा सकने वाले छोटे अक्षरों में छापते हैं।

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