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मंगल ग्रह और मंगल देव के मंदिर पर विशेष जानकारी

मंगल ग्रह देवता का अतिदुर्लभ मंदिर, मंगल जहां स्थित है देवता स्वरूप

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श्री डिगंबर महाले

'मंगल ग्रह महात्म्य' पर प्रस्तुत आलेख किसी अंधश्रद्धा का प्रसारण नहीं करता, किंतु आकाश स्थित ग्रह और उनके प्रभाव का विज्ञानादि व पौराणिक महत्व श्रद्धा और परंपरानुसार स्पष्ट करता है। इस लेखन का प्रयास श्रद्धालु तथा भक्तों की इच्छा, अपेक्षा, शंकाओं की सापेक्षता, अनुभूतिजन्य और प्रभावित चिकित्सा की जानकारी प्रेषित करना है।
 
विस्तीर्ण आकाश में सौरमंडल कार्यरत है। पृथ्‍वी और उस पर स्थित सभी जीव सौरमंडल के केंद्रित घटक हैं। सौरमंडल का कार्यान्वयन एक सिस्टम से करोड़ों वर्ष पूर्वापार हो रहा है। पृथ्वी पर जब जीव का निर्माण हुआ, उस वक्त किसी को कल्पना भी नहीं थी कि अवकाश में सौरमंडल भी कार्यरत होता है। जैसे-जैसे मानव अनुभवी होता गया, उसे पृथ्वी भवताल के ग्रह और तारों का ज्ञान होता गया। पृथ्वी अपने आप में गुरुत्वाकर्षण शक्ति धारण करती है। इस विज्ञान सूत्र का साक्षात्कार मानव को कई वर्षों बाद हुआ। पृथ्वी से संलग्न उपग्रह चंद्रमा भी अपने आप में गुरुत्वाकर्षण शक्ति धारण करता है। उसी के कारण पूर्णिमा और अमावस्या को पृथ्वी स्थित समंदर में उफान आता है। इसका ज्ञान भी विज्ञान की कक्षा विस्तार के बाद हुआ।
 
खगोलशास्त्रीय बहुतांश घटनाओं का कारण और परिणाम आज भी विज्ञान सिद्ध नहीं कर पाया है। किंतु भारतीय ऋषियों व मुनियों ने अपने निरीक्षण, अनुभव के आधार पर आकाश में स्थित ग्रह और तारों के प्रभाव और परिणाम को जांचा है, परखा है। यह क्रिया किसी एक पीढ़ी में पूर्ण नहीं हुई, करोड़ों वर्ष लगे इसका विस्तार होने के लिए। इसी निरीक्षण पर आधारित हिन्दू धर्म के वेद, पुराण आदि धर्मग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। भारतीय खगोल शास्त्र और उसी के साथ हमारे ज्योतिष शास्त्रा का विस्तार हुआ है। यह दोनों शास्त्र परस्पर पूरक और परस्पर आधारित है।
 
आज का विज्ञान मंगल ग्रह के प्रभाव को मान्य करता है। अमेरिका जैसा देश मंगल ग्रह पर अवकाश यान में मानव को भेजने का प्रयास कर रहा है। भारतीय अवकाश संशोधन संस्था इसरो ने भी मंगल ग्रह पर मानव विरहित यान भेजा है। मंगल ग्रह संदर्भ में यह विश्वभर की उत्सुकता, उसके प्रभाव और परिणाम को अधिक स्पष्‍ट कर रही है। मंगल ग्रह के इसी प्रभाव को हम अध्यात्म, परंपरा, दैववाद और विज्ञानवाद पर जरूर परखने वाले हैं।
 
जैसे-जैसे मनुष्य को ग्रह और तारों के प्रभाव का अनुमान होने लगा, वैसे-वैसे मनुष्य ने उन ग्रह व तारों को देवतास्वरूप स्वीकार कर लिया। हमारी संस्कृति सिंधु सह हड़प्पा से शुरू होती है। इस संस्कृति में सूर्य, चंद्र, वायु, आकाश और जल को पंच महाभूत माना गया है। वैसे ही मंगल ग्रह को भी देवता स्वरूप स्वीकार कर उसके प्रभाव को कारक यानी करने वाला माना गया है।
 
सिंधु संस्कृति प्राणी मात्र को भी देवता स्वरूप मानती थी। उस कारण वृषभ, अश्व, श्वान, मत्स्य, कासव, व्याघ्र, हिरण, मोर, मूषक- इनको भी देवता के स्वरूप में स्वीकार कर मनुष्यके जन्म कुंडली में ग्रह या फिर राशि स्वरूप में सम्मान दिया गया है। यह परंपरा की धरोहर है। इसी प्रकार मंगल ग्रह के अस्तित्व को अनुभावित कर उसके प्रभाव कारण उसे भी मंगल ग्रह देवता का स्वरूप दिया गया है।
 
भारत के महाराष्‍ट्र राज्य के जलगांव जिले में अमलनेर तहसील में मंगल ग्रह देवता का अतिदुर्लभ मंदिर है। यहां पर मंगलकारक देवता का आवाहन कर उसीसे संबंधित सारी पूजा विधि का अनुष्ठान किया जाता है तथा हर मंगलवार को मंगल ग्रह देवता की शांति की लिए अभिषेक किया जाता है। मंगल ग्रह के प्रभाव और परिणाम का यह एक पारंपरिक शांति प्रयास है। यहां पर किसी अंधश्रद्धा का प्रचार-प्रसार नहीं होता है, न ही किसी श्रद्धालु या भक्त की भावनाओं का अवमान होता है। मंगल ग्रह देवता के महात्म्यनुसार केवल उसकी आराधना और मंगलमय कारकता का आवाहन होता है। हम लोग इस ब्लॉग के माध्यम से मंगल ग्रह देवता के पारंपरिक और विज्ञानाधारित प्रभाव को संयमता और श्रद्धा से समझने की कोशिश जरूर करेंगे।
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जय मंगल ग्रह देवता की...!
प्रश्न या जिज्ञासा के विषय में इस मेल एड्रेस पर संपर्क कर सकते हैं।

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