स्वामी विवेकानंद
एक ओर नया भारत कहता है कि हमको पति-पत्नी चुनने में पूरी स्वतंत्रता चाहिए, क्योंकि जिस विवाह पर हमारे भविष्य जीवन का सारा सुख-दु:ख निर्भर है, उसका हम अपनी इच्छा से चुनाव करेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत की आज्ञा होती है कि विवाह इंद्रिय-सुख के लिए नहीं वरन् सन्तानोत्पत्ति के लिए है। इस देश की यही धारणा है। संतान उत्पन्न करके समाज में भावी हानि-लाभ के तुम कारण हो, इसलिए जिस प्रणाली से विवाह करने में समाज का सबसे अधिक कल्याण होना संभव है, वही प्रणाली समाज में प्रचलित है। तुम समाज के सुख के लिए अपने सुख-भोग की इच्छा त्यागो।
एक ओर नया भारत कहता है कि पाश्चात्य भाव, भाषा, खान-पान और वेशभूषा का अवलम्बन करने से ही हम लोग पाश्चात्य जातियों की भाँति शक्तिमान हो सकेंगे। दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि मूर्ख ! नकल करने से भी कहीं दूसरों का भाव अपना हुआ है? बिना उपार्जन किए कोई वस्तु अपनी नहीं होती। क्या सिंह की खाल पहनकर गधा कहीं सिंह हुआ है?
एक ओर नवीन भारत कहता है कि पाश्चात्य जातियाँ जो कुछ कर रही हैं, वही अच्छा है। अच्छा नहीं है, तो वे बलवान कैसे हुए? दूसरी ओर प्राचीन भारत कहता है कि बिजली की चमक तो खूब होती है, पर क्षणिक होती है। बालक! तुम्हारी आँखें चौंधियाँ रही हैं, सावधान!
तो क्या हमें पाश्चात्य जगत से कुछ भी सीखने को नहीं है? क्या हमें चेष्टा या प्रयत्न करने की जरूरत नहीं है? क्या हम सब प्रकार से पूरे हैं? क्या हमारा समाज पूर्णतया निश्छद्र है? नहीं, सीखने को बहुत कुछ है। प्रयत्न तो हमें जीवनभर करना चाहिए। प्रयत्न ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। श्री रामकृष्ण देव कहा करते थे, 'जब तक जिऊँ, तब तब सीखूँ।' जिस व्यक्ति या समाज को कुछ सीखना ही नहीं है, वह मृत्यु के मुँह में जा चुका। सीखने को तो है, परंतु भय भी है।
एक कम बुद्धिवाला लड़का श्री रामकृष्ण देव के सामने सदा शास्त्रों की निंदा किया करता था। उसने एक बार गीता की बड़ी प्रशंसा की। इस पर श्री रामकृष्ण देव ने कहा, 'किसी अँग्रेज विद्वान ने गीता की प्रशंसा की होगी। इसलिए यह भी उसकी प्रशंसा कर रहा है।'
ऐ भारत ! यही विकट भय का कारण है। हम लोगों में पाश्चात्य जातियों की नकल करने की इच्छा ऐसी प्रबल होती है कि भले-बुरे का निश्चय अब विचार-बुद्धि, शास्त्र या हिताहित ज्ञान से नहीं किया जाता। गोरे लोग जिस भाव और आचार की प्रशंसा करें, वहीं अच्छा है और वे जिसकी निंदा करें, वही बुरा ! अफसोस ! इससे बढ़कर मूर्खता का परिचय और क्या होगा?
पाश्चात्य स्त्रियाँ स्वाधीन भाव से फिरती हैं, इसलिए वही चाल अच्छी है, वे अपने लिए वर आप चुन लेती हैं, इसलिए वही उन्नति का उच्चतम सोपान है, पाश्चात्य पुरुष हम लोगों की वेश-भूषा, खान-पान को घृणा की दृष्टि से देखते हैं, इसलिए हमारी ये चीजें बहुत बुरी हैं, पाश्चात्य लोग मूर्ति-पूजा को खराब कहते हैं, तो वह भी बड़ी ही खराब होगी, क्यों न हो?
पाश्चात्य लोग एक ही देवता की पूजा को कल्याणप्रद बताते हैं, इसलिए अपने देव-देवियों को गंगा में फेंक दो। पाश्चात्य लोग जाति-भेद को घृणित समझते हैं, इसलिए सब वर्णों को मिलाकर एक कर दो। पाश्चात्य लोग बाल्य विवाह को सव अनर्थों का कारण कहते हैं, इसलिए वह भी अवश्य ही बहुत खराब होगा।
यहाँ पर हम इस बात का विचार नहीं करते कि ये प्रथाएँ चलनी चाहिए अथवा रुकनी चाहिए। परंतु यदि पाश्चात्य लोगों की घृणा-दृष्टि के कारण ही हमारे रीति-रिवाज बुरे साबित होते हों, तो उसका प्रतिवाद अवश्य होना चाहिए। वर्तमान लेखक को पाश्चात्य समाज का कुछ प्रत्यक्ष ज्ञान है। इसी से उसका विश्वास है कि पाश्चात्य समाज और भारत-समाज की मूल गति और उद्देश्य में इतना अंतर है कि पाश्चात्यों के अनुकरण पर गठित समाज इस देश में किसी काम का न होगा। जो लोग पाश्चात्य समाज में नहीं रहे हैं और वहाँ की स्त्रियों की पवित्रता की रक्षा के लिए स्त्रियों और पुरुषों के आपस में मिलने के जो नियम और बाधाएँ प्रचलित हैं, उन्हें बिना जाने जो अपनी स्त्रियों को पुरुषों से बिना रोक-टोक के मिलने देते हैं, उन लोगों से हमारी रत्ती भर भी सहानुभूति नहीं है। पाश्चात्य देशों में भी मैंने देखा है कि दुर्बल जातियों की संतान जब इंग्लैंड में जन्म लेती हैं, तो अपने को वे स्पेनिश, पोर्तुगीज, यूनानी आदि- जो वह हो- न बताकर अँग्रेज ही बताती हैं। बलवान की ओर सब कोई दौड़ता है। दुर्बल मात्र की यही इच्छा रहती है कि बड़े लोगों के गौरव की छटा उसके शरीर में कुछ लग जाए। भारतवासियों को जब मैं अँग्रेजी वेशभूषा में देखता हूँ, तब समझता हूँ कि ये लोग शायद पददलित, विद्याहीन, दरिद्र भारतवासियों के साथ अपनी सजातीयता स्वीकार करने में लज्जित होते हैं। चौदह सौ वर्ष तक हिंदुओं के रक्त से पलकर भी पारसी लोग अब 'नेटिव' नहीं हैं ! जातिहीन और अपने को ब्राह्मण बताने वालि जातियों के जात्याभिमान के निकट बड़े-बड़े कुलीन ब्राह्मणों तक का जात्याभिमान कपूर की तरह उड़कर लुप्त हो जाता है। फिर पाश्चात्यों ने अब हमें यह भी सिखलाया है कि यह जो कमर में ही कपड़ा लपेटनेवाली मूर्ख नीच जाति है, वह अनार्य है। इसलिए वे लोग हमारे अपने नहीं हैं ! ! ऐ भारत ! क्या दूसरों की ही हाँ में हाँ मिलाकर, दूसरों की ही नकल कर, परमुखापेक्षी होकर इन दासों की सी दुर्बलता, इस घृणित, जघन्य निष्ठुरता से ही तुम बड़े-बड़े अधिकार प्राप्त करोगे? क्या इसी लज्जास्पद कापुरुषता से तुम वीरभोग्या स्वाधीनता प्राप्त करोगे? ऐ भारत ! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री और दमयन्ती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य सर्वत्यागी उमानाथ शंकर हैं ! मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, धन और तुम्हारा जीवन इंन्द्रिय सुख के लिए अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है, मत भूलना कि तुम जन्म से ही 'माता' के लिए बलिस्वरूप रखे गए हो, तुम मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है, तुम मत भूलना कि नीच, अज्ञानी, दरिद्र, चमार और मेहतर तुम्हारा रक्त और तुम्हारे भाई हैं। ऐ वीर ! साहस का आश्रय लो। गर्व से बोलो कि मैं भारतवासी हूँ और प्रत्येक भारतवासी मेरा भाई है, बोलो कि अज्ञानी भारतवासी, दरिद्र भारतवासी, ब्राह्मण भारतवासी, चाण्डाल भारतवासी, सब मेरे भाई हैं, तुम भी कटिमात्र वस्त्रावृत्त होकर गर्व से पुकारकर कहो कि भारतवासी मेरा भाई है, भारतवासी मेरे प्राण हैं, भारत की देव-देवियाँ मेरे ईश्वर हैं, भारत का समाज मेरी शिशुसज्जा, मेरे यौवन का उपवन और मेरे वार्द्धक्य की वाराणसी है। भाई, बोलो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है, भारत के कल्याण में मेरा कल्याण है, और रात-दिन कहते रहो- 'हे गौरीनाथ ! हे जगदम्बे ! मुझे मनुष्यत्व दो, माँ मेरी दुर्बलता और कापुरुषता दूर कर दो, मुझे मनुष्य बनाओ।'एक कर्मठ युवा का संदेश आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हैं उनके विचारधर्म का सच्चा अर्थ बताया स्वामीजी ने भारत के प्रसुप्त दिव्यत्व क्षमाशीलता, स्थिरता एवं आत्मसम्मान के प्रखर उद्घोषक स्वामी विवेकानंद निर्बल राष्ट्र कभी स्वाभिमान से नहीं रह सकतास्वामी विवेकानंद और युवा वर्ग