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एक अवांछित बेटी की मार्मिक वेदना : मां, तुम 'ऐसी' क्यों थी

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

पूजनीय बाई,
 
 
आज पूरा विश्व मौत के कुएं में कलाबाजियां खा रहा है। मौत किसको कब खींचकर ले जाए, कोई भरोसा नहीं। ऐसे में मातृदिवस का आ जाना मेरे लिए अपने अनुत्तरित प्रश्नों का गुबार निकाल लेने का बेहतरीन मौका है। धरती पर ईश्वर को भी अवतार लेने के लिए मां की कोख की जरूरत पड़ी, 9 माह गर्भ में रखने का कर्ज कभी भी कोई चुका नहीं सकता। ये अहसान हर इंसान पर मृत्युपर्यंत मनुष्य पर रहता है। मुझ पर भी है।
 
मुझे कभी ये बात समझ नहीं आई कि आपको इतनी नफरत किस बात की थी? कहने को आपके 7 बच्चों में मैं सबसे छोटी थी। सुना है सबसे छोटे पर सबसे ज्यादा प्यार होता है, पर आप में कभी वो भाव मैंने नहीं पाया। बाबूजी व बड़े भाई-बहन जरूर इसकी थोड़ी बहुत पूर्ति करते। बाबूजी की मैं जरूर प्रिय रही। उनका प्यार जितना याद है उतनी ही तुम्हारी वो तुम्हारी चिढ़ी हुई सी शक्ल याद आती है। पता नहीं क्यों हमेशा इतना नाराज रहा करती थीं।
 
तुम अपने ज़माने की उच्च शिक्षित महिला थीं। पूरे मोहल्ले में आदरणीय। श्रेष्ठ शिक्षक, मेहनती, बहादुर, हर परिस्थित से लड़कर आगे बढ़ने वाली। सभी तारीफ करते नहीं थकते थे। हम बच्चे भी बहुत प्यार करते थे। खूबसूरत भी बला की थीं। अनुशासन के मामले में भी कठोर। पर कभी ये क्यों नहीं समझ पाई कि अनुशासन और आतंक में बहुत अंतर होता है। कभी भी मैंने अपनी किसी भी उपलब्धि पर तुम्हें खुश होते नहीं देखा। पता नहीं क्यों मुझसे हमेशा तुम्हारा व्यवहार 'अनवांटेड चाइल्ड' का क्यों रहा।
 
ऐसा नहीं है कि तुम सभी के साथ ऐसी थीं। समय के साथ चंचल व्यवहार रहता, पर मेरे साथ तो हमेशा ही। कोई-न-कोई कभी-न-कभी कोपभाजन तो रहता ही रहता। सभी बच्चे अपने-अपने हिसाब से ठीक थे। पढ़ते-लिखते, साथ में रहते हंसते-खेलते। गहरा प्रेम भी था आपस में।
 
तुम घर की मुखिया के रोल में थीं। बाबूजी मौन। सारे निर्णय तुम्हारे। मैं ये तो नहीं जानती कि बाबूजी एक अच्छे पति रहे या नहीं, पर वो अच्छे पिता जरूर थे। जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, मुखर हो गई। तुम्हारी कुछ बातें जो हमें नागवार गुजरतीं, मैं खुलकर विरोध करने लगी थी।
 
बड़े भाई-बहनों पर हाथ उठा देने में तुम्हें कभी भी मलाल नहीं हुआ। तुम एक अच्छी टीचर होंगी, पर बच्चों को तो मां चाहिए होती है, ये कभी समझ क्यों नहीं सकीं। अभावों व गरीबी का कभी भी मलाल नहीं रहा हमें। 10 बाय 8 के उन 2 कमरों में स्वर्ग बसता था। बड़ी कुशलता से तुमने उसे संभाला हुआ था।
 
उस ज़माने में स्टैंडिंग किचन बनाकर उस छोटे से कमरे को कितनी स्मार्टली ज्यादा यूज़फुल बना दिया था। मचान भी। ऐसी बुद्धि किसी इंटीरियर डिजाइनर की भी शायद ही दौड़े। बड़ी होती बेटियों को नहाने के लिए उस छोटी-सी जगह में टीन के पतरे से आड़ करना, बहर गैलरी में आड़ लगाकर उसे उपयोगी बना देना किसी भी साधारण इंसान के बस का नहीं था।
 
सारे भाई-बहन के साथ उनके दोस्त, रिश्तेदारों के लिए भी उसमें खूब प्रेमभरी जगह हुआ करती थी। एक-दूसरे के उतरे हुए कपड़े पहनकर, इस्तेमाल की हुई चीजें, कॉपी-किताबों से ख़ुशी-ख़ुशी अपना समय निकला। बिना किसी शिकायत के। पैदा होने से लेकर ग्रेजुएशन तक की जिंदगी तुम्हारी नजरों के सामने निकली। शायद इस बीच ही तुम्हारा ध्यान नहीं रहा कि मैं 'इग्नोर' हो गई। पर मेरा ध्यान घर में हो रहीं गतिविधियों पर बराबर होता।
 
भाइयों की पढ़ाई पूरी हो गई। उनकी नौकरियां लग गईं। बड़ी बहन का ब्याह तुमने खुद की मर्जी व पसंद से कर मारा, उसकी पढ़ाई पूरी होने के पहले ही। ये भी एक अलग ही कहानी बनेगी। घर में लक्ष्मी का आगमन शुरू हुआ। साथ ही गांधीजी के फोटो छपे कागजों ने भी अपनी जगह बना ली और तुम्हारा तथाकथित प्रेम अहंकार में कब बदल गया, तुम्हें खुद ही पता नहीं चला। जो ज्यादा पैसे लाकर देता, वो तुम्हारी तवज्जो ज्यादा पाता।
 
एक और बहन की नौकरी लग गई। उसकी शादी भी हो गई। वह भी आक्रोश की शिकार थी। मौसियों और नानी के बीच ही रही। एक और बहन की नौकरी लग गई। बड़े भाई की भी शादी हो गई। भाभी भी कमाऊ थी। अब घर में केवल मैं ही 'मतकमाऊ' सदस्य बची बाकी सब कमाते और कुछ पैसे तुम्हारे हाथ में लाकर रखते। खासकर वो बहन जो अब कुछ भी जायज-नाजायज करने का लाइसेंस पा चुकी थी। अब घर में उसकी सारी गलतियां, अपराध माफ थे। कई दफा दोनों भाइयों में भी भेदभाव करने से बाज नहीं आतीं।
 
मैं अब घर का काम करती। केवल प्रताड़ना की शिकार शायद इसलिए कि मैं ही तुम्हें पैसे नहीं दे पाती थी। अब मेरा काम था केवल भाभी-बहन के बच्चे संभालना, घर के काम करना। बचपन से लेकर घर छोड़ने तक मैंने कभी भी अपने लिए तुम्हारी आंखों में प्यार नहीं देखा। बाकी सभी के लिए तुम हमेशा हाथ फैलाए रहतीं। बचपन से मुझे तुम्हारी एक ही मुद्रा याद है टेढ़ा मुंह, होंठों को सिकोड़कर, नफरत से खींचे हुए, धिक्कारती आंखें। कितनी बार कोशिश की कि तुम्हारा प्यार मिले, पर हमेशा फेल हो जाती। तुम्हारे पैरों की मालिश भी किया करती थी।
 
मजाक में तुमसे मकान मांग लेती, पर सारा ध्यान तुम्हारा उस कमाऊ बेटी पर ही केन्द्रित हो गया। शायद आज तक है। मैं तुम्हारे इस व्यवहार से घबरा चुकी थी। जानती हो तुम्हारी बात-बात पर बेइज्जती करने की आदत से मन बेहद दु:खी हो चुका था। बार-बार बच्चे संभालने भेजने से भाभी का तो काम बिना नौकर और खर्चे के निकल गया, पर आपकी बेटी उसमें कितनी खर्च हो गई, आपने ध्यान ही नहीं दिया। बाबूजी जरूर समझने लग गए थे।
 
मैं उलझी रहने लगी। कोई कारण नहीं बचा था उस घर में कि वापस वही प्रेम का बीज उन्हीं भाई-बहनों में फिर से पनपे। ऐसे चश्मे बदले सबके कि नजरें ही बदल गईं सबकी, साथ में नीयत भी। सभी में स्वार्थ घर कर गया। वो मिठाईपसंद भाई यदि मिठाई चोरी के खा लेता था तो उसको तुम्हारी मार से उसे बचाने के लिए सभी अपना नाम ले लेते।
 
मेरी स्कॉलरशिप से उसके अपने लिए शर्ट खरीदने पर ज्यादा ख़ुशी होती। यदि वो त्योहारों पर न आ पा रहे हों तो हम सभी नामपुरता त्योहार करते। उनकी पसंद का खाना तक हम सब नहीं बनाते-खाते। उनके आने की राह देखा करते। पता नहीं किसकी नजर लगी। घर में विवाद होने लगे। आपके व्यवहार से मन और खट्टा होने लगा।
 
एक समझदार, पढ़ी-लिखी, प्रतिष्ठित महिला अपने घर में समदृष्टि नहीं रख सकीं। मुझ पर कभी ध्यान क्यों नहीं गया? यदि मैं गलत थी तो कहां? क्या गलत नीतियों, भेदभाव, दुर्व्यवहार के विरोध के कारण? तुम तो जो थीं सो थीं ही, पर ये दूरदृष्टि नहीं थी कि इस व्यवहार से आपके बच्चों की जिंदगी कितनी प्रभावित हो रही है। खासकर के मेरी।
 
सभी शहर से बाहर रहने लगे थे। मेरा इस्तेमाल केवल भाभी के बच्चों को संभालने में ज्यादा किया। इससे इंकार नहीं कि उन बच्चों से मेरा लगाव रहा। प्रेम की आस में उन बच्चों में मुझे समय गुजारना ज्यादा बेहतर लगता, बजाय आपकी उस क्रूर मुद्रा को सहन करने के। बड़े भाई-भाभी, बहन को जरूर मुझसे सहानुभूति रही। पर जैसे-जैसे उनके बच्चे बड़े हुए, उनके काम निकले, वो भी अपना रंग दिखाने में पीछे नहीं रहे।
 
मैंने अपने जीवन के लिए राह खोजी। अपनी पसंद की शादी करने में ही भलाई समझी। बस मेरा एकमात्र यही फैसला मेरी जिंदगी का टर्निंग पॉइंट रहा। जिंदगी के लिए वरदान भी। याद है आपसे और उस बहन से भी मेरी न जाने कब से ही बातचीत बंद थी, जो शादी के समय भी बंद ही थी। एक बच्चे के मन में इतना गुस्सा कैसे भरा, कभी तो सोचना था ना। पर फुर्सत ही कहां थी पूरे घर से किसी के भी पास। केवल मेरी गलतियां गिनाना, मेरी बुराइयां करना, कोसना यही काम था।
 
खैर, शादी भी हो गई। घर-वर बहुत ही अच्छा था। अब आपकी नाराजगी का एक कारण और बढ़ गया था। मेरी ख़ुशी। कथा तो अनंत है। शब्दों में कितना लिखूं? 54 बसंत बांध पाना असंभव है। उसके लिए कठोर हृदय और कोमल शब्द का शब्दकोष दुर्लभ है। कई राग-द्वेष के उतार-चढ़ावों के साथ एक ही एरिया में जीवन का गुजर-बसर कितना नारकीय रहा है, यह केवल मेरी आत्मा जानती है।
 
मौके-बेमौके तुम लोगों के (दु)र्व्यवहार ने मेरा रिश्तों पर से हमेशा के लिए भरोसा ख़त्म किया। अब सभी को जहर चढ़ चुका था। पैसे का दिखावा रिश्ते प्रगाढ़ कर रहा था। जैसे-जैसे संपन्नता बढ़ी, वैसे-वैसे भाई बहनों के बीच प्रेम की विपन्नता चौगुनी बढ़ी। बढ़ती दरारों का रिश्तेदारों ने खूब फायदा उठाया। दरारें खाइयों में बदल गईं, पर इस समय तुम्हारा शिक्षित होना व बाकियों का डिग्रीधारी होना कोई भी काम न आया। समझदारी की बात करने वाला दुश्मन लगता।
 
मुझे अपने परिवार में दूसरे लोगों का हस्तक्षेप हमेशा से ही नागवार रहा और तुम्हारा प्रिय शगल। बाबूजी तक ने भी किनारा कर लिया। अपनी मर्जी की मालिक थीं तुम। ऐसा नहीं है कि मुझे कभी याद नहीं आई, पर प्रपंचों से नफरत रही। प्रपंच-प्रपोगंडे इतने कि तुम लोग एक ग्रुप बना बैठे।
 
घर भारत-पाकिस्तान हो गया। यहां तक कि अपनी बेटियों के चरित्र पर कीचड़ उछालने में भी किसी को शर्म नहीं आती। बहुओं और लोगों के सामने अपनी बेटियों की निंदा कैसे कोई मां कर सकती है? शादी के पहले या बाद मेरी कोई जिम्मेदारी तुम पर कभी नहीं रही। हमेशा कोशिश रहती कि स्वाभिमान से रहूं। तुम्हारा बात-बात पर पैसे गिनाना दिल को दुखाता था। पता नहीं क्यों हमें 'बिच्छू की औलादें' कहा करती थीं।
 
पर हां, एक बात तो बिलकुल सच है कि जब भी हम भाई-बहनों की लड़ाइयां होती थीं न तो तुम हमेशा कहती थीं, 'देखना, एक-दूसरे का मुंह देखने तरस जाओगे'। बिलकुल सच हो गई। आज कोई भी भाई-बहन एकसाथ नहीं हैं। सब टुकड़ों में जिंदगी जीते हुए ख़त्म हो रहे हैं। इस खोखली जिंदगी को अहंकार के राक्षस ने जकड़ा हुआ है। राजनीतिक पार्टियों की तरह बनता हुआ परिवार। शिक्षित, संपन्न, प्रतिष्ठित पर टूटा, बिखरा, क्लेशित।
 
सच बताना, क्या कभी आपकी इच्छा नहीं हुई कि आपके सारे बच्चे एकसाथ आपके सामने हंसे-खिलखिलाएं। जब भी मेरे स्वास्थ्य, बच्चों, परिवार पर संकट आया, तुम्हें जरा भी दुःख नहीं हुआ? तुमने भाइयों के बेटा-बेटी जिनको मैंने मां की तरह पाला-पोसा था, की शादी में जब बैंड बजे होंगे, पराई बेन-बेटियों ने घोड़े की लगाम-नेग लिया होगा, तब कभी हमारी याद नहीं आई होगी? बारात के घोड़े के आगे नाचते लोगों पर पैसे वारते समय हाथ नहीं कांपे होंगे? पराये जवाइयों को नारियल-कंकू करते समय अपने दामादों की झलक एक बार तो स्मृति में आई होगी? उन तथाकथित उच्च शिक्षित भाई-भौजाई और वो विदेशी भतीजा जिसने हमसे ही अपनी जिंदगी के मजबूत क़दमों की नींव बनाई, उसकी बुद्धि भी उतनी ही विषैली निकली।
 
यदि बाबूजी किसी के साथ रहे तो तुमने उनको भी लांछन लगाने से नहीं बख्शा, चाहे वो बहू हो या बेटी। वे भी इसका शिकार हो चल बसे। जब भी राखी/भाईदूज आती होगी, कभी तो तुम्हें अपना घर सूना लगता होगा। कैसा लगता होगा तुम्हें, जब तुम्हारी बेटी जन्मदिन पर बरसों बाद केवल और केवल चरण स्पर्श की इच्छा से आती है और तुम्हारे बेटे-बहू उन्हें आने नहीं देते, वापस लौटा देते हैं।
 
जन्मदिन तो हमेशा याद आता होगा न 'गंगा-दसमी'। लाखों पराये और चरित्रहीन, हत्यारे रिश्तों की तुम्हारे देहली पर जगह है, पर केवल कोई नि:स्वार्थ भाव से सारी जलालत भूलकर अपने 50वें जन्मदिन पर आशीर्वाद की इच्छा से आए तो उन्हें भगा दो। ये तुम्हारी ही कच्ची परवरिश का हिस्सा है न? खुद अपने पीहर में बसी बहु अपनी ननदों के पीहर छुड़वाने के पाप से कैसे मुक्त हो पाएगी?
 
कहते हैं मां की आत्मा हमेशा बेटियों में बसती है, पर तुमने हमेशा मुझे अपनी आत्मा का बोझ समझा। बेटे बाहर अनोखी बहनें बना राखियां बंधवाते फिरे, भाभियां उन कथित बहनों के कारण आत्महत्या का प्रयास करती रहें तो वो जायज/चरित्रवान? पर हमें कोई मदद करे, साथ दे तो हम कैरेक्टरलैस? कितने अभागे रहे हम, जो सब होकर भी एक स्नेहभरे हाथ के स्पर्श को तरसते रहे और वो हाथ हमें छोड़ लाखों को दुलराते रहे। कैसे खुश रहीं तुम, हमारा हक किसी और को देकर? कभी तो याद आते ही होंगे। नफरत के साथ ही सही। बातें तो कई हैं।
 
हरेक पर एक उपन्यास लिखने जितनी। बस मृत्यु की इस कगार पर जब सभी खड़े हैं, तो मरने से पहले अपने दिल को हल्का करने से शायद मोक्ष पा सकूं। यदि मैं गलत भी रही तो मां थीं तुम समझा सकती थीं। पर कभी बेटी माना ही नहीं, केवल औरत बनी रहीं। वंश में भी यही विरासत में दे रहीं।
 
ईश्वर से प्रार्थना है कि कभी किसी के भाई-भौजाई अपनी मां के रहते किसी बेटी के चरित्र पर उंगली न उठा सके। कोई बहन उस डेली पर अपमानित, जलील न हो। भाभियों के बेटे उनकी बेटियों के साथ ऐसा व्यवहार न करें, जैसा उन्होंने घरों में करते देखा। कोई मां अपनी बेटियों को उनके बच्चों, परिवार को न कोसे और न बददुआ दे। इतनी दुआ जरूर करना कि यदि मैं फिर से यदि जन्मूं तो मुझे मां का भरपूर प्यार मिले। अपने बाबूजी के प्यार के साथ और किसी भी बेटी को ऐसी जिंदगी न जीनी पड़े। सबको प्यार मिले। सम्मान मिले। पीहर मिले। मां और मां का भरपूर प्यार मिले।
 
रही मेरे प्रश्नों की बात तो ये केवल इतने ही नहीं हैं, यक्षप्रश्नों में बदल चुके हैं। इनके जवाब हों भी तो मौत के इंतजार में किसे अब उत्तर चाहिए? सब सुखी हों। खुश हों। किसी के भी घर के टुकड़े न हों। यही दुआ और विनती है।
 
आपकी
 
'अनवांटेड-इग्नोर बेटी'

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