अर्चना मंडलोई
मां की पिटारी
याद बहुत आती है,
मां की वो पिटारी
कहने को
मां का
घर पूरा अपना था
पर मां का पूरा संसार
उस पिटारी में बसता था
जाने कहां से,कैसे
कभी़ रूमाल में लिपटे
कभी कुचले,मुड़े नोट,
पिटारी की तह में पड़े सिक्के
कभी चुडियां बिंदी
तो कभी दवाईयों की पन्नी
और न जाने क्या-क्या
मेरे पहुंचते ही
वो आतुर हो उठती
स्नेह और ममता का
वो पिटारा खुल जाता
और फिर तह में छुपे नोट
तो कभी सुन्दर चुड़ियां
मीठी नमकीन मठरी
लगता है, जैसे
अक्षय पात्र में हाथ डालती मां
बिना तोल मोल के
ना किसी जोड़ घटाव के
सारा हिसाब
अपनी ममता से लगा लेती
और डाल देती मेरी झोली में
मां तुम दुर्गा और लक्ष्मी ही नहीं
अन्नपूर्णा भी थी
काश, मां तुम बांटने दुलार फिर आ जाती
मां हर दिन हर पल तुम याद बहुत आती।