मां मेरे हिस्से बहुत कम आती है..!
शिकायत नहीं, बस एक हकीकत है.
मां हूं, पर मां की मुझे भी ज़रूरत है.
देहरी लांघने से बेटी क्या बेटी नहीं रह जाती है?
किससे कहूं कि मां की कितनी याद सताती है....
मां मेरे हिस्से बहुत कम आती है... .
घर-परिवार, रिश्ते-नातों के बीच
वह थोड़ा-थोड़ा बंट जाती है,
पराई बेटी की बारी सबसे आखिर में आती है,
मां-बेटी ख़ामोशी से अपना-अपना फ़र्ज निभाती हैं।
मां मेरे हिस्से बहुत कम आती है।
मेहमान चिरैया-सी दो दिन मां के आंगन में फुदकती हूं।
हर पल मां के आस-पास मंडराती रहती हूं।
मां गुझिया-मठरी तलती है, बच्चों को दुलारती है.
नेग-शगुन, आशीषों की सौगात लिए बेटी फिर विदा हो जाती है।
मां मेरे हिस्से बहुत कम आती है।
किसी दिन आंचल थाम मां का बचपन में चली जाती हूं।
मां लाल रिबिन से दो चोटियां गूंथ देती हैं।
नया अचार, गर्म रोटी मां का प्यार जताती है।
हंसती-बतियाती मां-बेटी हमजोली बन जाती हैं
पर अब मां मेरे हिस्से बहुत कम आती है।
आजकल मां थकी-सी नजर आती है।
जैसे कुछ सुनना और कुछ कहना चाहती है.
‘ब्याहता बेटी से मोह न रखो’ उसे नसीहत मिलती है।
अनकही कसक दोनों तरफ़ बाकी रह जाती है।