लेखिका - सपना सी.पी. साहू 'स्वप्निल'
भारत में लगभग 1.15 लाख समाचार पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। यहां लगभग 389 समाचार और समसामयिक मुद्दों पर आधारित चैनल्स है। इन आंकड़ों के अनुरूप हम कह सकते हैं कि भारत में लोकतंत्र के चतुर्थ स्तंभ के रूप में पत्रकारिता या मीडिया सशक्त माध्यम है। पत्रकारिकता के इस मजबूत क्षेत्र में हम कई महिला समाचार उद्घोषक(न्यूज़ एंकर), संपादक व पत्रकारों की भागीदारी सामान्यतः देखते हैं और मानते हैं कि यह आंकड़ा ठीक है। किन्तु, सिंहावलोकन करें तो वास्तव में, आज भी इस जनजागृति लाने वाले क्षेत्र में स्त्रियों की दावेदारी पुरुषों के बराबर नहीं है या हम कह सकते हैं कि मीडिया क्षेत्र में महिला पत्रकारों के पदार्पण की आवश्यकता अब भी बनी हुई है।
हम यहां एक बात ओर भी देखते हैं कि जहां बड़े पदों पर महिला संपादक आसीन भी है तो वे, पत्रकार पति की संगिनी है या पत्रकार पिता की पुत्री, बहन, बेटी है। कहीं पर दादा, नाना की पुश्तैनी धरोहर और कामकाज को संभाल रही है। ऐसा नहीं है कि इन महिला संपादकों में योग्यता की कोई कमी है। पत्रकारिता का क्षेत्र तो एक ऐसा सक्रिय क्षेत्र है कि इसमें योग्यता की कमी से टिके रहना कठिन ही नहीं नामुमकिन हो जाता है। ऐसे में, उच्च पदों पर बैठी महिला पत्रकार अपना योगदान तो पूर्ण ईमानदारी से दे रही हैं, तभी मीडिया समूह चल रहे है।
आजादी के पूर्व तो हमारे देश में एक भी महिला पत्रकार नहीं थी। 1916 में एनीबिसेन्ट ने लोकहित में 'द न्यू इंडिया' और 'कॉमन व्हील' साप्ताहिक अंग्रेजी समाचार-पत्र प्रारंभ किए थे। सरोजिनी नायडू ने भी लेखन कार्य किया था। परन्तु वह पत्रकारिकता शुद्ध पत्रकारिता न होकर राष्ट्रीय चेतना व समाजसेवा के रूप में ज्यादा आंकी जाती है। भारत में 1960 में संभ्रात और उच्च मध्यम वर्ग की महिलाओं ने पत्रकारिता के क्षेत्र में आना आरंभ किया और 1980 में बड़ा बदलाव दृष्टिगोचर हुआ। पिछले 25 वर्षों में वृहद परिवर्तन देखने को मिले है। परन्तु, प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इन क्षेत्रों में अभी भी पुरुष पत्रकारों का ही वर्चस्व अधिक है, यह स्पष्ट देखा जा सकता है। आज भी छोटे शहरों में ही क्या, बडे़-बडे़ महानगरों, विशेषतः राजनैतिक राजधानी दिल्ली तक में महिला पत्रकारों की कमी है।
यूं तो हम नकार भी नहीं सकते कि शिक्षित, दृढ़ विश्वासी, कर्मठ, जुझारू, विवेकशाली, संवेदनशील, निडर महिलाओं ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी अलग ख्याति प्राप्त की है। परन्तु उनकी अपनी व्यक्ति, स्त्री और पत्रकार के रूप में बड़ी चुनौतियां भी रही है। वास्तव में, यह क्षेत्र उतना आसान नहीं है जितना समझा जाता है। यहां इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मिलने वाली चकाचौंध और यश-कीर्ति जरूर आकर्षण का केन्द्र रही है। तभी टी.वी., रेडियों में न्यूज़ एंकर के रूप में महिलाएं ज्यादा सामने आई है, लेकिन वास्तविक धरातल (ग्राउंड रिपोर्टिंग) पर रिपोर्टिंग करने वाली महिला पत्रकारों का आंकड़ा मात्र 2.5 प्रतिशत ही है जो बहुत कम है।
इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में स्थिति, प्रिन्ट मीडिया से बेहतर है। प्रिन्ट मीडिया में तो आज भी कार्यरत महिला पत्रकारों को वरिष्ठ रिपोर्टर, संपादक या उसके समकक्ष पदों पर पदभर्ती न के बराबर है। देश के बडे़-बडे़ मीडिया समूह में यही स्थिति स्पष्ट है। ऐसा नहीं है कि मीडिया समूह, महिला पत्रकारों को अवसर नहीं देना चाहते लेकिन महिलाओं के जीवन की प्राथमिकताएं, पारिवारिक व सामाजिक दायरें इस क्षेत्र में उन्हें पूर्ण दायित्ववान होने से रोकते हैं।
फिर भी, महिला पत्रकारों ने अपनी मेहनत और काबिलियत से पत्रकारिता में अपना लोहा मनवाया है। कहीं-कहीं तो महिला पत्रकार, पुरुष पत्रकारों को भी पीछे छोड़ चुकी है। जिनमें साहित्य, महिला व बच्चों के सरोकार की पत्र-पत्रिकाएं सम्मिलित है। वे पूरी शिद्दत से अपना योगदान दे रही हैं परन्तु इस क्षेत्र में समानता और चुनौतियां अभी भी शेष है।
हम देखते हैं कि महिला पत्रकारों की क्षमताएं प्रायः साहित्य, संस्कार-संस्कृति, कला क्षेत्र, ग्लैमर की दुनिया, फैशन और सौन्दर्य, व्यक्तिव विकास, पाककला (फूड रेसिपी), महिला और बाल अधिकार व शोषण, बाल और स्त्री मनोविज्ञान, वृद्धों के मुद्दें, स्वास्थ, पर्यावरण आदि जैसे सामाजिक विषयों पर ही ज्यादा दिखती हैं। वहीं महत्वपूर्ण आर्थिक, भौगोलिक, वैश्विक व राष्ट्रीय राजनीति, विज्ञान, खेल जगत, युद्ध, अपराध, दंगे-फसाद, प्राकृतिक आपदाएं आदि जैसे कठिन विषयों से वे अभी भी दूर रहती हैं। इसमें महिला पत्रकारों की गलती नहीं है बल्कि मीडिया क्षेत्र में कार्य करने के लिए व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्रता चाहिए परन्तु हमारे यहां महिलाओं के लिए लोकलाज की सीमाएं तय है। जिसके चलते वे रोक-टोक, शारीरिक भिन्नताएं, पढ़ने लिखने के बाद केरियर के रूप में सुरक्षित क्षेत्र का चुनाव, कहीं पर, कभी भी घूमने न जा पाना जैसी समस्याएं आड़े आती ही हैं। इसके अतिरिक्त सबसे प्रमुख कारण दोहरी जिम्मेदारी के चलते सही समय प्रबंधन कर पाना भी कठिन होता है। जिससे महिला पत्रकार समयाभाव के चलते घर और कार्यलय में सामंजस्य नहीं बना पाती। दूसरा, घटनाएं समय देखकर घटित नहीं होती। पत्रकारिता में दिन हो या रात, इसमें कार्य करने का कोई निश्चित समय नहीं होता। घटनाएं जब घटे, तब पत्रकारों को सजग प्रहरी बनना होता है। पर हमारे देश के सामाजिक ढांचे के अनुरूप महिलाएं प्रथम घर-परिवार के प्रति समर्पित भाव रखती है। ऐसोचैम का सर्वे भी कहता है कि भारत में घर-परिवार, बच्चों की परवरिश के चलते 40% महिला पत्रकार अपनी नौकरी छोड़ देती है।
इन सब कारणों के अतिरिक्त अन्य कारण भी महिला पत्रकारों को लम्बी पारी नहीं खेलने दे पाते। जिसमें प्रमुख मीडिया मालिकों की अघोषित नीतियां, बच्चों की देखभाल,कार्यक्षेत्र में भेदभाव, समान वेतन न मिलना, शारीरिक भिन्नताएं, दखलअंदाजी, सुरक्षित विषयों पर लेखन का दवाब, मानसिक प्रताड़ना, तय सीमाएं, स्वयं को सुरक्षित रखने का भाव, व्यवहारिक चुनौतियां, प्रेस नियामक संस्थाओं की नीतियां, संवेदनशील मुद्दों से दूर रहना, अपराध, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, समानता का अभाव, लिंग आधारित हिंसा, कलंकित करने का भय, दुर्व्यवहार, खतरनाक स्थानों पर हमलों का डर, अभद्रता, धमकियां, आपसी प्रतिस्पर्धा की कुंठा, विवाह पश्चात स्थानान्तर या पत्रकारिता के पेशे को त्याग देना सामान्यतः समस्या के रूप में सामने आते है। हां, यह जरूर है कि जीवन पड़ाव पर कठिनाइयों के रंग-रूप उम्र के साथ कुछ हद तक बदलते जाते है। जिन महिला पत्रकारों को अनुकूल स्थितियां प्राप्त है वे पुरुष के वर्चस्व को तोड़ भी रही हैं। वे पुरुषों से ज्यादा अच्छा कार्य करकर दिखा भी रही हैं तथा सफलता के झंडे गाढ़ रही हैं। फिर भी यह महिला पत्रकारों के लिए स्वर्णिम युग नहीं है। अगर हम सोचते हैं कि हमें इस क्षेत्र में महिलाओं को अधिक बढ़ते देखना है तो कई नीतियों में परिवर्तन कर, उन्हें बेहतर बनाते हुए महिलाओं को ओर अधिक अधिकार देने ही होंगे।