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आम-पुराण

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सुशोभित सक्तावत

कहते हैं पानी पड़ने के बाद आम नहीं खाना चाहिए, कि आषाढ़ में आम का भोग पित्त करता है। बड़े-बुजुर्गों की बात है, सही ही होगी, लेकिन तब इसका क्या करें कि हस्बेमामूल सबसे उम्दा और सबसे लाजवाब आम पानी पड़ने के बाद ही आते हैं : "लंगड़ा", "दशहरी" और "चौसा।" यह गोलचौकी के मुहाने पर खेलने वाली फ़ुटबॉल की आक्रमण पंक्ति की तरह है (मेस्सी, सुआरेज़ और नेमार) : आपको लगता है कि आक्रमण पंक्ति यहां समाप्त हो रही है, जबकि वहां पर वह शुरू हो रही होती है।
 
हमारे इधर यानी मालवा में आमों का मौसम शुरू होते ही जो पहला फल सर्वत्र दिखाई देता है, वह है "लालबाग"। लाल छींट वाला आम। इसको "सिंदूरी" भी कहते हैं। बहुत ख़ुदमुख़्तार, दानिशमंद फल। सिफ़त में यह "लंगड़े" का छोटा भाई है। स्वाद में मिठास के साथ ही तनिक तुर्शी। वो आम ही क्या, जो मीठाचट हो। जिसमें तनिक तुर्शी ना हो, तेवर ना हो। मीठे में तरबियत होती है, लेकिन तुर्शी में एक ख़ुदमुख़्तारी है, किरदार है, और जैसा कि "पल्प फिक्शन" में सैम्युअल जैक्सन कहता है : "कैरेक्टर गोज़ अ लॉन्ग वे!"
 
मौसम के शुरू में आने वाले आमों में ही शामिल हैं, "तोतापुरी", "हापुस", "केसर" और "बदाम"। "बदाम" ग़रीब-ग़ुरबों का राजभोग है। "हापुस" आमों का राजा कहलाता है : गंधवाह और प्रभामयी। पतले केसरिया छिलके वाले इस फल की गंध सचमुच मादक होती है। गूदे में रंचमात्र रेशा नहीं। फ्रिज में रख दो तो चम्मच से इसे आम-कुल्फ़ी की तरह भी खा सकते हैं।
 
"दशहरी" इसी की जात का फल है : बिन रेशे वाला और मीठा, अलबत्ता क़दकाठी में किंचित लंबोतर। इन आमों की तुलना लखनवी "सफ़ेदे" से करें, जिसमें रेशा ही रेशा होता है, गूदा क़त्तई नहीं। रेशा और रस। वह रसवंत आम है।
 
"लालबाग-लंगड़ा", "हापुस-दशहरी" की ही तरह एक और जोड़ "चौसा" और "केसर" का बनता है। दोनों के स्वाद में अपूर्व माधुर्य के साथ ही एक ख़ास वानस्पतिकता। हरी गंध से भरे आम हैं ये। "तोतापुरी" का गूदा बहुत ठोस होता है, अलबत्ता रस उसमें नहीं। तीखे नैन-नक़्श वाला फल : नोंकदार और चोंचदार। दिखने में "चौसा" और "लंगड़ा" लगभग एक-से लगते हैं, दोनों ही हरेकच्च, लेकिन एक फ़र्क है : "लंगड़े" के छिलके पर कत्थई चिकत्तियां होती हैं। छींट और टेक्सचरों से भरा फल, जिसे सहलाना भी एक सुख। पुष्ट वक्षों की तरह सुडौल। ऐसे फल पर दांत गड़ाने का अपना रोमांच है : जिसे साधुभाषा में "दंतक्षत" कहा है।
 
"लालबाग" की ही किस्म को विकसित कर "गुलाबखास" बना लिया जाता है। कुछ आमों के नाम बड़े ही सुंदर होते हैं : जैसे "केसरलता", "आम्रपाली", "मल्लिका", "किशनभोग", "सुवर्णरेखा", "नीलम" इत्यादि। "मल्लिका" का अफ़साना यह है कि ये कोई आध किलो का एक आम होता है। बड़ी चौकोर गुठली वाला फल। जबकि कुछ आमों की गुठलियां गेंद की तरह गोल होती हैं। बहुतेरे आम ऐसे होते हैं, जो इलाक़ाई सिफ़त के होते हैं और ख़ास आबोहवा में ही फलते हैं, जैसे कोंकण का "हापुस", दीघा का "मालदा", चंपारण का "जरदालू", काकोरी का "दशहरी", बनारस का "लंगड़ा", सहारनपुर का "हाथीझूल", दक्खन का "बैंगनपल्ली"।
 
कहते हैं अकेले मलीहाबाद में ही आम की 700 किस्‍में होती हैं, कभी तो 1300 होती थीं। आमों की गाथा अनंत है। इस मौसम से अगले मौसम तक आमों पर बात की जा सकती है, इस सावन से उस बहार तक। सच कहूं तो जब आमों का मौसम नहीं रहता, दुनिया फीकी और बेज़ायक़ा पड़ जाती है।


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