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अर्नब की लड़ाई मीडिया की आज़ादी की लड़ाई नहीं है!

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श्रवण गर्ग

, मंगलवार, 27 अक्टूबर 2020 (13:02 IST)
फ़र्ज़ी तरीक़े से अपने चैनल के लिए टीआरपी बटोरने के आरोपों से घिरे अर्नब गोस्वामी की अगुआई वाले रिपब्लिक टीवी ने हाल ही में एक सनसनीख़ेज़ खबर प्रसारित की थी कि पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह के निर्णयों से मुंबई पुलिस के जवानों में ‘विद्रोह’ की स्थिति बन गई है। इस खबर के प्रसारण के बाद मुंबई पुलिस ने रिपब्लिक टीवी के कुछ सीनियर सम्पादकों और न्यूज़ रूम स्टाफ़ के ख़िलाफ़ एनएम जोशी मार्ग स्थित थाने पर कथित अपराध से सम्बंधित धाराओं के अंतर्गत एफआईआर दर्ज करा दी। एफआईआर में कहा गया है कि खबर पुलिस बल के सदस्यों के बीच असंतोष पैदा करने और उनकी (पुलिस की) मानहानि के समान है। अर्नब से मुंबई पुलिस ने नोटिस भेजकर यह भी पूछा है कि क्यों नहीं उनसे एक बाण्ड भरवाया जाए कि वे अच्छा आचरण करेंगे!
 
मीडिया के कुछ इलाक़ों में इन दिनों अराजकता का दौर चल रहा है। कहा जा सकता है कि हालात एक विपरीत आपातकाल जैसे हैं। आपातकाल के दौरान सेन्सरशिप थी, प्रकाशित होने वाली (प्रसारण केवल सरकारी ही था, इलेक्ट्रॉनिक चैनल नहीं थे) हरेक संवेदनशील खबर को सरकारी आंखों के सामने से गुजरना पड़ता था। हालात इस समय यूं हैं कि सारी अराजकता केंद्र और उसके सूचना और प्रसारण मंत्रालय की आंखों के सामने से गुजर रही है और कहीं कोई हल्की सी भी बेचैनी नहीं है।
 
अर्थ निकाले जा रहे हैं कि जो आज एक विपक्षी पार्टी के राज्य और वहां की पुलिस के संदर्भ में चल रहा है वह ज़रूरत के मुताबिक़ किसी अन्य प्रतिपक्षी प्रदेश में भी रिपीट हो सकता है। यह भी कि इसी तरह की कोई खबर यदि एनडीटीवी जैसा थोड़ा विश्वसनीय चैनल प्रसारित कर देता तो फिर उसका अब तक क्या हश्र हो जाता? ‘देशद्रोह’ और ‘राजद्रोह’ की सीमाएं कहां से प्रारम्भ और कहां ख़त्म होती हैं, स्पष्ट होना बाक़ी है।
 
सवाल केवल अर्नब गोस्वामी और उनके रिपब्लिक टीवी तक ही सीमित नहीं है। पिछले दिनों कोई तीन दर्जन फ़िल्म निर्माता और संगठन कुछ टीवी चैनलों और अनियंत्रित सोशल मीडिया के ख़िलाफ़ दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाज़ा खटखटा चुके हैं। न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग अथॉरिटी ने आजतक, जी न्यूज़, इंडिया टीवी और न्यूज़-24 से सुशांत सिंह की मौत के मामले में पत्रकारिता के निर्धारित मानदंडों के उल्लंघन के आरोप में उनसे दर्शकों से माफ़ी मांगने को कहा है।
 
देश के मीडिया उद्योग के साथ इस समय करोड़ों के पेट और भाग्य जुड़े हुए हैं। सभी तरह के चैनलों की संख्या भी कुछेक हज़ार में होगी। इन लोगों में अधिकांश की व्यक्तिगत प्रतिबद्धताएं किसी भी राजनीतिक दल, विचारधारा या प्रतिष्ठान के साथ बंधी हुई नहीं हो सकती। एक चैनल से दूसरे में जाते ही एंकरों के तेवर और आवाज़ें बदल जाती हैं। इन ‘ग़ैर-प्रतिबद्ध’ मीडियाकर्मियों के सामने सवाल यह है कि उन्हें इस समय किसके साथ खड़े होना चाहिए? अर्नब के साथ?, अर्नब का हुक्म बजाने को मजबूर स्टाफ़ के साथ? या मुंबई पुलिस के साथ, जिसकी प्रतिष्ठा प्रभावित हो रही है? इस लड़ाई को मीडिया की आज़ादी का मामला बनाया जाना चाहिए या कि अर्नब और महाराष्ट्र सरकार के बीच का संघर्ष मानते हुए भविष्य में किसी राजनीतिक परिवर्तन के आकार लेने तक अधर में छोड़ देना चाहिए? पूरे प्रकरण का एक पक्ष यह भी है कि भविष्य में होने वाले किसी सत्ता-परिवर्तन की स्थिति में भी क्या मुंबई पुलिस की अर्नब और उनके चैनल के ख़िलाफ़ शिकायत इसी तरह से सक्रिय रहने दी जाएगी ?
 
इस लड़ाई का वास्तव में सम्बंध सुशांत सिंह की मौत और रिया चक्रवर्ती की गिरफ़्तारी के साथ उतना नहीं है जितना कि दिखाया रहा है। लड़ाई पूरी राजनीतिक है, उद्देश्य भी राजनीतिक हैं और इसके मुख्य किरदार भी राजनीतिक हैं जो पर्दों के पीछे हैं जिनके लिए एक मासूम सितारे की मौत और ‘निर्दोष’ सिने तारिका की गिरफ़्तारी सत्ता की प्राप्ति या सत्ता में बने रहने के निर्मम हथियार भर ही हैं। मीडिया का एक बड़ा वर्ग ऐसे ही गिरोहों के लिए सालों से दलाली काट रहा है। नया केवल इतना भर हुआ है कि अर्नब के चैनल ने मुंबई की प्रतिष्ठित पुलिस को बिना किसी स्पष्ट प्रमाण के पुलिस कमिश्नर के ख़िलाफ़ ‘विद्रोह’ में खड़ा कर दिया है। एक घर तो सभी समझदार छोड़कर ही चलते हैं। असली कहावत वैसे अलग है।
इस सवाल का जवाब कि बाक़ी मीडियाकर्मियों को क्या करना चाहिए? यही हो सकता है कि बोलने और लिखने की आज़ादी के ख़िलाफ़ पुलिस या सरकार के किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए, वह चाहे फिर मुंबई की पुलिस या महाराष्ट्र की सरकार ही क्यों न हो और उसमें सभी को अर्नब के मातहत काम कर रहे सम्पादकीय स्टाफ़ का साथ भी देना चाहिए। पर अर्नब गोस्वामी और उनके प्रतिरूपों को अपनी लड़ाई खुद ही लड़ने के लिए अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। उद्धव ठाकरे और संजय राउत से अर्नब की लड़ाई को मीडिया की आज़ादी की लड़ाई में नहीं बदला जा सकता।  (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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