प्रिय आरुषि,
तुम कहां हो? जिंदा तो नहीं हो... पर जाने क्यों तस्वीरों में देखी तुम्हारी खूबसूरत आंखें याद आ रही है। मैं नहीं जानती सच क्या है? सच कोई नहीं जानता। हम सब वही जानते हैं जो समय-समय पर सामने आ रहा है। कभी कोर्ट के माध्यम से, टीवी, चैनल्स, अखबार, पत्रिका, कभी तुम पर बनी फिल्म तो कभी तुम पर लिखी किताबों के माध्यम से।
किंतु 16 मई 2008 की रात वास्तव में क्या हुआ यह या तो तुम जानती हो या तुम्हारे जन्मदाता। वे जन्मदाता जो तुम्हारी ही हत्या के आरोप में अब तक कैद में हैं। अपनी पुत्री की हत्या का आरोप लगना ही कितना शर्मनाक और कितना कष्टप्रद है... लेकिन तुम्हारे माता-पिता संदेह के घेरे में आए और फिर जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा है समाज में भी उनके प्रति वैसा रोष नहीं रहा जैसा कि आरोप लगने पर रहा था।
फिर कोर्ट की लंबी प्रक्रिया, अपमान, बदनामी सब कुछ यूं भी इतना बोझिल होता है कि हर किसी का धैर्य चुकने लगता है। पर कोर्ट के फैसले के बाद मैं और मेरे जैसे बहुत से लोग यह जानना चाहते हैं कि फिर तुम मरी कैसे? तुम्हें मारा किसने? फिल्म पर भरोसा कर लें? किताब में लिखा हुआ सच मान लें? चाहे इस फैसले पर खुश हों या निराश हो जाएं पर सच को जानने का मेरा अधिकार सरेआम छला जा रहा है यह तुम भी देख रही हो ना?
समय जैसे जैसे आगे बढ़ता है समाज की याददाश्त भी धूमिल हो जाती है। धुंधले पड़ जाते हैं किस्से और कहानियां... और शेष रह जाता है एक शून्य, एक रहस्य, एक याद और बस एक घटना... हां ऐसा हुआ था कभी...
अभी तो निर्भया का नाम विभत्सताओं की मिसालों में सतह पर तैर रहा है लेकिन कब तक .... बस कुछ ही दिनों में यह भी तैरते हुए गायब हो जाएगा। फिर ना जाने कितनी बेटियां है, ना जाने कितनी आरुषियां हैं, ना जाने कितनी दामिनियां है, ना जाने कितनी निर्भयाएं हैं, उनके किस्से आते रहेंगे और साथ में अदालतों के फैसले भी आते रहेंगे। कभी कोई 'नाबालिग' निकल जाएगा तो कभी सबूतों के अभावों में कोई बरी हो जाएगा....अदालत हमेशा सच हो यह जरूरी नहीं पर आरोप हमेशा सही हो यह भी जरूरी नहीं.. पर एक नागरिक के रूप में, एक स्त्री के रूप में, एक पत्रकार होने के नाते मुझे यह जानने का हक है कि तुम्हें किसने मारा? तुम कैसे मरी?
माता-पिता बरी हो जाए मुझे कोई कष्ट नहीं पर यह तो बताया जाए कि तुम्हारे साथ उस रात को हुआ क्या था? इस तरह जब देश की बच्चियां कत्ल कर दी जाती है और अपराधी पकड़े नहीं जाते तो सच कहूं मेरे मन में कुछ फंसता है। कौर अटकता है। इस समाज से वितृष्णा होने लगती है। उबकाई आती है विकृतियों को देखकर.... अधूरे सच को मिटाने के लिए, पूरे सच को बताने के लिए लौट आओ आरुषि, अपने पिछले जन्म की यादों को लेकर ...