आप जब केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार गठित हो चुकी है चुनाव परिणाम का संतुलित विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। कुछ राजनीतिक दलों के दावों को छोड़ दें तो इस तरह के संघर्ष की उम्मीद ज्यादातर लोगों को नहीं थी।
कई राज्यों विशेषकर उप्र, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बंगाल आदि में जबरदस्त लड़ाई हुई। यदि लंबे समय तक 100 से ज्यादा सीटों पर यह अनुमान लगाना कठिन हो कि कौन जीतेगा तो यह साधारण स्थिति नहीं हो सकती। स्वयं बहुमत नहीं पाना भाजपा के लिए बहुत बड़ा धक्का है। कांग्रेस के लिए सीटों और मतों में हुई बढ़ोतरी पार्टी के अंदर आशा और उत्साह पैदा करने वाला है। हालांकि लोकसभा में महत्व बहुमत के आंकड़ों का होता है और वह अभी राजग के पास है।
भाजपा और मोदी सरकार के विरुद्ध असंतोष और नाराजगी थी इसको नकारा नहीं जा सकता। किंतु क्यों थी? चुनाव परिणाम ऐसा नहीं है जिसे सामान्य विश्लेषण से समझा जा सके। कांग्रेस सहित भाजपा विरोधी जो कारण दे रहे हैं उनमें ज्यादातर उन्हीं पर लागू होते हैं जो भाजपा, उसकी विचारधारा या संघ परिवार के विरोधी हैं। भाजपा को कमजोर करने और स्वयं के मजबूत होने का विश्लेषण करने का उनका अधिकार है।
लंबे समय से कांग्रेस और दूसरी पार्टियों ने भाजपा के विरुद्ध जो प्रचार किया है, नरेंद्र मोदी सरकार को लेकर जनता के मन में जो नकारात्मक भाव बिठाने की कोशिश की उनका असर हुआ है। उदाहरण के लिए आरक्षण और संविधान खत्म करने का झूठा नैरेटिव कुछ हद तक चला। सोशल मीडिया और नैरेटिव में भाजपा कमजोर पड़ रही थी यह साफ था। मतदान के पीछे ये सारे कारक थे। किंतु मुख्य कारण इनसे अलग है और उनको समझने की आवश्यकता है। भाजपा को लोग वोट क्यों देते हैं,इसे समझकर ही इसका विश्लेषण हो सकता है।
आगे बढ़ने के पहले इस सच को स्वीकार करना पड़ेगा कि भाजपा अभी भी सबसे बड़ी, सबसे ज्यादा वोट पाने वाली मजबूत पार्टी है। जिन स्थानों पर वह जीत नहीं सकी वहां अनेक में उसका प्रदर्शन ठीक रहा है। बावजूद भाजपा के लिए असाधारण धक्का है। सामान्य विश्लेषण यह है कि 10 वर्षों तक सत्ता में रहने के कारण आम जनता ही नहीं कार्यकर्ताओं और समर्थकों में भी कई प्रकार के असंतोष पैदा होते हैं।
यह विश्लेषण भी सरलीकरण होगा। एक तर्क यह है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार तीसरी बार अपने नेतृत्व में पार्टी को बहुमत दिलाने का करिश्मा कोई नहीं दिखा सका। लेकिन भाजपा ने कांग्रेस के अलावा अकेली पार्टी के पक्ष में बहुमत प्राप्त किया, ऐसा दो बार करने का रिकॉर्ड बनाया तो आगे भी ऐसा होना चाहिए था।
भाजपा ऐसी पार्टी है जिसका एक आधार वोट बैंक सुदृढ़ हो चुका है। वह एक आधार वोट से शुरुआत करती है। इसमें उसे बहुमत न मिलना सामान्य घटना नहीं है। असंतोष पैदा हुआ तो इसे सामान्य कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। आप चाहे 10 वर्ष शासन करें या 20 वर्ष, शासन को हमेशा जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरना चाहिए।
चुनाव प्रक्रिया आरंभ होने के पूर्व पूरे देश का माहौल भाजपा और सहयोगियों के अनुकूल दिख रहा था। 22 जनवरी को अयोध्या के श्रीराम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर देश भर में उत्सव का माहौल था और लाखों स्थानों पर कार्यक्रम हुए। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात में भाजपा लगातार तीन चुनाव जीत चुकी है। 1995 से बीच की छोटी अवधि को छोड़कर लगातार भाजपा की सरकार है। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बीच के 15 महीना को छोड़कर 2003 से है। यही स्थिति केंद्र में क्यों नहीं हो सकती?
भाजपा के लिए हिंदुत्व और हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रीय चेतना व इससे जुड़े अन्य विषयों के कारण पिछले 10 वर्षों में उसका एक निश्चित वोट आधार सुदृढ़ हो चुका है। जहां भाजपा शक्तिशाली नहीं है वहां ऐसी सोच रखने वाले मतदाता किसी अन्य को वोट देते हैं लेकिन जहां भाजपा है वहां उसे ही। जिन विधानसभा चुनावों में भाजपा पराजित हुई वहां भी उसका वोट प्रतिशत संतोषजनक रहा। जब आप 2047 तक भारत को विकसित देश, अगले 5 वर्ष में विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था बनने का वायदा करते हैं, उसके अनुरूप काम करते हैं तो देश को भारी जनादेश देना चाहिए था। प्रश्न है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ?
ऐसा भी नहीं है कि विचारधारा को लेकर घोषणाएं नहीं हुई और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री मंत्री अमित शाह, उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ या अन्य नेताओं ने विचारधारा को मुखरता से नहीं रखा। नागरिकता संशोधन कानून लागू हुआ तथा पाकिस्तान से आए हिंदुओं को नागरिकता भी दी गई।
प्रधानमंत्री ने अगली सरकार में समान नागरिक संहिता लागू करने की घोषणा की। कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप बड़ा मुद्दा बनाया गया। राम जन्मभूमि को लेकर राहुल गांधी पर लगाया गया यह आरोप कि उन्होंने एक बैठक में कहा था कि हमारी सरकार आई तो इस निर्णय की समीक्षा के लिए आगे बढ़ेंगे, को भी व्यापक स्तर पर उठाया गया। चुनाव के अंतिम चरण में देश के सकल घरेलू उत्पाद का आया आंकड़ा 8% से ऊपर था।
भारतीय रिजर्व बैंक ने वार्षिक रिपोर्ट में महंगाई नियंत्रित होने और विकास एवं अच्छी अर्थव्यवस्था की तस्वीर पेश की। विपक्ष राष्ट्रीय स्तर पर संगठित भी नहीं था। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस तथा वाम मोर्चा एवं कांग्रेस आमने-सामने था। आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस दिल्ली में साथ थी, पंजाब में लड़ रही थी। केरल में वाम मोर्चा एवं कांग्रेस आमने-सामने था।
इन सबके बावजूद भाजपा अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी तो इसके कारणों की गहराई से छानबीन करनी होगी। यह विश्लेषण भी सतही होगा कि भाजपा के 5 किलो अनाज के समानांतर विपक्ष द्वारा 10 किलो, महिलाओं के खाते में पैसे भेजना, बिजली, पानी, मुफ्त देने के फायदे आदि ने लोगों को लुभाया। अक्टूबर-नवंबर में हुए विधानसभा चुनावों में इसके आधार पर कांग्रेस को मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सफलता नहीं मिली।
भाजपा अपनी भूलों और कारणों से ऐसी चुनावी अवस्था में पहुंची है। रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के विषय को आगे बढ़ाने की न कोशिश हुई न इसे राजनीति, अर्थव्यवस्था के साथ भारत के भविष्य से जोड़ने के कार्यक्रम हुए। चुनाव की घोषणा के लगभग एक महीना पहले से सरकार की ओर से ऐसे कदम उठाए गए, घोषणाएं की गई जिनसे रामलला की प्राण प्रतिष्ठा लोगों की स्मृतियों में पीछे चली गई।
सारा डिबेट प्रतिदिन की होने वाली घोषणाओं पर केंद्रित हुई। कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने के पीछे सकारात्मक सोच रही होगी। किंतु इनके सामने आते ही पिछड़ा, दलित, जाति और आरक्षण विषय बना और ऊपर उठता चला गया। श्री राम जन्मभूमि नैरैटिव में पीछे चला गया। पिछड़ों और दलितों का हितैषी कौन, आरक्षण का कौन समर्थक और कौन विरोधी यह इतना प्रबल हो गया कि भाजपा के लिए इससे निकलना कठिन था। प्रधानमंत्री को बार-बार आरक्षण और संविधान पर सफाई देनी पड़ी।
रामलला की प्राण प्रतिष्ठा और हिंदुत्व पर फोकस होने से जाति और अन्य कारक कमजोर पड़ जाते। हालांकि दो चरण के बाद प्रधानमंत्री का अयोध्या का कार्यक्रम सफल दिखा। बावजूद भाजपा ने फिर उसे शीर्ष पर लाने की रणनीति अपनाई हो ऐसा लग नहीं। दूसरा सबसे बड़ा कारण गठबंधन और उम्मीदवार बने। कुछ गठबंधनों को समर्थकों के साथ-साथ भाजपा के कार्यकर्ता नेता मन से स्वीकार नहीं कर सके।
यही स्थिति स्वयं भाजपा के उम्मीदवारों को लेकर थी। पहले चरण के उम्मीदवारों की घोषणा के साथ असंतोष और नाराजगी दिखने लगी थी जो अंतिम चरण तक बनी रही। चुनाव के दौरान दिखता रहा कि भाजपा के कार्यकर्ता, नेता और समर्थक, अपनी ही सरकार पर निष्ठावान लोगों की अनदेखी करने, सत्ता का वैध लाभ भी उन तक नहीं पहुंचाने और कठिन समय में साथ न खड़ा होने का आरोप लगाते थे। कई अंदर एवं बाहर से आए नेताओं को राज्यसभा भेजना, लोकसभा उम्मीदवार बनाना, पार्टी अध्यक्ष व पदाधिकारी बनाना नेताओं-कार्यकर्ताओं को स्वीकार नहीं हुआ।
लोग सामान्य नेताओं के हाव-भाव में अहं और कार्यकर्ताओं को मिलने तक का समय नहीं देने की बात करते थे। इन सब कारणों से कुछ भाजपा कार्यकर्ता, नेता और समर्थक मुखर होकर मतदान करवाने में सक्रिय नहीं रहे तो कुछ उदासीन और कुछ ने विरोध भी किया।
कार्यकर्ता जब सक्रिय होते हैं तो विरोध में बनाए गए नैरेटिव का प्रत्युत्तर देते हैं। लोगों के बीच बहस में वो अपनी बात रखते हैं, आरोपों का खंडन करते हैं, सच्चाई बताते हैं और इन सबका मतदान पर असर पड़ता है। उदासीन और विरोधी हो जाए तो परिणाम ऐसा ही आता है। पार्टी अगर इस अवस्था में पहुंची तो जाहिर है बड़ी संख्या में लोगों के लिए सत्ति सर्वोपरि हो गई विचारधारा, संगठन और कार्यकर्ता गौण।
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)