- सीआईएसएच ने खोजा केले की फसल को बर्बाद करने वाले रोग का इलाज
-
फफूंद जनित फ्यूजेरियम रोग के संक्रमण से बर्बाद हो सकती है फसल
-
संस्था द्वारा तैयार बायोएजेंट रोग के रोकथाम में बेहद असरदार
banana producing farmers of North India: फंफूद जनित फ्यूजेरियम विल्ट रोग केले की फसल के लिए बेहद हानिकारक है। गंभीर संक्रमण होने पर केले की फसल बर्बाद हो सकती है। हाल के कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश के कई केला उत्पादक क्षेत्रों में इसका प्रकोप देखा गया। अयोध्या का सोहावल ब्लॉक जो केले की खेती के लिए जाना जाता है, वहां 2021 में इसका व्यापक प्रकोप देखा गया। इसी तरह प्रदेश के प्रमुख केला उत्पादक क्षेत्रों मसलन महाराजगंज, संत कबीर नगर, अम्बेडकर नगर और कुशीनगर जिलों में केले की फसल पर फ्यूजेरियम विल्ट रोग (टी आर 4) का गंभीर प्रकोप सामने आया था। हाल के सर्वेक्षणों में भी लखीमपुर और बहराइच जिलों में व्यापक रूप से रोग के संक्रमण की पुष्टि हुई है।
रोग के लक्षण : रोग का संक्रमण केले के तने के भीतरी भाग में होता है। संक्रमित केले के पौधे के तने का भीतरी हिस्सा क्रीमी कलर का न होकर कत्थई या काले रंग का हो जाता है।
सीआईएसएच द्वारा रोग के इलाज लिए खोजी गई तकनीक : भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद से संबद्ध केंद्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान (सीआईएसएच), लखनऊ, और करनाल स्थित केंद्रीय लवणता शोध संस्थान से संबद्ध क्षेत्रीय शोध केंद्र लखनऊ ने मिलकर इसका इलाज खोजा। पेटेंट होने के साथ अब कृषि विज्ञान केंद्र अयोध्या के माध्यम से इसके प्रयोग के लिए किसानों को प्रोत्साहित भी किया जा रहा है। नतीजे भी अच्छे रहे हैं। सोहावल के जो किसान केला बोना बंद या कम कर दिए थे अब फिर से केला बोने लगे।
उल्लेखनीय है कि डॉ. टी. दामोदरन के नेतृत्व में रोग के रोकथाम के लिए बायोएजेंट, आईसीएआर फ्यूसिकोंट (ट्रायोकोडर्मा आधारित सूत्रीकरण) और टिशू कल्चर पौधों के जैव-टीकाकरण का उपयोग कर एक प्रबंधन प्रोटोकॉल विकसित किया गया। उत्पाद फ्यूसिकोंट केले विल्ट प्रबंधन के लिए एक 9 (3 बी) पंजीकृत सूत्रीकरण था। किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में उत्पादन और आपूर्ति के लिए आईसीएआर द्वारा इसका वाणिज्यीकरण भी किया गया है।
फ्यूसिकोंट के प्रयोग का तरीका : संस्थान के निदेशक डॉ. टी. दामोदरन के अनुसार संस्थान द्वारा तैयार बायोजेंट (फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन) पानी में पूरी तरह घुलनशील होता है। रोग से बचाव के लिए एक किलो बायोएजेंट को 100 लीटर पानी में मिला लें और एक-एक लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद डालें । अगर रोग के लक्षण फसल पर दिखाई दें तो 100 लीटर पानी में 3 किलो फ्यूसिकोंट फॉर्मूलेशन 500 ग्राम गुड़ के साथ घोले लें और दो दिन बाद एक-दो लीटर पौधों की जड़ों में रोपाई के 3, 5, 9, और 12 महीने के बाद प्रयोग करें।
फसल चक्र के प्रयोग से भी कम होता है संक्रमण का खतरा : उन्होंने केला उत्पादक किसानों को यह भी सलाह दी कि वह फसल चक्र में बदलाव करते रहे। पहले साल की फसल में इस रोग के संक्रमण की संभावना बहुत कम होती है। पर उसी फसल की पुत्ती से दूसरी फसल लेने पर संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है। बेहतर हो कि केले के बाद धान, गेंहू, प्याज, लहसुन आदि की फसल लें। फिर केले की फसल लें। इससे मिट्टी का संतुलन भी बना रहता है और संक्रमण का खतरा भी कम हो जाता है।
संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक पी.के. शुक्ल के मुताबिक जब कोई फसल गैर परंपरागत क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचलित होती है तो इस तरह के रोगों के संक्रमण का खतरा भी होता है। केले के साथ भी यही हुआ। हाल ही में डॉ. पी.के. शुक्ल ने उत्तर प्रदेश के अमेठी, बाराबंकी, अयोध्या, गोरखपुर, महाराजगंज, संत कबीर नगर जिलों में स्थित 144 केले के बागों का निरीक्षण किया। पाया कि केले के जड़ क्षेत्र में पादप परजीवी सूत्रकृमि की कई प्रजातियां मौजूद थीं। ये सूत्रकृमि फसल की उपज क्षमता में प्रत्यक्ष कमी के अलावा फसल को कवक जनित रोगों के प्रति संवेदनशील बनाती हैं। यद्यपि उनकी आबादी को आर्थिक क्षति सीमा से नीचे ही देखा गया था, तथापि, फसल चक्र और टिशू कल्चर पौधों के रोपण का पालन करके उनकी जनसंख्या को नियंत्रित रखना ही केला किसानों के लिए बेहतर होगा।