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कांग्रेस के भविष्य पर बड़ा प्रश्नचिन्ह

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अवधेश कुमार

कांग्रेस पार्टी के अंदर जिस तरह अध्यक्ष के चयन को लेकर मंथन चलता दिख रहा था, उससे कुछ समय के लिए यह भ्रम अवश्य पैदा हुआ कि शायद इस बार कोई नया नाम निकलकर सामने आए। राहुल गांधी ने 25 मई की कार्यसमिति से इस्तीफा देते समय स्पष्ट कर दिया था कि उनके परिवार से कोई अध्यक्ष नहीं होगा।
 
 
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से जब सोनिया गांधी एवं राहुल दोनों बाहर निकल गए तो लगा कि वाकई इस बार परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के पार्टी की कमान संभालने की संभावना बन रही है। इसमें सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाए जाने का पहला निष्कर्ष यही है कि ये कवायदें केवल औपचारिकता थीं। परिवार से जुड़े और उसके वरदहस्त के कारण शीर्ष नेतृत्व में शुमार प्रमुख नेताओं के समूह ने मन बना लिया था कि बाहर का कोई अध्यक्ष नहीं हो सकता।

 
जो सूचना है कि 10 अगस्त को 5 भागों में अलग-अलग क्षेत्रवार बैठकों के बाद शाम को दोबारा कार्यसमिति की बैठक में फिर राहुल से इस्तीफे पर पुनर्विचार का आग्रह किया गया। इस पर पार्टी महासचिव प्रियंका वाड्रा ने बताया कि वे इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसके तुरंत बाद सबसे पहले पी. चिदंबरम ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव रखा, जो मिनटों में गुलाम नबी आजाद, चिदंबरम, आनंद शर्मा और मनमोहन सिंह का सम्मिलित प्रस्ताव बन गया।
 
 
इसके विरुद्ध कौन जा सकता था? सभी सदस्यों ने इस पर मुहर लगा दी, तो 2 वर्ष बाद फिर अध्यक्ष की जिम्मेवारी घूमकर सोनिया के कंधों पर आ गई है। बैठक के बाद रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि कांग्रेस महाधिवेशन में नियमित अध्यक्ष के चुनाव तक वे पार्टी की बागडोर संभालेंगी, हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया कि महाधिवेशन कब होगा?
 
ढाई महीने की कसरत के बाद यदि पार्टी, अस्वस्थता के कारण स्वयं को औपचारिक जिम्मेवारी से मुक्त करने वाली सोनिया की शरण में ही जाने को विवश है तो इसके मायने कांग्रेस की दृष्टि से अत्यंत ही चिंताजनक हैं। कांग्रेस इस समय अपने जीवनकाल के सबसे गंभीर संकट और चुनौतियों का सामना कर रही है। गहराई से विचार करें तो उसके सामने राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी के रूप में अपने अस्तित्व बनाए रखने का संकट है। यह एक दिन में पैदा नहीं हुआ है।

 
2014 के आम चुनाव में कांग्रेस 44 स्थानों तक जब सिमटी तो उस समय सोनिया गांधी ही अध्यक्ष थीं। अगर कांग्रेस उस समय ईमानदारी से पराजय के कारणों का गहन विश्लेषण करती तो उसे नरेन्द्र मोदी के आविर्भाव से आलोड़ित होते समाज तथा तेजी से बदलते भारत के सामूहिक मनोविज्ञान और उसके समक्ष अपनी सारी कमजोरियों का अहसास हो जाता।
 
 
एके एंटनी की अध्यक्षता में गठित समिति ने जगह-जगह जाकर समझने की कोशिश की और एक रिपोर्ट सोनिया गांधी को दी। वह रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। हालांकि कांग्रेस के ही नेता बताते हैं कि राहुल गांधी ने अपने अनुसार उस रिपोर्ट के आधार पर बदलाव किया। किंतु उस समय समिति के दौरों के दौरान आ रहीं खबरों को याद किया जाए तो अनेक स्थानों पर नेताओं-कार्यकर्ताओं ने सोनिया एवं राहुल दोनों के नेतृत्व पर प्रश्न उठाए थे। सच कहा जाए तो 2019 का चुनाव परिणाम 2014 का ही विस्तार था।

 
कांग्रेस इसलिए सन्निपात की अवस्था में आ गई, क्योंकि उसे राजनीति में होते पैराडाइम शिफ्ट यानी प्रतिमानात्मक परिवर्तन का अहसास हुआ ही नहीं। राहुल गांधी और सोनिया गांधी को उनके रणनीतिकारों ने बता दिया कि मोदी सरकार जा रही है और कांग्रेस 180 से ज्यादा सीटें जीतेगी। अगर राहुल गांधी कहते हैं कि हमें पराजय के लिए अनेक लोगों को जिम्मेवार ठहराना है इसलिए अध्यक्ष नहीं रह सकते तो क्या उसमें सोनिया गांधी शामिल नहीं हैं?

 
2019 में हम खंडहर में परिणत होती जिस कांग्रेस को देख रहे हैं, उसके लिए किसी दोषी माना जाएगा? अगर नरसिंहराव के कार्यकाल को छोड़ दें तो पिछले 4 दशकों में नेहरू-इंदिरा परिवार ही पार्टी का सर्वोच्च नीति-निर्धारक रहा है, भले ही औपचारिक तौर पर उसके हाथों नेतृत्व रहा हो या नहीं। स्वयं सोनिया गांधी मार्च 1998 से 2017 तक अध्यक्ष रहीं। 2013 से उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी कार्यकारी अध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे एवं बाद में वे अध्यक्ष बन गए।
 
 
2019 के चुनाव परिणाम को देखें तो कांग्रेस को 52 में से 23 सीटें तमिलनाडु एवं केरल से ही मिली हैं। अगर तमिलनाडु में द्रमुक ने उदारता से उसे सीटें न दी होतीं तथा केरल में शबरीमाला विवाद के कारण लोगों में वाम मोर्चे के खिलाफ गुस्सा न होता तो वह 2014 से भी पीछे चली जाती। यदि मोदी सरकार ने शबरीमाला पर अध्यादेश लाया होता तो वहां का परिणाम भी थोड़ा अलग होता।
 
नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की नीतियों और व्यवहारों से संपूर्ण भारत एक बड़े बदलाव की ओर प्रयाण कर चुका है। इसमें जो भी पार्टी नीति, नेतृत्व और रणनीति में अनुकूल आमूल बदलाव करने का माद्दा नहीं दिखाएगा, वह या तो इतिहास के अध्याय में सिमट जाएगा या फिर निष्प्रभावी अवस्था में जीवित रहेगा। आप देख लीजिए यह प्रक्रिया कितनी तेजी से चल रही है?

 
कांग्रेस लंबे समय से नीति, नेतृत्व और रणनीति के संकट का शिकार रही है। सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष की घोषणा करते हुए सुरजेवाला ने कहा कि वे तजुर्बेकार नेता हैं और देश जिन परिस्थितियों में गुजर रहा है, उसमें हमें उनके नेतृत्व की जरूरत है।
 
यह सोनिया गांधी ही थीं जिनके नेतृत्व में 1999 में लड़े गए पहले चुनाव में कांग्रेस उस समय तक सबसे कम 114 सीटों तक सिमट गई थी। 2004 में भी उसे केवल 145 सीटें ही मिली थीं। चूंकि वाजपेयी सरकार के खिलाफ संघ परिवार में ही व्यापक असंतोष पैदा हो गया था इसलिए नेताओं-कार्यकर्ताओं ने चुनाव में काम ही नहीं किया।

 
2009 के चुनाव में भाजपा एक लचर पार्टी की तरह लड़ रही थी तो कांग्रेस को 206 सीटें आ गईं। कोई भी निष्पक्ष विश्लेषक स्वीकार करेगा कि सोनिया गांधी के कारण पार्टी एकजुट अवश्य रही, समय के अनुरूप कांग्रेस को वैचारिक धार देने तथा नेतृत्व समूह में ऊर्जावान-क्षमतावान चेहरों का चयन कर आगे लाने का कदम उसने बिलकुल नहीं उठाया।
 
10, जनपथ कुछ विश्वासपात्र-कृपापात्र नेताओं के सुझाव के अनुसार भूमिका निभाता रहा। देश बहुआयामी वैचारिक आलोड़न से गुजर रहा था और सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को यथास्थिति से निकलने की तैयारी तक नहीं की जा सकी। 2014 आते-आते विचार, व्यवहार और नेतृत्व के स्तर की जड़ता तथा क्षरण परवान चढ़ चुकी थी।

 
नरेन्द्र मोदी की वाणी में लोगों को एक ऐसा प्रभावी नेतृत्व दिखा जिसके पास देश को जड़ता से निकालने का विचार एवं व्यवहार दोनों है। बदलाव की प्रक्रिया वहां से आरंभ हुई, जो 2019 में सुदृढ़ हुई है। इसमें ऐसे कांग्रेस के लिए जगह थी ही नहीं।
 
कांग्रेस नेतृत्व इस बहुआयामी बदलावों को समझने में अभी तक नाकाम है। चुनाव परिणामों का जो कारण कांग्रेस बता रही है, उसमें न तो वह देश में आ चुके बदलाव के बयार को स्वीकार करती है और न अपनी घातक कमजोरियों को। यही कारण है कि ले-देकर उसकी नजर राहुल से निकलते हुए प्रियंका और अंतत: सोनिया गांधी तक टिक जाती है।

 
कांग्रेस को इस समय ऐसे नेतृत्व की जरूरत थी, जो भारतीय राजनीति में आ रहे आमूल बदलाव को समझते हुए उसके अनुरूप पार्टी को वैचारिक कलेवर देने तथा नेतृत्व के स्तर पर सक्षम लोगों को सामने लाने का साहस कर सके। जिसके पास नरेन्द्र मोदी एवं अमित शाह के अनुरूप परिश्रम करने की क्षमता के साथ वक्तृत्व कला भी हो। 
 
क्या सोनिया गांधी इन कसौटियों पर खरी उतरती हैं? एक बीमार महिला, जो 2014 की पराजय के बावजूद पार्टी में किसी स्तर पर बदलाव का माद्दा न दिखा सकी, उससे ऐसी उम्मीद की ही नहीं जा सकती। इसके संकेत भी साफ हैं।

 
अनुच्छेद 370 पर देश का बहुमत उत्साहजनक समर्थन दे रहा है और कांग्रेस नेतृत्व उसकी आलोचना कर रहा है। खीझकर पार्टी के अंदर से भी नेताओं ने सरकार के कदम का समर्थन कर दिया, पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की समझ में नहीं आया। आखिर सोनिया और राहुल की अनुमति के बिना 370 पर पार्टी के सामने बात रखने के लिए गुलाम नबी आजाद की योजना को मूर्तरूप कौन दे सकता था? यह वैचारिक दिशाभ्रम का केवल एक प्रमाण है।
 
 
जिस राज्य में देखिए, कांग्रेस के अंदर नेताओं-कार्यकर्ताओं में अपने भविष्य को लेकर छटपटाहट है। लोग पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं, क्योंकि उन्हें नहीं लगता कि वर्तमान कांग्रेसी नेतृत्व भाजपा का सामना करने में सक्षम है। कांग्रेस के शीर्ष नेताओें में शामिल लोगों के सामने भी स्पष्ट हो चुका है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका को लेकर आम जनता में बिलकुल भी आकर्षण नहीं है। मोदी-शाह की तुलना में जनता इनको महत्व नहीं देने वाली।

 
बावजूद यदि पार्टी परिवार से बाहर जाने का साहस नहीं कर पाई तो फिर यह मानकर चलिए कि वर्तमान कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य पर पहले से बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है।

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