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लोकतन्त्र की हत्या करने पर उतारू भीड़तन्त्र

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कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

भारत की स्वतन्त्रता एवं संविधान लागू होने के पश्चात हमारे पुरखों ने यह कभी नहीं सोचा रहा होगा कि -जिन उद्देश्यों को लेकर भारतवर्ष की शासन व्यवस्था को संवैधानिक शक्तियां तथा नागरिकों को अपने मत विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ उनके सर्वांगीण विकास के लिए मौलिक अधिकारों एवं कर्त्तव्यों की बागडोर सौंपी थी।

उन सभी को एक दिन भीड़तन्त्र योजनाबद्ध ढंग से गिरोह बनाकर उसी लोकतन्त्र की हत्या करने पर उतारू हो जाएगा,जिसके आधार पर राष्ट्र के सर्वतोन्मुखी विकास एवं गरिमा की आकांक्षा एवं अपेक्षा का मूलस्वर निहित है।

भारतवर्ष की लोकतान्त्रिक प्रणाली एवं मूल्यों की रक्षा, आदर करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने राष्ट्र की अस्मिता, एकता-अखण्डता एवं सम्प्रभुता से किसी भी कीमत पर खिलवाड़ नहीं कर सकता है। यह हमारी उसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था एवं श्रेष्ठ मूल्यों की विशेषता है कि संवैधानिक नियमों के अनुरूप सभी को सहमति, असहमति, विरोध दर्ज करने -करवाने की स्वतन्त्रता है। लेकिन इन संवैधानिक अधिकारों की सीमा का आकार क्या इतना विस्तृत है कि विरोध ,प्रतिरोध के नाम पर राष्ट्रीयता,संवैधानिक संस्थाओं, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के मूल्यों का अपमान तथा सार्वजनिक सम्पत्तियों को क्षति पहुंचाने की छूट दे दी गई है?

नागरिक अधिकारों की दुहाई देने से पहले क्या नागरिक कर्त्तव्यों के बारे में भी उतना ही उत्साह दिखलाया जाता है तथा दावेदारी की जाती है? याकि केवल अधिकारों के नाम पर उच्छृंखलता,उद्दण्डता एवं सार्वजनिक सम्पत्तियों, जनजीवन को बाधित करने का ही दम्भ भरा जाता है।

सम्भवतः समूचे विश्व में भारत ही एक ऐसा अनूठा देश है,जहां अधिकारों पर तो बात की जाती है लेकिन कर्तव्यों के नाम पर गहरी चुप्पी साध ली जाती है। इतना ही नहीं बल्कि अधिकारों का दम्भ भरते-भरते राष्ट्र के खण्डन, वैमनस्यता, विभेद की पटकथा रचकर आपसी सद्भाव एकता तथा बन्धुत्व को क्षति पहुंचाने में भी शर्म महसूस न करते हुए राष्ट्रघात से नहीं चूकते हैं।

क्या विचार -अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं नागरिक अधिकारों के नाम पर राष्ट्रीयता के विरुद्ध विषवमन करने, आन्तरिक अशांति, हिंसा व उपद्रव करना किसी भी तरीके से सही सिध्द किया जा सकता है? किन्तु यह राष्ट्र का दुर्भाग्य कहिए याकि उन आन्तरिक व बाह्य तत्वों की सफलता समझिए जिनके प्रयोजन में भारत की एकता, अखण्डता, बन्धुता तथा वैश्विक शक्ति बनने की सामर्थ्य व अपनी वैविध्यताओं के साथ 'भारत का एक राष्ट्र रुप' में होना सदा खटकता रहा है। लेकिन वे सब धीरे-धीरे कामयाब होते दिख रहे हैं।

देश एवं समाज में वैमनस्यता,संविधान एवं कानून की आड़ लेकर 'भीड़तन्त्र' की संगठित शक्तियों द्वारा हमारी संसद, न्यायपालिका, राष्ट्रीय प्रतीकों, धरोहरों का अपमान उन्हें क्षति पहुँचाने के कुत्सित यत्न व सार्वजनिक सम्पत्तियों को नष्ट कर भारत की छवि अलोकतान्त्रिक,अराजकतावादी, अशांति एवं  उपद्रव तथा अन्तर्कलह से जूझने वाले देश के रुप में गढ़ी जा रही है। इसके पीछे जहां कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दल अपने क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के कारण सम्मिलित होते हैं, याकि वे भी इस योजना में सम्मिलित हैं जिनके माध्यम से भविष्य में 'सत्ता वापसी' के लिए राह आसान सी दिखने लगती हैं। क्या राजनैतिक स्वार्थों के लिए इतने निचले स्तर पर गिर जाना स्वस्थ लोकतन्त्र की निशानी है? जहां राष्ट्रीय अपमान को समर्थन व मौन स्वीकृति केवल इस हेतु दी जाती है कि इससे सत्तासीन दल की छवि बिगड़े व राजनैतिक लाभ प्राप्त हो सकें।

सशक्त विपक्ष का होना लोकतन्त्र की सबसे बड़ी आवश्यकता है। लेकिन क्या विपक्ष का मतलब केवल विरोध होता है? ऊपर से तब जबकि समूचे विपक्ष को देश की जनता ने दो-दो बार केन्द्रीय नेतृत्व के लिए नकारा ही नहीं है बल्कि उसे समाप्तप्राय कर दिया है। यह स्थिति लगभग राज्यों में भी उसी तरह दिखती है।

ऊपर से विपक्ष या वे लोग जो सरकार की नीतियों से सहमत नहीं हैं उनके पास संसद के सदन में अपना विरोध दर्ज करवाने का माध्यम है,किन्तु वे संसद में अपने युक्तिसंगत तथ्यों एवं तर्कों से सरकार की कार्यक्रमों एवं नीतियों की काट निकालने में बेदम पिटते हैं। तब देश में पिछले दरवाजे से सरकार की छवि धूमिल करने के चक्कर में देश में हिंसा ,अशांति एवं उपद्रव फैलाने वालों के साथ गलबहियां करना क्या उनकी पतित मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठाता है? क्या राजनैतिक हितों को साधने के लिए भारतीय लोकतन्त्र की हत्या करने वाले 'भीड़तन्त्र' का हिस्सा बनना तथा उन्हें राष्ट्रीयता के विरुद्ध उकसाने का कार्य किसी प्रकार से न्यायोचित ठहराया जा सकता है?

विडम्बना की बात देखिए कि आन्दोलन के नाम पर भीड़ जुटाई जाती है। किसी भी रास्ते, स्थान को कैदकर उसे सियासी रंगमंच के तौर पर तैयार किया जाता है। प्रारम्भ में आन्दोलन अपने मुद्दों के लिए अडिग दिखता है किन्तु धीरे-धीरे नाटकीय मंचन की भांति आन्दोलन एवं उसके मुद्दे गायब हो जाते हैं।

तत्पश्चात संविधान की कसमें खाते हुए,उसी संविधान एवं कानून की धज्जियां उड़ाई जाने लगती हैं जिनके नाम पर संगठित गिरोह राष्ट्रीयता के विरुद्ध मुखर होता है।

इनके लाव- लश्कर में हमेशा वही चेहरे, एक्टिविस्ट,बौध्दिक नक्सली, अवार्ड वापसी गैंग,टुकड़े-टुकड़े गैंग, कवि, लेखक, पत्रकार, सिनेमाई भांड सहित उन नामचीन सत्ता एवं सुविधाभोगी तोपचियों की संख्या बढ़ने लगती है जो राष्ट्रीयता, राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति तथा सत्तारूढ़ दल, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित उन सभी के विरुद्ध विषवमन करने के साथ ही हिन्दू -हिन्दुत्व के प्रति गहरी नफरत एवं घ्रणा से भरे रहते हैं। इनके अन्दर की खीज,छटपटाहट, घ्रणा, विद्वेष इतनी कायरतापूर्ण होती है कि वे अपनी कुण्ठित हठधर्मिता के लिए 'विरोध व राष्ट्रद्रोह' में अन्तर नहीं समझते।

केन्द्र में भाजपा की नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल के इन वर्षों में कभी भी यह नहीं देखा गया कि ये लोग किसी भी बात, नीति में सरकार से सहमत दिखें हों, बल्कि जो चीज हमेशा दृष्टव्य हुई वह यह कि इन तथाकथित 'भीड़तन्त्र' के कर्त्ता-धर्त्ताओं के अन्दर घुटन, विद्वेष की जहरीली मानसिकता जिसमें 'राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति' के प्रति नफरत के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

बल्कि भीड़तन्त्र का पूर्व प्रायोजित कार्यक्रम अनेकों मुखौटे लगाकर सामने आता है जो समय- समय पर केवल अपना चेहरा बदलता है, लेकिन भीड़तन्त्र के निशाने पर सदैव राष्ट्र की अस्मिता को चोटिल करने का कुत्सित षड्यन्त्र ही छुपा होता है।

ये गांधी की अहिंसा का पाठ दूसरों को पढ़ाते हुए 'हिंसा' का षड्यंत्र रचते हैं। हाथों में तिरंगा थामकर राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करते हैं। ये सरकार विरोध के नाम पर किसी भी बाह्य शक्ति का महिमामण्डन व उनका सहयोग लेने से नहीं चूकते हैं। ध्यातव्य हो कि भीड़तन्त्र के सिपेहसालार कभी हमारी भारतीय सेना के पराक्रम पर प्रश्नचिन्ह उठाते हैं। तो कभी एक्टिविस्ट के नाम पर उन्हें बलात्कारी बतलाते हैं। कभी राष्ट्रीय मुद्दों यथा- धारा-३७०, सर्जिकल स्ट्राइक, नागरिकता कानून,तीन तलाक कानून, श्री राममन्दिर, कृषि कानूनों के विरुद्ध अन्तर्राष्ट्रीय लामबन्दी करने तथा विदेशों से हस्तक्षेप करने की गुहार लगाते फिरते हैं; जबकि यह विशुद्ध आन्तरिक मामला है।

इस पर भी जब असफल सिध्द होते हैं तब दंगों की आग में झोंकने के लिए गला फाड़कर चिल्लाते हैं। इनकी मुखरता, प्रतिरोध  प्रायोजित योजना एवं पक्षधरता के आधार पर होता है। ऐसे में इस गैंग को हिन्दू-हिन्दुत्व को लांछित करने की जरा सी भी गुंजाइश मिली उसी पर ये गैंग भीड़ के साथ उतर जाती है। लेकिन वहीं जब मुसलमानों,ईसाईयों से सम्बन्धित कोई मुद्दा होता है, तब ये बिलों में जाकर छुप जाते हैं। मानवाधिकार सहित अन्य संवैधानिक उपबन्ध केवल एकपक्षीय व इनके मतानुसार ही हैं, बाकी के लिए नहीं? और इनके अनुसार सबका ठेका केवल हिन्दू समाज ने ले रखा है।

इन समस्त घटनाक्रमों के विश्लेषण से जो परिणाम एवं संकेत दृष्टिगोचर हुए हैं वे यह हैं कि इस भीड़तन्त्र का केवल और केवल उद्देश्य जनजीवन को अस्त- व्यस्त एवं बाधित कर अपने कुत्सित षड्यंत्रों को कारगर बनाना। क्रान्ति के नगमे गाने के नाम पर सरकार,हिन्दू-हिन्दुत्व विरोध। सत्ता संरक्षण में सुविधाभोग से वंचित होने के कारण पुनः सत्ता में आने व  स्वयं का प्रभुत्व स्थापित कर राष्ट्र की सभ्यता एवं संस्कृति, लोकतान्त्रिक मूल्यों,संस्थाओं पर कुठाराघात के अलावा अन्य कोई बात नहीं मिलती है। भीड़तन्त्र के पीछे की असल भूमिका यही रही है।

भीड़तन्त्र के नाम पर लोकतन्त्र को बन्धक बना लेने वाले गिरोहों के खतरे बहुत गंभीर एवं भयावहता की ओर संकेत करते हैं। भीड़तन्त्र जिन मुद्दों के नाम पर अपना खेल खेलता है वह बेहद घातक है। यह गिरोहों की लामबन्दी वाला भीड़तन्त्र राजनैतिक छद्म युध्द के साथ ही बाह्य उपद्रवियों, विदेशी शक्तियों से साठ-गांठ कर उन्हें भी भीड़ में छुपाकर भारत में उपद्रव एवं हिंसा करने का वातावरण निर्मित करने में सहयोग प्रदान करता है।
यदि इस 'भीड़तन्त्र' की पहचान एवं उसके पीछे के इन गम्भीर और खतरनाक षड्यंत्रों का पर्दाफाश कर नकेल नहीं कसी जाती है,तब तो इसके पीछे की भयावहता किसी को भी आतंकित करती रहेगी। यदि इसी तरह चलता रहा आया तब सवा अरब से अधिक जनसंख्या वाले इस देश में कहीं भी हजारों-लाखों की भीड़ इकठ्ठा कर देश की संसद द्वारा पारित किसी भी कानून को खत्म करने के प्रयोजन आयोजित किए जाते रहेंगे।

क्या पता कल को यह 'भीड़तन्त्र' संगठित तरीके से हमारी धरोहरों, न्यायालयों,विभिन्न संवैधानिक निकायों, सार्वजनिक सम्पत्तियों को क्षत-विक्षत करने पर अमादा हो जाए? जिस तरह से गिरोहबंद भीड़तन्त्र द्वारा जनजीवन को बाधित कर दिया जाता है, सशस्त्र उपद्रव किया जाता है। खुलेआम हिन्दू- हिन्दुत्व के विरोध विषवमन किया जाता है।

ऐसी अराजकता, आतंकिकता की स्थिति में आम जनता एवं सर्वसामान्य के सुरक्षित जीवन की क्या गारंटी है? वास्तव में लोकतन्त्र की हत्या इसे नहीं तो और किसे कहेंगे?

देश की जनता ने संसद में अपने प्रतिनिधि इसीलिए भेजे हैं कि उनके हितार्थ नीतियां बनें। लेकिन क्या संसद के द्वारा पारित कानूनों, नीतियों का प्रमाणपत्र 'भीड़तन्त्र'  जारी करेगा? संवैधानिक मर्यादा के अनुसार सभी को शान्तिपूर्ण आन्दोलन करने,दल बनाकर चुनाव लड़ने सहित अनेकानेक नागरिक अधिकार प्राप्त हैं। किन्तु क्या अभिव्यक्ति या नागरिक स्वतन्त्रताओं का अर्थ भारत व राष्ट्रसंस्कृति का विरोध है? क्या हिन्दू और हिन्दुत्व का विरोध ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का पर्याय है? इन सभी बिन्दुओं पर देश के जनमानस को अवश्य विचार करना चाहिए। क्योंकि भीड़तन्त्र को लोकतन्त्र की हत्या करने और राष्ट्रद्रोह, हिन्दूद्रोह की छूट किसी भी स्थिति में नहीं दी जा सकती।

जहां तक बात रही राजनीति की तो यदि जनता सरकार के निर्णयों में अपना अहित मानती है तो चुनाव में उसका परिणाम सबके समक्ष होता। भारत के लोकतन्त्र की यही खूबसूरती रही है कि उसने राजनैतिक दलों या नेताओं से असहमत होकर उन्हें सत्ता से पदच्युत कर सबक सिखाया है। तनिक विचार करिए क्या भीड़तन्त्र की मानसिकता में भारत की संवैधानिक संस्थाओं के प्रति अविश्वास उत्पन्न करने एवं उनके अपमान का छद्म लक्ष्य या गृहयुद्ध की विभीषिका फैलाने के षड्यन्त्रों का संकेत स्पष्ट नहीं हो रहा? सुप्रीम कोर्ट से लेकर के संसद की अवमानना व राष्ट्रीयता को खण्डित करने का षड्यंत्र रचने वाले भीड़तन्त्र के हाथों क्या लोकतन्त्र की हत्या करने दी जा सकती है?

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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